Tuesday 14 April 2020

बाबा साहेब ने आज से 70 साल पहले संविधान को लागू करने को लेकर क्या चेतावनी दी थी?

डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का संविधान सभा में आख़िरी भाषण

  • रितिक कुमार

डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ज से 70 साल पहले ही यह देख पा रहे थे कि आज़ाद भारत कैसा होगा? वो उन चुनौतियों और परेशानियों से भली-भांति परिचित थे जिनका यह देश सामना करने
वाला था। संविधान निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ ही देश की परिस्थिति को जानते-समझते हुए डा. आंबेडकर संविधान के क्रियान्वयन के हर अच्छे-बुरे पहलू से अच्छे से वाक़िफ थे। 

आश्चर्य नहीं कि संविधान सभा के आख़िरी भाषण में उन्होंने हर उस बात को रखा जो भारत के लिए ज भी प्रासंगिक है। इस ऐतिहासिक भाषण संविधान की सफलता-विफलता, उसके सदुपयोग, दुरुपयोग, लोगों के कर्तव्य सब पर उन्होंने बात की। 

हालाँकि संविधान निर्माण में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की कितनी बड़ी भूमिका थी, इसपर कई बार सवाल उठाये जाते हैं लेकिन क्रिस्तोफ जाफ्रलो की लिखी किताब के आधार पर इस पहलू पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश करते हैं। उसके बाद डा. आंबेडकर के भाषण के कुछ महत्वपूर्ण अंगों पर गौर करेंगे।

"आंबेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे, जिसकी जिम्मेदारी संविधान का लिखित प्रारूप प्रस्तुत करना था। इस कमेटी में कुल 7 सदस्य थे। संविधान को अंतिम रूप देने में डॉ. आंबेडकर की भूमिका को रेखांकित करते हुए भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के एक सदस्य टी. टी. कृष्णमाचारी ने नवम्बर 1948 में संविधान सभा के सामने कहा था: ‘सम्भवत: सदन इस बात से अवगत है कि आपने ( ड्राफ्टिंग कमेटी में) में जिन सात सदस्यों को नामांकित किया है, उनमें एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया है और उनकी जगह अन्य सदस्य आ चुके हैं। एक सदस्य की इसी बीच मृत्यु हो चुकी है और उनकी जगह कोई नए सदस्य नहीं आए हैं। एक सदस्य अमेरिका में थे और उनका स्थान भरा नहीं गया। एक अन्य व्यक्ति सरकारी मामलों में उलझे हुए थे और वह अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे। एक-दो व्यक्ति दिल्ली से बहुत दूर थे और सम्भवत: स्वास्थ्य की वजहों से कमेटी की कार्यवाहियों में हिस्सा नहीं ले पाए। सो कुल मिलाकर यही हुआ है कि इस संविधान को लिखने का भार डॉ. आंबेडकर के ऊपर ही आ पड़ा है। मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि हम सब को उनका आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस जिम्मेदारी को इतने सराहनीय ढंग से अंजाम दिया है।"

नवंबर 1949 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का वह भाषण, जो हर भारतीय को पढ़ना चाहिए 

डा. आंबेडकर इस भाषण में कहते हैं:

"26 जनवरी 1950 के बाद, भारत एक आज़ाद देश होगा। लेकिन उसकी आज़ादी का क्या होगा? क्या वह अपनी आज़ादी बचाए रख पाएगा या इसे फिर से खो देगा। यह पहला विचार है, जो मेरे दिमाग़ में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी आज़ाद देश नहीं रहा है, लेकिन जो आज़ादी उसे थी, वह पहले भी खो चुका है। यह बात भी नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं, वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। 

यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदें- क्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित है।

सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा।

क्या इतिहास खुद को दुहरायेगा? मेरे मन में यह व्याकुलता और भी गहरा होता जा रहा है जब यह महसूस हो रहा है कि जाति और संप्रदाय जैसे पुराने शत्रु के अलावे हमारे पास विविध और विरोधी राजनीतिक पंथ के साथ कई राजनीतिक दल हैं। भारतीय अपने देश को संप्रदाय से ऊपर रखेंगे या अपने देश से संप्रदाय को ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन यह निश्चित है, यदि पार्टियां संप्रदाय को देश से ऊपर रखेगी। तब हमारी आज़ादी ख़तरे में आ जाएगी। सम्भवतः यह हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। हमें अपनी आज़ादी को बचाने के लिए खून के आख़िरी बून्द तक तत्पर रहना होगा।"

अंतर्विरोध का भारत 

डा. आंबेडकर उस भाषण में आगे कहते हैं:

" 26 जनवरी 1950 को, हम लोग एक अंतर्विरोधों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमें समानता होगी जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति का एक वोट और एक वोट का एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगेंजबकि हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपने सामाजिक आर्थिक ढांचे के कारण एक व्यकि एक मूल्य के सिद्धान्त को लगातार अस्वीकार करते रहेंगें। आख़िर कब तक हम अंतर्विरोधों का जीवन जियेंगे?
हम लंबे समय तक इसे अस्वीकार इसी शर्त पर करेंगे कि हम अपनी राजनीतिक लोकतंत्र को जोख़िम में डालेंगे। हमें इस अंतर्विरोधों को जितनी जल्दी हो सके ख़त्म करना चाहिए, नहीं तो जो लोग असमानत से पीड़ित हैं, वो इस राजनीतिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर देंगे, जो इस सभा को श्रमपूर्वक निर्मित करना है।"

अपने भाषण में अंबेडकर ने ने इस बात के लिए आगाह किया था कि संविधान बस बना देने भर से नहीं चलता है बल्कि इसका प्रभाव इसके क्रियान्वन पर निर्भर करता है। वो कहते हैं:

"एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों - जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।

यह कौन कह सकता है कि भारत की जनता और उनके दल किस तरह का आचरण करेंगे? अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या वे संवैधानिक तरीके इस्तेमाल करेंगे या उनके लिए क्रांतिकारी तरीके अपनाएंगे? यदि वे क्रांतिकारी तरीके अपनाते हैं तो संविधान चाहे जितना अच्छा हो, यह बात कहने के लिए किसी ज्योतिषी की आवश्यकता नहीं कि वह असफल रहेगा। इसलिए जनता और उनके राजनीतिक दलों की संभावित भूमिका को ध्यान में रखे बिना संविधान पर कोई राय व्यक्त करना उपयोगी नहीं है।

यदि हम लोकतंत्र को ना सिर्फ एक रूप में बल्कि वास्तविकता में बनाये रखना चाहते है, तब हमें क्या करना चाहिए? मेरे अनुसार सबसे पहला चीज़ यह है कि हम अपनी सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जल्द से जल्द संवैधानिक तरीक़ों को अपना लें। यानी कि हमें खूनी क्रांति छोड़ देनी चहिए। इसका मतलब यह भी है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह जैसे तरीक़ों का परित्याग कर देना चाहिए। जब हमारे पास आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कोई संवैधानिक तरीका नहीं था, तब असंवैधानिक तौर-तरीकों को सही ठहरा रहे थे। लेकिन आज जब संवैधानिक तरीके मौजूद हैं, तब ऐसे असंवैधानिक तरीक़ों का कोई औचित्य नहीं है। यह तरीका 'अराजकता के व्याकरण' के अलावा और कुछ नहीं है। जितनी जल्दी हम इसका परित्याग कर देंगे, हमारे लिए बेहतर होगा।" 

कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों पर प्रहार करते हुए डा. आंबेडकर अपने भाषण में आगे कहते हैं: 

"संविधान की निंदा मुख्य रूप से दो दलों द्वारा की जा रही है- कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी। वे संविधान की निंदा क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वह वास्तव में एक बुरा संविधान है? मैं कहूंगा, नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है। सोशलिस्ट दो बातें चाहते हैं। पहली तो वे चाहते हैं कि संविधान यह व्यवस्था करे कि जब वे सत्ता में आएं तो उन्हें इस बात की आज़ादी हो कि वे मुआवजे का भुगतान किए बिना समस्त निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण कर सकें। सोशलिस्ट जो दूसरी चीज चाहते हैं, वह यह है कि संविधान में दिए गए मूलभत अधिकार असीमित होने चाहिए, ताकि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आने में असफल रहती है, तो उन्हें इस बात की आजादी हो कि वे न केवल राज्य की निंदा कर सकें, बल्कि उसे उखाड़ फेंकें।" 

डा. आंबेडकर भारत में नेताओं को देवताओं की तरह पूजने पर भी चेतावनी देते हैं और कहते हैं:

"किसी के लिए कृतज्ञता प्रकट करना ग़लत बात नहीं है, जिसने पूरी ज़िंदगी देश को समर्पित कर दी। लेकिन इस कृतज्ञता की एक सीमा होनी चाहिए, डेनियल ओ' कनेल ने बहुत बढ़िया कहा है, अपनी प्रतिष्ठा की क़ीमत पर कोई भी व्यक्ति कृतज्ञ नहीं हो सकता है, रहम(खैरात) के क़ीमत पर कोई भी औरत कृतज्ञ नहीं हो सकती है और अपनी स्वतंत्रता की क़ीमत पर कोई भी देश कृतज्ञ नहीं हो सकता है।
यह सतर्कता तो भारत के संबंध में अनिवार्य है। भारत में, भक्ति या फिर जिसे हम मोक्ष का मार्ग कहते हैं या नायक की पूजा राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाती है जो कि दुनिया की अन्य देशों की राजनीति से अलग है। धर्म में भक्ति आत्मा को मुक्ति के तरफ़ ले जाती है। लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा निश्चित ही अवनति और आख़िरकार तानाशाही की तरफ़ ले जाती है।"

डा. आंबेडकर यहीं नहीं रुकते हैं. वे सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ भी स्पष्ट करते हैं: 

"सामाजिक लोकतंत्र का क्या मतलब है? इसका मतलब एक ऐसी ज़िन्दगी से है जहाँ स्वतंत्रता,
समानता और भाईचारा जीवन का सिद्धांत हो..समानता के बिना स्वतंत्रता एक ऐसी व्यवस्था बनाएगी, जहां बहुतों पर कुछ लोगों का वर्चस्व होगा। बिना भाईचारे के स्वतंत्रता कुछ लोगों का ही वर्चस्व बनाता है। बिना भाईचारा, स्वतंत्रता और समानता के एक प्राकृतिक रिश्ता नहीं बनेगा।"

राष्ट्र के मुद्दे पर भी बाबा साहेब आंबेडकर ने विचार प्रकारते हुए कहा कि 

"यदि संयुक्त राष्ट्र के लोग यह महसूस कर रहे थे कि वो एक देश थे, तो यह भारत के लिए सोच पाना कितना कठिन है कि वे एक राष्ट्र हैं। मैं वो दिन याद करता हूँ, जब 'राजनीतिक दिमाग' के भारतीय ने 'भारत के लोग' उक्ति का विरोध किया था। उन्होंने 'भारत राष्ट्र' उक्ति को पसंद किया था। मैं उस विचार का हूँ, जो इसमें विश्वास करता है कि हम एक राष्ट्र हैं की बात एक बड़े भ्रम का पोषण कर हा है। हज़ारों जातियों में बंटे लोग एक देश कैसे हो सकते हैं?

जितनी जल्दी हम समझ जाएं कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दुनिया की समझ से हम राष्ट्र नहीं है। तभी जाकर हम राष्ट्र बनने की आवश्यकता को समझेंगे और बहुत गंभीरता से अपने उद्देश्यों की तरफ बढ़ने के लिए विचार करेंगें। अपने लक्ष्यों का यह सास बहुत कठिन होने जा रहा है, संयुक्त राष्ट्र से तो बहुत ज़्यादा। संयुक्त राष्ट्र में कम से कम जाति की समस्या तो नहीं है जबकि भारत में जाति एक बड़ी समस्या है..लेकिन यदि हम वास्तव में एक राष्ट्र की कल्पना करते हैं तो हमें इन सभी समस्याओं से उबरना होगा।"

नागरिकों की जिम्मेदरियों को लेकर डा. आंबेडकर जोर देकर कहते हैं-

"हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी ने हमारे ऊपर जिम्मेदारियां बढ़ाई है। अब हम कुछ भी ग़लत होने पर अंग्रेज़ों को जिम्मेदार मानने से बाहर निकल चुके हैं। भविष्य में यदि कुछ ग़लत होता है, अब हमारे पास दोषी ठहराने के लिए कोई नहीं है, सिवाय खुद के...यदि हम उस संविधान को संरक्षित रखना चाहते हैं, जिसमें लोगों का, लोगों के लिए और लोगों द्वारा सरकार के सिद्धांत को सुनिश्चित किया गया है। तो आइये उस बुराई को चिन्हित कर ख़त्म करने में सुस्ती नहीं दिखाएं। हमें इस बुराई को हटाने के लिए अपने इस पहल में कमज़ोर नहीं होना चाहिए। यही एक रास्ता है अपने देश की सेवा करने का।"

दोहराने की जरूरत नहीं है कि डा. आम्बेडकर के इस ऐतिहासिक भाषण की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी आज से 70 साल पहले थी. हमें बाबा साहेब की इन चेतावनियों को हमेशा याद रखना होगा. 

No comments:

Post a Comment

कोरोना वायरस के साथ ही डालनी पड़ेगी जीने की आदत

कोरोना का सबसे बड़ा सबक है कि अब हमें जीवन जीने के तरीके बदलने होंगे  संजय दुबे  भारत में कोरोना वायरस के चलते लगा देशव्यापी लाकडाउन...