जन्म के आधार पर कोई श्रेष्ठ नहीं होता बल्कि कर्म और परिश्रम ही श्रेष्ठ बनाते है
- रोहन गिरि
रोहन गिरी |
विज्ञान कहता है, विष मृत्यु देता है परन्तु जन्म और जाति के आधार पर भेदभाव, शोषण और अन्याय के ज़हर ने तो मृत्यु से भी बदतर जीवन दिया था.
भारतीय समाज में यह विकृति कब और कैसे पनपी, इसे अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया. जितने विचार, उतनी दृष्टियाँ, उतनी व्याख्या और उतने तर्क. परन्तु इस धीमे ज़हर ने भारत को बीमार तथा दुर्बल बना दिया.
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि प्रकृति का संतुलन सिद्धांत भी अद्भुत है. जन्म समान-मृत्यु भी एक समान यानी समरसता का सिद्धांत प्रकृति प्रदत्त है. परन्तु जन्म और मृत्यु के बीच जीवन में मानव भेदभाव रूपी गंभीर बीमारी का शिकार हो गया.
जब रोग लाइलाज प्रतीत होने लगा तो प्रकृति ने एक डॉक्टर को जन्म दिया. 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू
( आंबेडकर नगर)
में जन्मे भीमराव रामजी आंबेडकर ने पीढ़ियों से पीड़ित समाज को झकझोर कर जागृत कर दिया.
सामाजिक पतन की पराकाष्ठा के काल में कदम कदम पर उपेक्षा और अपमान झेल कर भी वे बढ़ते गए.
बड़ोदा के गायकवाड़ महाराज के आर्थिक सहयोग से विदेश से पढ़ने वाले पहले भारतीय छात्र बने. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सफलता हासिल कर दिखा दिया कि जन्म के आधार पर कोई श्रेष्ठ नहीं होता बल्कि कर्म और परिश्रम ही भाग्य पर सदैव भारी पड़ते है.
डॉ.आंबेडकर को केवल दलितों का मसीहा या संविधान निर्माता कहना उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ न्याय नहीं होगा क्योंकि स्वतंत्रता,समता और बंधुत्व के आधार पर आधुनिक और अभेद्य भारत का निर्माण करना ही उनका सपना था जिसकी पूर्ति के लिए वे आजीवन प्रयत्नशील रहे. आंबेडकर को एक सांचे में ढाल कर देखना बड़ी भूल होगी. इसलिए कुछ और भी क्षेत्र है जिस योगदान के बारे में चर्चा करना आवश्यक है.
आंबेडकर एक अर्थशास्त्री
भारत की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर सुचारु रूप से चलाने वाला भारतीय रिजर्व बैंक. यह भारत का केंद्रीय बैंक है और सभी बैंको का संचालन करता है. यह बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के प्रस्तावों, दिशा-निर्देशों और
सूझबूझ के कारण ही 1 अप्रैल 1935 को स्थापित हो पाया था. डॉ.आंबेडकर के निर्देशक सिद्धांतो के आधार पर ही रिजर्व बैंक आज समय तक सुचारु रूप से काम कर रही है.
सूझबूझ के कारण ही 1 अप्रैल 1935 को स्थापित हो पाया था. डॉ.आंबेडकर के निर्देशक सिद्धांतो के आधार पर ही रिजर्व बैंक आज समय तक सुचारु रूप से काम कर रही है.
डॉ.आंबेडकर के आर्थिक ज्ञान का साक्षात्कार उनकी द्वारा लिखे गए "रुपये की समस्या-उसका उद्भव और प्रभाव" और "भारतीय चलन व बैंकिंग का इतिहास" जैसे दस्तावेजों से भी किया जा सकता है. डॉ
आंबेडकर के आर्थिक दर्शन ने नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन पर ऐसी छाप छोड़ी कि अमर्त्य सेन ने कहा है कि, " Dr Ambedkar is the father of my
economics" अर्थात "डॉ आंबेडकर मेरे अर्थशास्त्र के जनक हैं."
डॉ. आंबेडकर के द्वारा प्रस्तावित भारत के निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था.
वे राज्य का सही दिशा में किया गया हस्तक्षेप सामाजिक और आर्थिक प्रबंधन के लिए आवश्यक मानते थे. यह गांधीवादी प्रारूप से बिलकुल अलग था.
आंबेडकर एक समाजशास्त्री
आंबेडकर का पूरा जीवन ही भारतीय समाज के सुधार के लिए समर्पित था.
उन्होंने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया, जाति व्यवस्था का विरोध किया, अस्पृश्यता अर्थात छुआछूत का विरोध किया और बाबासाहेब ने हिन्दू समाज की मान्यताओं में परिवर्तन पर बल देकर अंतरजातीय विवाह, सबको सामान शिक्षा, व्यवस्थापिका-न्यायपालिका और कार्यपालिका में सबको सामान अवसर मिले, नारी गरिमा जैसे मुद्दों को पूरी ताक़त के साथ सत्ता-समाज और देश के सामने उठाया.
सामाजिक न्याय के संघर्ष में बाबासाहेब ने अपने बेटों को भी खो दिया लेकिन हर ठोकर ने उनके इरादों को और मजबूत किया. डा. आंबेडकर की सामाजिक समझ कुछ ऐसी थी कि वह चाहते थे हर वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति के लिए विकास के सामान अवसर उपलब्ध हों. महाराष्ट्र के महाड़ का चौबदार तालाब आंदोलन सामाजिक विकृति के विरुद्ध मानवीय मूल्यों का संघर्ष था. नाशिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने के लिए सत्याग्रह न सिर्फ मौलिक अधिकारों की मांग थी बल्कि एक संस्कृति, एक धर्म और एक राष्ट्र के मूलभूत सिद्धांत के तोड़क तत्वों के खिलाफ विद्रोह था.
उस काल में स्वतंत्रता के दो आंदोलन एक साथ चल रहे थे- एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता तो दूसरा सामाजिक स्वतंत्रता का.
आंबेडकर की राष्ट्रनीति
डॉ.आंबेडकर का नाम सुनते ही कई लोगो के दिल और दिमाग पर छवि प्रकट होती है जिसमे दिखता है कि डा. आंबेडकर केवल दलितों के अधिकारों के लिए लड़नेवाले नेता और देश-धर्म की परिकल्पना के विरोधी थे. लेकिन बाबासाहेब आंबेडकर जी के जीवन के वास्तविक पहलू और भी हैं जिसमे वह राष्ट्रवादी चिंतन के महान चिंतक भी हैं.
आंबेडकर जी के नाम पर दलित राजनीती के मुखोटे बने हुए लोग जो छद्म अम्बेडकरवादी हैं, वह किसी और के हाथ की कठपुतली बनकर डॉ.आंबेडकर के विचारों की हत्या करने में लगे हुए है.
"राष्ट्र पुरुष बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर "पुस्तक में कृष्ण गोपाल एवं श्री प्रकाश लिखते है कि "स्वयं आंबेडकर ने कहा था कि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं के साथ मेरा विवाद है,
परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा."
परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा."
वही "हमारे डॉ अम्बेडकर जी" पुस्तक में आश्चर्य लाल नरूला लिखते हैं कि, "आंबेडकर जी दुखी होते थे और कहते थे कि तरुणों की धर्म विरोधी प्रवृत्ति देखकर मुझे दुःख होता है. कुछ लोग कहते हैं कि धर्म अफीम की गोली है परन्तु यह सही नहीं है. मेरे अंदर जो भी अच्छे गुण हैं अथवा मेरी शिक्षा के कारण समाज हित के काम जो मैंने किये है वे मुझ में विद्यमान धार्मिक भावना के कारण ही है. मुझे धर्म चाहिए लेकिन धर्म के नाम पर चलने वाला पाखण्ड नहीं चाहिए."
आज़ादी के सत्तर साल बाद हम विदेश नीति में बदलाव कर अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं और इसके परिणाम भी किसी से छुपे नहीं हैं. 60 के दशक में यही बात आंबेडकर जी भी कह गए थे कि कम्युनिस्ट रूस से नहीं बल्कि अमेरिका से दोस्ती भारत के हित में होगी. कम्युनिस्ट विचारधारा को तो वह पहले ही मार्क्स और बुद्ध से तुलना कर ख़ारिज कर चुके थे. बाबासाहेब भविष्यद्रष्टा, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, न्यायशास्त्री तो थे ही, वे विदेशनीति, उद्योगनीति, धर्मनीति, ऊर्जानीति, राष्ट्रनीति के ज्ञाता और सामाजिक न्याय के अधिष्ठाता भी थे.
बहुत अच्छा लिखे हो।
ReplyDelete