Tuesday 21 April 2020

हमें एक दिन के पर्यावरण दिवस और एक दिन के पृथ्वी दिवस मनाने के रोमांटिसिज्म से बाहर आ जाना चाहिए

विश्व पृथ्वी दिवस की 50वीं वर्षगांठ पर विशेष 

क्या हम चाहते हैं कि आनेवाली पीढ़ियां हमें नाकारा, गैर-जिम्मेदार और मूर्ख कहें?

  • शिवम भारद्वाज 

आज पूरी दुनिया विश्व पृथ्वी दिवस की 50वीं सालगिरह मना रही है। इस बार विश्व पृथ्वी दिवस की थीम है-
"क्लाइमेट एक्शन"! वैसे हर वर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाया जाता है लेकिन इसकी शुरुआत हुई थी 1970 में जब पहली बार पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल 1970 को मनाया गया था। पृथ्वी दिवस को आधुनिक पर्यावरण आंदोलन के उद्भव की वर्षगांठ के प्रतीक के तौर पर मनाया जाता है। 

क्यों और कैसे शुरू हुआ पृथ्वी दिवस?

1960 के दशक में अमेरिका में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा इनके मानव के स्वास्थ्य से सम्बन्ध और दुष्प्रभावों बारे में चिंतन और चर्चाएँ शुरू हो चुकी थीं। यह लोगों के बीच पर्यावरणीय चेतना के प्रसार की शुरुआत थी। 1969 में कैलिफोर्निया के सांता बारबरा में कच्चे तेल के लीक की बहुत बढ़ी घटना हुई जिसका यूनिवर्सिटी ऑफ़ साउथर्न कैलिफ़ोर्निया के छात्रों ने विश्लेषण किया और समुद्री जीवन को हुए भारी नुकसान का अध्ययन किया।  इस तेल लीक और उसके पर्यावरण पर बुरे प्रभाव के विरोध में एक छात्र-आन्दोलन की शुरुआत हुई, इसके अलावा उस समय विश्वविद्यालय परिसरों में युद्ध विरोधी आंदोलन भी चल रहे थे जिसमें रासायनिक हथियारों के प्रयोग और उनसे होने वाली पर्यावरणीय क्षति और मानवीय स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभावों को लेकर छात्र आंदोलनरत थे। 

उस समय अमेरिका के एक सीनेटर और पृथ्वी दिवस के संस्थापक गेलार्ड नेल्सन को विचार सूझा कि वायु और जल प्रदूषण को लेकर पैदा हुई नई चेतना को इन आंदोलनों के साथ संयुक्त कर एक उभरती हुई पर्यावरणीय चेतना को व्यापक आकार देते हुए पर्यावरण और उसके संरक्षण को राष्ट्रीय राजनैतिक एजेंडे में लाया जा सकता है। पर्यावरण पर राष्ट्रीय शिक्षा और इसे राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का विचार गेलार्ड नेल्सन का था। 22 अप्रैल 1970 को 2 करोड़ अमेरिकी (कुल अमेरिकी आबादी का 10%) सड़कों पर, पार्कों में, सभागृहों में, सार्वजनिक स्थानों पर एकत्रित हुए और एक स्वस्थ सतत पर्यावरण की मांग की। हजारों स्कूलों और विश्वविद्यालयों ने इस पूरे आंदोलन को संगठित किया। सभी पर्यावरणीय हितों के लिए काम करने वाले संगठन संगठित हुए। 

उस समय से ही हर वर्ष 22 अप्रैल को पर्यावरणीय शिक्षा, चेतना और आधुनिक पर्यावरणीय आंदोलन की वर्षगांठ के रूप में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस विश्वव्यापी प्रदर्शन का प्रभाव यह हुआ कि 1970 के अंत तक अमेरिका को पर्यावरण संरक्षण एजेंसी का गठन कर स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी और लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण सम्बन्धी कानून बनाना पड़ा।

1990 आते-आते पृथ्वी दिवस वैश्विक हो गया। इस बार यह 141 देशों में मनाया गया जिसमें विश्व भर में 20 करोड़ लोग एकत्रित हुए। इसमें पर्यावरणीय मुद्दों और चिंताओं को वैश्विक स्तर पर उठाया गया जिसके परिणाम स्वरूप 1992 में संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में हुआ। शुरू से लेकर अब तक के पर्यावरणीय आंदोलनों में छात्रों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है।

इस बार की थीम है- क्लाइमेट एक्शन 

इस बार के पृथ्वी दिवस की थीम है "क्लाइमेट एक्शन"। जलवायु परिवर्तन मानव जाति के लिए भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती है। इस बार पृथ्वी दिवस पर पर्यावरणीय कार्यकर्ताओ की सबसे जरूर माँग हैं- मानवीय व्यवहार में बदलाव और जारी नीतियों में परिवर्तन करने की त्वरित कार्यवाही वैश्विक स्तर पर होनी चाहिए। पेरिस समझौते
को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए जरूरी कार्यवाही और पर्याप्त जरूरी लक्ष्यों का निर्धारण, अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय अकर्मण्यता खत्म होनी चाहिये, धरती के संरक्षण के लिए अब तक की सबसे बड़ी कार्यवाही होनी चाहिए।

प्लांट बेस्ड फूड (शाकाहार) की तरफ क्यों अधिक फोकस कर रहे हैं पर्यावरणविद?

"पशु-कृषि" विश्व भर में मानव जनित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 15% का योगदान देता है। यह जीवाश्म ईंधन के बाद मानव जनित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का सर्वाधिक बड़ा कारक है। यह निर्वनीकरण और जैव-विविधता के ह्रास लिए भी जिम्मेदार है। इसी पर्यावरणीय चेतना और जलवायु परिवर्तन के प्रति हमारी जिम्मेदारी के मद्देनजर पर्यावरणविद और पर्यावरणीय कार्यकर्ता वनस्पति आधारित भोजन का अधिकतम प्रयोग करने की सलाह दे रहे हैं। 

अगर हमें जलवायु-परिवर्तन से लड़ना है तो हमें अपने आहार सम्बन्धी आदतों को भी बदलना होगा। मांस और डेयरी उत्पादों का इस्तेमाल कम करना होगा और शाकाहार की ओर ज्यादा ध्यान देना होगा। हाल ही में "क्लाइमेट चेंज एंड अमेरिकन डाइट" रिपोर्ट आई है जिसको अर्थ डे नेटवर्क और येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज ने सर्वे करके तैयार किया है। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि अधिकतम अमेरिकी उपभोक्ता जलवायु फ्रेंडली शाकाहार भोजन चाहते हैं। कोई 51% अमेरिकियों ने यह बात स्वीकारी है कि अगर उनके खाद्य चुनावों का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में उन्हें अधिकतम जानकारी मिले तो वे शाकाहार के अधिकतम प्रयोग की ओर अग्रसर होंगे। 

रिपोर्ट में एक और तथ्य सामने आया है कि इस बारे में लोगों में जागरूकता का अभाव था। आधे से अधिक लोगों ने कभी इस बारे में मीडिया के माध्यम से नहीं सुना। कोई 94% लोग पहले के मुकाबले और अधिक फल और सब्जियां खाने को तैयार हैं। लगभग 55% लोग मांस के वैकल्पिक भोजन को अपनाने के लिए तैयार हैं। यही नहीं, 44% लोग डेयरी प्रोडक्ट के विकल्प अपनाने के लिए तैयार हैं। एक और तथ्य यह है कि खाद्य श्रृंखला जितनी छोटी होती है, सूर्य से प्राप्त ऊर्जा स्थानांतरण और रूपांतरण के दौरान ऊर्जा-हानि उतनी ही कम होती है।

पॉलिनेटर गार्डन क्यों है जरूरी?

अर्थ डे पर पर्यावरणविद पॉलिनेटर गार्डन लगाने की सलाह दे रहे हैं। पॉलिनेटर (परागणकारी) वे जीव हैं जो परागण की क्रिया करते हैं। परागण की क्रिया हमारी खाद्य-श्रृंखला के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पॉलिनेटर्स की संख्या दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। अगर हम पॉलिनेटर्स को खो देंगे तो सम्पूर्ण खाद्य श्रृंखला के लिए ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। पिछले 30 वर्षों में इन पॉलिनेटर्स की संख्या में विश्व भर में भारी कमी आई है। 

उदाहरण के लिए, मधुमक्खी एक बहुत महत्वपूर्ण पॉलिनेटर है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इसकी संख्या में भारी कमी हो रही है। 2018 की सर्दियों के दौरान अमेरिका में 40% तक मधुमक्खियों की कालोनियां समाप्त हो
गई। परागण की क्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने और परागणकर्ताओं की संख्या में कमी आने से संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र ही खाद्य संकट से ग्रस्त हो जाएगा। इसलिए पॉलिनेटर्स का संरक्षण और उनको आश्रय प्रदान करना बहुत जरूरी है। हमें अपने घरेलू परिवेश और घरों में पॉलिनेटर गार्डन लगाना जरूरी है। इसके लिए हमें पहले अपने क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का विश्लेषण कर पता लगाना होता है कि किस तरह के पॉलिनेटर हमारे आसपास रहते हैं जैसे- मधुमक्खियाँ, तितलियाँ, चिड़िया या फिर अन्य जीव। 

उसके बाद हमें यह जानना जरूरी है कि उपस्थित पॉलिनेटर किस तरह के पौधों पर ज्यादा आते हैं। इस तरह उपलब्ध मूल देसी पौधों का चुनाव करके हम एक छोटा गार्डन बना सकते हैं। यह बगीचा हमारे पॉलिनेटर्स को संरक्षण देकर उनकी संख्या को बढ़ाने में मददगार होगा. साथ ही अन्य पक्षियों जैसे चिड़िया, तोते और कई सारे स्तनधारियों को आवास व भोजन प्रदान करेगा। इस तरह हमारे द्वारा लगाया गया एक पॉलिनेटर बगीचा एक स्वस्थ, जैव-विविधतापूर्ण पारितंत्र का निर्माण करता है।

बड़ी चुनौती है जलवायु परिवर्तन

मौजूदा दौर में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटना आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत बन गई है। आँकड़े दिखाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट (अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस) बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में लगातार वृद्धि, मौसमीय दशाओं में अप्रत्याशित बदलाव, समुद्र जल-स्तर में भारी वृद्धि, बाढ़ और सूखा की अधिकतम पुनरावृत्ति, बहुत से जीवों और प्रजातियों के अस्तित्व पर विलुप्त होने का संकट, रोगों का प्रसार, जंगलों में लगने वाली आग की घटनाओं में वृद्धि, खाद्य सुरक्षा संकट और अर्थव्यवस्था पर संकट जैसी बड़ी चुनौतियां हमारे सामने बढ़ती जा रही हैं। यह आखिरकार पूरी मानवता और उसके वजूद के लिए खतरा है.   

क्लाइमेट स्ट्राइक 2019 ने दिखाया है आगे का रास्ता 

वर्ष 2019 में तीन बार क्लाइमेट स्ट्राइक का आयोजन हुआ। इसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन और जलवायु आंदोलन विश्व भर में हुए। तीसरी क्लाइमेट स्ट्राइक सितंबर माह में हुई थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और विभिन्न देशों के स्तर पर जलवायु परिवर्तन पर तुरन्त एक प्रभावकारी कार्यवाही और उसे तुरंत अमल में लाने की मुख्य माँग के साथ। यह विश्वव्यापी आंदोलन 150 देशों के अंदर 4500 स्थानों पर हुआ। इसकी शुरुआत स्वीडिश पर्यावरणीय कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के स्कूल स्ट्राइक फ़ॉर क्लाइमेट मूवमेंट से हुई। इस वैश्विक प्रदर्शन में 60 से 70 लाख लोगों ने भाग लिया और क्लाइमेट चेंज पर तुरंत एक्शन लिए जाने की मांग को वैश्विक स्तर पर सफलतापूर्वक उठाया। छात्रों ने इन प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

यू एन क्लाइमेट समिट 2019 

तीसरी क्लाइमेट स्ट्राइक के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने यूएन क्लाइमेट एक्शन समिट बुलाया जिसका मुख्य उद्देश्य जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते को लागू करना और उससे संबंधित कार्यों में तेजी लाना था। इस सम्मेलन में वैश्विक ताप वृद्धि, आर्कटिक समुद्र जल-स्तर में वृद्धि, वायु प्रदूषण, हीटवेव और खाद्य सुरक्षा संकट जैसी गंभीर समस्याओं पर बात हुई। पर्यावरणीय कार्यकर्ता ग्रेटा ने जर्मनी, फ्रांस, ब्राजील, अर्जेंटीना और तुर्की जैसे जलवायु परिवर्तन पर पर्याप्त कार्यवाही ना करने वाले देशों की यूएन में शिकायत की। इस समिट में कार्बन न्यूट्रल वर्ल्ड के लिए 66 देशों ने 2050 तक 0 कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य का रखा।

असफल रहा COP-25

दिसंबर 2019 में COP-25 (कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज) स्पेन के मेड्रिड शहर में हुआ। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचे यानी यूएनएफसीसीसी में शामिल सदस्यों का सम्मेलन कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज (सीओपी) कहलाता है। यह पेरिस समझौते की दूसरी पार्टी मीटिंग भी थी। इस कांफ्रेंस में पेरिस समझौते को लागू करने सम्बन्धी जरूरी कार्यवाही, नियमों, विनियमन पर बात होनी थी और समझौते को लागू करने सम्बन्धी अंतिम रूप रेखा तैयार होनी थी। 

लेकिन यह कॉन्फ्रेंस विकसित-विकासशील देशों के बीच पारस्परिक समन्वय बनाने में नाकाम रही। कुछ देशों
का अड़ियल रवैया इसकी नाकामी का असली कारण बना। कार्बन मार्केट को किस तरह अंतिम रूप दिया जाए यह इस कॉन्फ्रेंस का एक जरुरी मुद्दा था लेकिन इस पर भी कोई प्रगतिशील, सकारात्मक कार्यवाही नहीं हो पाई। कुल मिलाकर, इस कॉन्फ्रेंस में देशों के राजनीतिक नेतृत्व की पर्यावरणीय अकर्मण्यता साफ तौर पर जाहिर हुई। अब पेरिस समझौते का अंतिम फ्रेमवर्क 26 वें COP सम्मेलन में तय किया जाना है। 2020 में क्योटो प्रोटोकोल की अवधि समाप्त हो रही है और इसकी समाप्ति से ही 2020 के अंत तक पेरिस समझौता मजबूती के साथ हर हालत में लागू हो जाना चाहिए। अपने जन-प्रतिनिधियों, राजनीतिक नेतृत्व और नीति-निर्माताओं के ऊपर इसके लिए दवाब बनाना और उनकी नीतियों व कार्यवाही को लेकर सवाल करना हमारी जिम्मेदारी है।

क्या है पेरिस समझौता और क्या हैं इसकी सीमाएं?

दिसंबर 2015 में पेरिस में हुई सीओपी की 21वीं बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आदर्श लक्ष्य को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी। इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को COP21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है। पेरिस समझौते के लागू होने के लिए 2020 को आधार वर्ष माना गया है। यूरोपीय संघ ने 5 अक्टूबर 2016 को पेरिस समझौते को मंजूरी दी। यह समझौता नवंबर, 2016 को औपचारिक रूप से अस्तित्व में आ गया। अक्तूबर, 2016 तक 191 सदस्य देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। 

वर्तमान में 197 देश पेरिस समझौते पर दस्तख़त कर चुके हैं। 13 देशों ने अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है जिनमें चार बड़े कार्बन उत्सर्जक रूस, तुर्की, ईरान, ईराक़ शामिल हैं. अधिकांश देश ग्लोबल वार्मिंग पर काबू पाने के लिए जरूरी तौर-तरीके अपनाने पर राजी हो गए हैं। यह समझौता एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा था। 

लेकिन इस बीच, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस समझौते से बाहर आने का फ़ैसला किया है जो निश्चय ही, पर्यावरण को बेहतर बनाने की दिशा में बनी कुछ सकारात्मक उम्मीदों को तोड़नेवाला है। ट्रम्प के इस फैसले की वैश्विक स्तर पर आलोचनाएं हुईं हैं। विभिन्न देशों के राजनीतिक नेतृत्व ने पर्यावरणीय संरक्षण की दिशा में सहयोगात्मक, सकारात्मक पहल की जगह नकारात्मक भूमिका निभाई है- चाहे वह अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हो, ब्राजील के राष्ट्रपति जेयर बोलसोनारो हों, ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन हो या रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन हों। अमेजन के वर्षा वनों, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भयंकर आग से हुई पर्यावरणीय क्षति और विनाश को हमने अपनी आंखों से देखा है।

क्या जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में पेरिस समझौता ही पर्याप्त प्रयास है?

कहने की जरूरत नहीं है कि पेरिस समझौते की अपनी सीमाएं हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि पेरिस समझौते के तहत सभी देश कार्बन कटौती संबंधी प्रतिबद्धताओं का पालन करें तो भी सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार सिर्फ 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि भी दुनिया में तबाही मचा सकती है। 

इसके अलावा पेरिस समझौते में उन देशों के विरुद्ध कार्यवाही का कोई प्रावधान नहीं है, जो इसकी प्रतिबद्धताओं का सम्मान नहीं करते हैं। यहाँ तक कि पेरिस समझौते में जवाबदेही तय करने और जाँच करने के लिये भी कोई नियामक संस्था नहीं है।

आश्चर्य नहीं कि 2016 से पेरिस समझौता औपचारिक रूप से अस्तित्व में आया है लेकिन ग्लोबल कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है. पिछले 4 साल ज्ञात इतिहास के सबसे गर्म 4 साल रहे हैं। नवंबर 2019 में यूनिवर्सल इकोलॉजिकल फंड द्वारा पेश नई रिपोर्ट The Truth Behind the Climate Pledges के अनुसार जलवायु
परिवर्तन को धीमा करने के लिए पेरिस समझौते में अब तक किये गए 184 वायदों में से 75% वायदे (कॉर्बन, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने के लिए तय किये गए लक्ष्य) अपर्याप्त हैं। 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ये वायदे और प्रयास बहुत ही देर से लिये गए और नाकाफी हैं। 

यूरोपियन यूनियन (28 देश) और 7 अन्य देश ही 2030 तक कॉर्बन उत्सर्जन में 40% की कमी ला पाएँगे। इसके अलावा 4 बड़े कार्बन उत्सर्जकों (अमेरिका, चीन, भारत, रूस) को लेकर भी चिंता जाहिर की गई है। अमेरिका विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है जिसने पूरी पर्यावरणीय नीति को ही बदल दिया है. इसके अलावा भारत और चीन ने उत्सर्जन को कम करने के प्रति प्रतिबद्धता तो दिखाई है और भारत में अच्छे प्रयास भी किए गए हैं लेकिन यह प्रयास भी लक्ष्य से काफी पीछे हैं। वहीं रूस जो पांचवां सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है, ने अब तक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए कोई प्रतिबद्धता ही नहीं दिखाई है, कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया है।

असल में, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने सम्बन्धी लगभग 70% वायदे और लक्ष्य विकसित देशों से मिलने वाली आर्थिक सहायता पर निर्भर करते हैं। विकसित देशों की गंभीरता के खोखलेपन का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल सम्बन्धी आर्थिक सहायता के लक्ष्यों को भी अभी तक पूरा नहीं किया है। पेरिस समझौते सम्बन्धी आर्थिक सहायता के लिए प्रस्तावित फ़ंड और उसके प्रबन्ध पर भी सहमति नहीं बन सकी है।

क्या हम चाहते हैं कि आनेवाली पीढ़ियां हमें नाकारा, गैर-जिम्मेदार और मूर्ख कहें?

इसमें कोई शक नहीं है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण को लेकर अभी तक किये गये प्रयास नाकाफी हैं। इस तरह हम जलवायु परिवर्तन की बड़ी समस्या का सामना नहीं कर सकते हैं। हमें एक नागरिक के तौर पर अपनी भूमिका को भी समझना होगा। साल में सिर्फ एक दिन पर्यावरण दिवस और एक दिन पृथ्वी दिवस मनाने के रोमांटिसिज्म से बाहर आना होगा। सिर्फ सोशल मीडिया पर पेड़ या पृथ्वी का फ़ोटो लगाने से भी कुछ सकारात्मक परिणाम हासिल नहीं होगा। 

हमें अपने जन-प्रतिनिधियों, राजनीतिक नेतृत्व और नीति-निर्माताओं के ऊपर जलवायु परिवर्तन पर आवश्यक कार्यवाही और उसके कार्यान्वयन के लिए दवाब बनाना और आर्थिक, औद्योगिक, पर्यावरणीय नीतियों पर सवाल उठाना होगा। प्राकतिक संसाधनों के महत्व और चंद रुपयों के मुनाफ़े में भेद न करने वाली औद्योगिक, बाज़ारवादी नीतियों पर सवाल करना सबसे जरूरी है। हमारा पर्यावरणीय आंदोलनों का इतिहास चिपको आंदोलन और गौरा देवी जैसे वन-प्रेमियों से सम्पन्न रहा है, मेधा पाटकर जैसे संघर्षशील पर्यावरणीय कार्यकर्ता नदियों को बचाने के लिए आज भी सँघर्षरत हैं। देश भर में ऐसे छोटे-छोटे सैकड़ों आन्दोलन है जिनमें आदिवासी, गरीब, मछुआरे, किसान, बुनकर और महिलायें जल-जंगल-जमीन-नदियों-पहाड़ों को बचाने के लिए लड़ रहे हैं.  

हमें जरूरत है पर्यावरणीय शिक्षा, जागरूकता के माध्यम से एक प्रभावी विमर्श को तैयार करने और उसका जन-जन तक उसका प्रसार करने की। चुनावों के समय राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में उनकी पर्यावरणीय नीतियों और योजनाओं के कॉलम को चेक करने की। अधिकतर राजनीतिक दल अभी तक पर्यावरणीय चिंताओं और मुद्दों को अपने घोषणपत्र में जगह ही नहीं देते। 


क्या आप अच्छा स्वास्थ्य चाहते हैं? क्या आप पीने के लिए स्वच्छ जल चाहते हैं? क्या आप शुद्ध खाद्य-पदार्थों की अनवरत आपूर्ति चाहते हैं? ओह, माफ कीजिये! आप स्वस्थ, स्वच्छ पर्यावरण के अभाव में कुछ भी नहीं पा सकते, स्वच्छ साँस तक नहीं! हमें जरूरत है पर्यावरण और प्रकृति के साथ मित्रवत सहजीविता का संबंध स्थापित करने की और जिम्मेदारों पर लगातार दबाव बनाने की। 

क्या हम आनेवाली पीढ़ियों के द्वारा खुद को नकारा, गैर-जिम्मेदार, मूर्ख कहलवाना पसन्द करेंगें? कोरोना महामारी की आपदा के गुजर जाने के बाद हमारी एक जरूरी माँग क्या होगी? एक पर्यावरण अनुकूल और सतत विकास की ओर अग्रसर दुनिया बनाना जिसमें साफ़-सुथरी हवा, पानी, आसमान, नदियाँ और हरे-भरे जंगल अनिवार्य हों. 

अब हमारे पास बहुत समय नहीं बचा है. खतरे की घड़ी लगातार टिक-टिक कर रही है.   

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