महानगरों के तहखानों में नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर इन गरीब मजदूरों
के पास और विकल्प क्या है
· प्रतीक वाघमारे
"शमा हो जाएगी जल-जल कर धुंआ आज की रात,
आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे’
किसने सोचा था कि कोरोना वायरस से बचने के लिए देश भर में लागू
21 दिनों की “घरबंदी” (लाकडाउन) हजारों-लाखों प्रवासियों को बड़े महानगरों से अपने
घर (गाँव, कस्बे और शहर) की ओर जाने के लिए मजबूर कर देगी. भले ही सरकार और तमाम
प्रचार माध्यमों में यह दिशा-निर्देश
जारी किए जा रहे हैं कि आप जहाँ हैं, वहीँ रहें. अपने घरों से बाहर न निकलें. साबुन से हाथ धोते रहें और मुंह पर हाथ न लगायें या फिर खांसते-छींकते वक्त मुंह पर रुमाल रखें.
लेकिन फिर ये “पाकीजा”
फिल्म का गाना ‘हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे कि शमा हो जाएगी....वाली लाइन कहां से आ जाती है? असल में, जिनके इस महानगर में अपने घर नहीं हैं, वे किन घरों में
रहें? जो कमाते हैं तो खाते हैं, वे खाएं क्या? अपने छोटे, हर ओर से बंद अँधेरे किराए
के दडबों में जिन्हें आप चाहें तो घर कह सकते हैं, लेकिन जब न कोई काम-धंधा है तो इनका
भी किराया कहाँ से आएगा?
दरअसल, 22 मार्च को लगने वाले जनता कर्फ्यू का एलान तो एक-दो दिन पहले हो जाता है मगर 21 दिन के लॉकडाउन के लिए केवल 4 घंटे ही दिए जाते है. जैसे घबराहट में शहरी मध्यमवर्ग के लोग दौड़कर जनरल स्टोर्स और सुपर मार्केट्स में
लाइनें लगा देते हैं और महीनों का राशन बटोरने और जमा करने में लग जाते हैं , वह सुविधा इन प्रवासी मजदूरों
और गरीबों को नहीं है. उनके लिए काम-धंधा बंद होने का मतलब है, राशन बंद, खाना बंद
और किराये का घर भी बंद.
इन तस्वीरों में जो लोग दिख रहे है, उनकी परेशानी यही है. ये वो दिहाड़ी मजदूर हैं, जो आपकी कालोनी/अपार्टमेंट में कपडे प्रेस करते हैं, हम्माल हैं, ठेले लगते हैं, ज़ोमाटो-स्विगी-अमेज़न-फ्लिप्कार्ट के डिलीवरी
ब्वाय हैं, ओला-उबर की टैक्सियाँ चलाते हैं, कंस्ट्रक्शन मजदूर हैं, दिल्ली-मुंबई
और दूसरे महानगरों में बड़े घर, अपार्टमेंट और स्कूल-अस्पताल बनाते हैं, उनकी
छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में काम करते हैं.
ये बड़े महानगर उनके श्रम से ही चलते हैं
लेकिन इस संकट में वे अकेले हैं, उनका कोई नहीं है. वे अब मजबूर हैं, उन्हें पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया गया है. लेकिन ये पलायन गांव से शहर का नहीं है या नौकरी-पेशे की तलाश के लिए भी नहीं है. ये पलायन अपने गाँव के “घर” में सुकून तलाशने के लिए है, संकट के बीच अपनो के बीच पहुंचने के लिए है. इसे ‘रिवर्स माइग्रेशन’ भी कह सकते हैं.
ये लोग अब दिल्ली, बंबई, बैंगलुरू, कोलकाता जैसे महानगरों से अपने-अपने गांव के लिए निकल पड़े हैं. ये केवल 100-200 या 300 किलोमीटर नहीं बल्कि 700-800 किलोमीटर का सफर तय करने को मजबूर हैं. इस सफर के बीच पुलिस के दो चहरे इनके सामने आ रहे हैं, एक वो जिसमें पुलिस इन पर लाठी बरसा रही है और दूसरा वो जो कई जगहों पर पुलिस इनकी मदद भी कर रही है.
क्या यह लॉकडाउन
सुनियोजित तरीके से नहीं किया सकता था? क्या इन मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित कर इन्हें घरों तक नहीं पहुंचाया जा सकता था? हालाँकि सरकार ने 1.7 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है, पर इनमें से कईयों का कहना है कि वे कहीं पंजीकृत नहीं हैं तो कुछ का कहना है हमारे पास राशन कार्ड भी नहीं है. उन्हें लगता है कि उन्हें कुछ मिलनेवाला नहीं. अगर मिलेगा भी तो गाँव पर,
अपने घर पहुंचकर ही मिलेगा.
द वायर न्यूज़ वेबसाइट में छपी रिपोर्ट में ऐसे ही
एक प्रवासी मजदूर अनिल को उद्धृत किया गया है. वे बताते हैं कि “हम पिछले 3 दिन से यहां फंसे हुए हैं, काम बंद हो गया है, जो पैसे हमारे पास थे, वो अब खत्म हो गए है, ना कुछ खाने को है, ना कुछ पीने को है, बस सोच कर निकले हैं, कुछ भी हो जाए, चाहे कितना भी पैदल चलना पड़े, कानपुर पहुंच कर रहेंगे.” अनिल दिल्ली में कपड़े की फैक्ट्री में दिहाड़ी पर काम करते हैं. वो कहते हैं, “ हमारे बॉस ने हमको बोल दिया है कि घर चले जाओ. अब पता नहीं, ये फैक्ट्री कब खुलेगी? घर पर कम से कम पानी तो पीने को मिलेगा”.
अनिल की फैक्ट्री के
मैनेजर और मालिक की बात संविधान में कही बातों पर पानी फेर देती है. वो ऐसे कि संविधान का अनुच्छेद 21 जीने का अधिकार देता है लेकिन जब किसी के भूख से मरने की नौबत आ जाती है तब इस अधिकार का क्या मतलब रह जाता है? इसमें गरिमा से जीने के अधिकार की भी बात की गई है लेकिन यहां परिस्थिति इतनी मुश्किल है कि दो वक्त की रोटी मिलनी भी मुहाल है. वहीं संविधान का अनुच्छेद 39 कहता है कि राज्य लोगों को पर्याप्त आजीविका के साधन देगा और अनुच्छेद 47 कहता है कि राज्य का कर्तव्य है कि वह लोगों के पोषाहार के स्तर को ऊंचा करे. लेकिन यहां जो लॉकडाउन में विकल्प के तौर पर दिया जा रहा पैकेज इन पलायन करने वालों के हित में नज़र नहीं आता.
अमीर और मध्यवर्ग के लोगों के घर समस्या ये है कि नेटफ्लिक्स पर वो क्या देखें? या उनके बच्चों के लिए वो ऐसा क्या करें जिससे उनका मन बहले. वहीं इन मज़दूरों की आजीविका खतरे में पड़ गई है. वो बेबस हैं. बेघर हैं. अब सरकार आगे क्या करेगी, मालूम नहीं है. लेकिन इन्हें अपनो के पास जाना है, ये इन्होंने ठान लिया है.
इस बीच, उत्तर प्रदेश सरकार ने परिवहन की व्यवस्था की है ताकि ये लोग अपने घर पहुंच सकें. लेकिन फैलते वायरस के खतरे से ये लोग कैसे बच पाएंगे? क्या बस में चढ़ने से पहले और उतरने के बाद इनकी जांच होगी? ये भी कुछ सवाल हैं. फिलहाल,
इस महामारी से भी बड़ी इनकी ज़िद है जो इन्हें इनके घर पहुंचा देगी क्योंकि इनके लिए भूख पहले है और ये महामारी बाद में.
वो इसलिए क्योंकि शमा हो जाएगी जल-जल कर धुंआ आज की रात, आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे.
(इस रिपोर्ट में इस्तेमाल तस्वीरें विभिन्न समाचार वेबसाइटों से साभार ली गईं हैं.)
बहोत सही।
ReplyDeleteखुप छान
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