Tuesday 31 March 2020

मीना कुमारी की पुण्यतिथि पर खास: हिंदी सिनेमा की ट्रेजडी क्वीन


मीना कुमारी के अभिनय में कविता की लय और नाटक की दुखांतिका थी 

  • देवेश मिश्र 


“टुकड़े टुकड़े ये दिन बीता धज्जी-धज्जी रात गई
जिसका जितना आंचल था उतनी ही सौग़ात मिली.

ये शेर है मीना कुमारी का जो उनकी ज़िंदगी का मज़मून बन गया.

वो मीना कुमारी जिसका नाम सुनते ही हज़ारों दिल धड़कने लगते थे, जिसका नाम सुनते ही दिल से एक आह सी निकलती थी. शब्दों में दर्द का दरिया और  पर्दे पर पीड़ा. कुछ ऐसी कि मरते दम तक जिगर से जो निकले वह नाम है- माहजबीं बानो यानी मीना कुमारी.  

ये बिल्कुल भी कल्पना से परे है कि क़िस्मत किसी इंसान को दौलत, शोहरत, रंजो -ग़म इतना अधिक और एक साथ तोहफ़े में दे सकती है. फ़िल्म पाकीज़ा” से लेकर साहब, बीबी और गुलाम” तक मीना कुमारी ने अपने अभिनय की दर्शकों पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उनके इस दुनिया को अलविदा कहने के 48 साल बाद भी वह ज्यों का त्यों बरकरार है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सिनेमा और राजनीति के प्रवक्ता अंकित पाठक बताते हैं कि मीना कुमारी की जिंदगी काफी दर्द भरी रही जिसकीवजह से उन्हें ट्रेजिडी क्वीन’ कहा जाने लगा था. उन्होंने बताया कि सिनेमा के गंभीर लेखक लेखक मधुप शर्मा अपनी किताबआखिरी अढ़ाई दिनमें बताते हैं कि मीना कुमारी जब पैदा हुईं तो उनके परिवार में कोई खुशी नहीं मनाई गई. बहन खुर्शीद के बाद मीना कुमारी केपिता को बेटे की उम्मीद थी लेकिन पैदा हुईं मीना यानी  महजबीं बानो.

बंबई की एक चॉल में उनकी मां इक़बाल बानो और पिता मास्टर अली बख़्श रहते थे. उनके पिता हारमोनियम बजाते थे और थियेटर आर्टिस्ट भी थे. परिवार में बहुत ग़रीबी और तंगहाली थी. फिर 1 अगस्त 1932 को मीना कुमारी का जन्म हुआ. उनके घर पर डिलीवरी करने वाले डॉक्टर को फीस देने तक के पैसे नहीं थे. बताया जाता है कि अली बख़्श इतने निराश थे कि बच्ची को दादर के पास एक मुस्लिम अनाथालय के बाहर छोड़ दिया लेकिन बाद में उन्हें उठा लाये.

राज्यसभा टीवी के वरिष्ठ पत्रकार और सिनेमा, साहित्य और संगीत पर विशेष रुचि रखने वाले इरफ़ान बताते हैं कि मीना के घर के हालात बिल्कुल भी ठीक नहीं थे. इसलिये बचपना रूखी-सूखी खाकर ही गुजरा. उन दिनों थियेटर के अलावा छोटी-छोटी फ़िल्में बनती थीं और फिल्मों में बच्चों को रोल मिला करते थे. उनकी मां इक़बाल बानो बेटियों के लिए रोल ढूंढ़ा करती थीं. एक बार वे 7 साल की मीना को भी एक फिल्म स्टूडियो लेकर गईं, जहां तब के बड़े प्रोड्यूसर विजय भट्ट बैठे थे. उन्होंने कहा कि इस बच्ची के लायक काम हो तो दीजिए.  

किस्मत देखिये कि महजबीन का चेहरा विजय भट्ट को पसंद गया. उन्होंने फिल्मलेदरफेस’ (1939) में बाल कलाकार की भूमिका में उन्हें ले लिया. घर की स्थिति डांवाडोल ही रहती थी. इसलिये कैमरे से महजबीं का रिश्ता गहराता गया. 8 साल की उम्र में दो फ़िल्में की- एक ही भूलऔरपूजा’. महजबीं की आवाज़ भी बड़ी मीठी थी. माता-पिता ने अभिनय के अलावा गाने के लिये भी प्रेरित किया जिससे कुछ कमाई हो सके.

महजबीं बानो का नाम बदला प्रोड्यूसर विजय भट्ट ने. माहजबीं जब 14 साल की थीं तब उन्हें एक और
फ़िल्म मिली जिसके बाद इनका नाम मीना कुमारी हो गया. अगले ही साल मीना कुमारी को फ़िल्मपिया घर आजाके सारे गीत गाने को मिले जिसे खूब सराहा गया.

1961 में आईभाभी की चूडियांएक पारिवारिक ड्रामा फ़िल्म थी जिसका निर्देशन सदाशिव कवि ने किया था. मीना कुमारी और बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी. यह मीना कुमारी की प्रसिद्ध फिल्मों में से एक है. यह फिल्म लता मंगेशकर के प्रसिद्ध गीत "ज्योति कलश छलके" के साथ बॉक्स ऑफिस पर उस साल की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्मों में से एक बन गया.

जेएनयू में सिनेमा की पढ़ाई करने वाले हिमांशु का कहना है कि मीना कुमारी की कुछ फ़िल्में तो ऐसी थीं जो दशकों तक दर्शकों के दिलों में छाई रहीं.  गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अल्वी के निर्देशन में बनी मशहूर फ़िल्मसाहब बीबी और गुलाम 1962 में आई थी. यह बिमल मित्र के बंगाली उपन्यास "साहेब, बीबी, गोलम" पर आधारित है. फिल्म में मीना कुमारी, गुरु दत्त, रहमान, वहीदा रहमान और नाज़िर हुसैन हैं. इसका संगीत हेमंत कुमार का है और गीत शकील बदायूनी के हैं. इस फिल्म को वी. के. मूर्ति और गीता दत्त द्वारा गाए गए प्रसिद्ध गीत  "ना जाओ सईयां छुड़ा के बइयां" और "पिया ऐसो जिया में समाय गयो" के लिए भी जाना जाता है.

फिल्म में मीना कुमारी काअभिनय इतना ज़बर्दस्त है कि इसे दर्शकों ने खूब पसंद किया था. फिल्म ने चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते, जिसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार भी शामिल था. इस फिल्म को 13 वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए भी नामित किया गया था, जहाँ मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया था. साहब, बीबी और गुलाम” को ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भी भेजा गया था.

बैजू बावराने मीना कुमारी को एक बार फिर बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर अवॉर्ड दिलवाया. वह यह अवॉर्ड पाने वाली पहली एक्ट्रेस थीं. इसके बाद भी उन्होंने एक से बढ़ कर एक फिल्में दीं. परिणीता, दिल
अपना प्रीत पराई, श्रद्धा, आजाद, कोहिनूर….1960 के दशक में वह बहुत बड़ी स्टार बन गई थीं. यह स्टारडम उनकी निजी जिंदगी में कड़वाहट घोल रहा था.

1964 में आईसांझ और सवेरा’- हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसमें मीना कुमारी, गुरुदत्त और महमूद ने अभिनय किया था. यह फ़िल्म गुरु दत्त की अंतिम फ़िल्म थी. अपने दौर की सबसे ज्यादा फीस लेने वाली कुछ एक्ट्रेस में मीना कुमारी आती हैं. 1940 के बाद के दौर में वे एक फिल्म के लिए 10,000 रुपए की मोटी फीस लेती थीं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर मिहिर पंड्या मीना कुमारी की ज़िंदगी के कई अनछुए पहलुओं का ज़िक्र करते हैं. उनका कहना है कि मीना कुमारी बॉलीवुड के आसमां का वो सितारा थीं, जिसे छूने के लिए हर कोई बेताब था. 70 के दशक की शुरुआत में, मीना कुमारी ने अपना ध्यान  अभिनय उन्मुख' या चरित्र भूमिकाओं पर स्थानांतरित कर दिया.  उनकी अंतिम छह फिल्में- जबाव, सात फेरे, मेरे अपने, दुश्मन, पाकीज़ा और गोमती के किनारे में से केवल पाकीज़ा में उनकी मुख्य भूमिका थी.

पाकीज़ा’ फ़िल्म में उनका अभिनय, नृत्य और भूमिका कमाल की थी. इस फ़िल्म ने मीना कुमारी के निजी जीवन को बहुत प्रभावित किया था. ये समय भी मीना कुमारी का लगभग आख़िरी समय था. मीना कुमारी हिंदी सिनेमा में अपने समय की चर्चित अभिनेत्री थीं. उन्होंने अपनी कामयाबी का एक नायाब इतिहास रचा लेकिन पर्दे पर रिश्ते की बुनावट और गरमाहट को साकार करने वाली मीना कुमारी अपने जीवन में इस गरमाहट के लिए जीवन भर तरसती रहीं.

कमाल अमरोही के साथ मीना कुमारी का रिश्ता करीब एक दशक चला. बाद में इसमें खटास आने लगी. कमाल भी उन्हें लेकर बहुत पज़ेसिव थे और रूढ़िवादी भी थे. उन्होंने कई बंदिशें लगा रखी थीं. शर्तें बना रखी थीं. जैसे उनके मेक-अप रूप में किसी मर्द का घुसना मना था. इसी तरह उन्होंने एक असिस्टेंट मीना कुमारी के साथ लगा रखा था ताकि वे हर पल नजर रख सके. लेकिन मीना ने हर नियम को तोड़ा. कहते हैं कि उन्होंने एक बार स्टूडियो में गुलज़ार को बुलाया और सबके सामने अपना स्नेह प्रदर्शित किया. उसके बाद पति के घर से चली गईं और अपनी बहन के वहां रहने लगीं.

मीना कुमारी अपने अंतिम दिनों में काफ़ी तंगहाली और परेशानी में रहीं. पाकीज़ा फ़िल्म की रिलीज़ के दो महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. पाकीज़ा की रिलीज़ के समय ही वह काफ़ी शेरो-शायरी भी लिखती थीं जिसे उन्होंने गुलज़ार साहब को दिया और बाद में वह छपी भी. उनका एक शेर जो जैसे उन्होंने बिल्कुल उन्होंने अपनी ज़िंदगी पर ही लिखा हो, कुछ ऐसे है,

ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूंढ़ता है 
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है

बैठे रहे हैं रास्ता में दिल का खंडहर सजा कर 
शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुज़रे 

28 मार्च, 1972 को उन्हें सेंट एलिजाबेथ नर्सिग होम में भर्ती कराया गया. मीना कुमारी ने 29 मार्च, 1972 को आखिरी बार कमाल अमरोही (अपने पति) का नाम लिया, इसके बाद वह कोमा में चली गईं. मीना कुमारी महज 39 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गईं.

क्या भारत में कोरोना को रोकने के लिए लॉकडाउन काफ़ी है?


देश और सरकार को लाकडाउन के अलावा भी सोचना और करना होगा 

  • रितिक कुमार

वक़्त पूरी दुनिया में कोरोना महामारी का असर देखा जा रहा  है। विश्व के 180 से ज़्यादा  देश इसकी चपेट में  हैं। इटली, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका जैसे देश इससे बुरी तरह प्रभावित हैं। इन देशों में  पिछले एक सप्ताह में संक्रमण के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है, मौत के आंकड़े हर घन्टे बढ़ रहे हैं। पूरी दुनिया में अभी तक कोरोना के 7 लाख 90 हज़ार मामले आए हैं, जिसमें 38 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हुई है। हालात कितने ख़राब हैं इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने कोरोना संक्रमण के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ दिया है।

कोरोना के कारण विकसित देशों के हाथ-पाँव जिस तरह फूले हुए हैं, उसे देखते हुए भारत के लिए भी यह बड़ी चुनौती बन गया है। इन्हीं देशों से सीख लेते हुए भारत ने 22 मार्च से ट्रेनों का परिचालन बन्द कर दिया है। 24 मार्च से 21 दिनों के लिए पूरे देश को लॉकडाउन कर दिया गया है सरकार मानकर चल रही है कि लॉकडाउन से संक्रमण के चेन को तोड़ा जा सकता है और संक्रमण की रफ़्तार को कम किया जा सकता है। सामाजिक दूरी के ज़रिए सामुदायिक संक्रमण को भी कम किया जा सकता है।

इसका एक बहुत बेहतर उदाहरण चीन का पड़ोसी देश वियतनाम है। उसने लॉकडाउन का पालन बहुत ही सख्ती से किया। यही कारण है कि बहुत अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं होने के बावजूद वह कोरोना के मामलों को रोकने में कामयाब रहा है वियतनाम में जब कोरोना के 10 मामले थे,  तब से ही वह इससे सख्ती से निपट रहा है, संक्रमित लोगों को अलग रखने के साथ उनके संपर्क में आये लोगों की भी जांच कर रहा है। ऐसा ही कुछ जापान भी कर रहा है हालांकि उसकी स्वास्थ्य व्यवस्था भी बहुत अच्छी है।

भारत में कितना कारगर होगा लॉकडाउन?

कोरोना जिस तेजी से फैल रहा है, उसके मद्देनजर भारत के पास लॉकडाउन के अलावा तत्काल कोई बेहतर विकल्प नहीं था इसके माध्यम से जहां एक ओर संक्रमण के चेन को तोड़ने की कोशिश की जा रही है, वहीं दूसरी ओर, इतनी बड़ी आबादी को सामुदायिक संक्रमण से भी बचाने की भी कोशिश हो रही है। इकनोमिक टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में वैज्ञानिकों की एक टीम ने इस बात का अनुमान लगाया है कि मध्य मई तक भारत में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या 1 से 30 लाख के बीच हो सकती है। रिपोर्ट में बताया गया है, अभी तो मामलों में बहुत  वृद्धि नहीं हुई है लेकिन अगले दो हफ्ते के अंदर इसमें तेजी देखने को मिल सकती है

वैज्ञानिकों की इस टीम में अमेरिका के जॉन हॉपकिं विश्वविद्यालय की देवश्री राय भी हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बात परीक्षण के दायरे, परीक्षण के नतीजों की सटीकता और उन लोगों के परीक्षण पर निर्भर करेगा, जिनमें इस वायरस से संक्रमण के लक्षण नहीं दिख रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि भारत में परीक्षण दर बहुत कम है जो चिंता की बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यह बात कही है कि केवल लॉकडाउन ही भारत में कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है।

यदि हम भारत की जनसंख्या देखें तो यह वियतनाम से कई गुना ज्यादा है, ऐसे में, लॉकडाउन के सफल होने पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है। परिणाम देखें तो लॉकडाउन के बाद मामलों में उतनी कमी आती नहीं दिख रही है बल्कि मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक, संक्रमित लोगों की संख्या 1200 तक पहुंच गई  है जबकि मरने वालों की संख्या 30 पार कर चुकी है।

क्यों ज़रूरी है अधिक से अधिक परीक्षण?

परीक्षण के बारे में यह कहा जाता है कि यह वो तरीका है, जिसके माध्यम से ज्यादा से ज्यादा संक्रमितों की पहचान की जा सकती है और उन्हें अलग रखा जा सकता है  ताकि संक्रमण के और प्रसार को कम किया जा सके। जैसाकि कई रिपोर्टों से पता चला है कि कोरोना से संक्रमित व्यक्ति को शुरूआत के 12-14 दिनों तक संक्रमित होने का पता भी नहीं चलता  है। लक्षण के सामने आने तक वह बड़े स्तर पर सामुदायिक संक्रमण फैला चुका होता है।

स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के अनुसार, परीक्षण के जरिये मॉडल का पता चलता है और आकलन करने भी मदद मिलती है। संक्रमण किस तरीके से फैल रहा है इसका पता चलता है। उसके बाद मामलों को रोकने के लिए प्राथमिकताएं तय करने में आसानी होती है।

क्यों कम हो रहे हैं परीक्षण

भारत में परीक्षण कम होने की पीछे कई कारण हैं. “ स्क्रॉल की रिपोर्ट के अनुसार, परीक्षण कुछ मुख्य कारकों पर निर्भर करता है। जैसे टेस्ट किट, प्रयोगशाला और उसकी तैयारी, मानव संसाधन आदि। भारत इन सभी लिहाज़ से पीछे है। एक मुख्य वजह भारत की नीति भी है। बीबीसी के रिपोर्ट के अनुसार, 19 मार्च तक भारत में उन्हीं लोगों की जाँच (परीक्षण)  हो रही थी जो हाई रिस्क वाले देशों से आये थे। या फिर उन लोगों का जो ऐसे डॉक्टरों और लोगों के संपर्क में आये थे जिन्हें कोरोना था।

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1 से 15 मार्च के बीच 50 सरकारी अस्पतालों से 826 ऐसे सैंपल लिए गए जिन्हें श्वसन संबधी समस्याएं थीं। परीक्षण के बाद ये सारे रिपोर्ट नेगेटिव आये, जिसके बाद यह तर्क दिया गया कि भारत में सामुदायिक संक्रमण नहीं हो रहा है। आईसीएमआर के निदेशक बलराम भार्गव ने कहा कि भारत में कोरोना का सामुदायिक प्रकोप नहीं है।

हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भारत ज्यादा से ज्यादा टेस्ट इसलिए नहीं कर पा रहा है क्योंकि संसाधन कम हैं। टेस्ट किट की कमी है, आइसोलेशन वार्ड और अस्पतालों में बेड की कमी है। भारत में जनसंख्या के अनुपात मेंजांच कम होने के बाद हुई आलोचना और कोरोना के मामलों में लगातार वृद्धि के बाद सरकार ने 20 मार्च के बाद जांच की संख्या बढ़ाई है

दिनांक (मार्च)
जांच
मामले
20
1,325
315
21
1,298
360
22
1,384
468
23
1,481
519
24
2,074
606
25
2,216
694
26
-
724
27
-
918
28
-
1,024
29
-
1,071
30

1,251
 स्रोत- बीबीसी,स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय।

अन्य देशों की तुलना में भारत में कम परीक्षण दर

यदि भारत के परीक्षण दर की तुलना अन्य देशों से करें तो यह बहुत कम है। आईसीएमआर के अनुसार 30  मार्च तक लगभग 36 हज़ार जांच हुए हैं, जबकि एक आंकड़ा यह कहता है कि कोरोना के प्रकोप के बाद दुनियाभर से भारत में 15 लाख लोग आए हैं। ऐसे में, 15 लाख लोगों का परीक्षण होना चाहिए था और उनसे जुड़े अन्य लोगों की भी जांच होनी चाहिए थी।

इस वक़्त  सिंगापुर और दक्षिण कोरिया जैसे देश  सबसे ज्यादा परीक्षण कर रहे हैं, वहीं भारत में परीक्षण दर सबसे कम है। कई रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि दक्षिण कोरिया ज्यादा से ज्यादा परीक्षण से संक्रमण को रोक रहा है, उसकी इस नीति से ही अन्य देशों की तुलना में उसका संक्रमण दर बहुत कम है।

सिंगापुर
6,800 (प्रति 10 लाख आबादी पर)
दक्षिण कोरिया
6,148
इटली
3,499
ताइवान
899
स्पेन
646
संयुक्त अमेरिका
314
भारत
18


अभी तक कितने प्रयोगशाला तैयार हुए

आईसीएमआर के अनुसार अभी तक तक कुल 122 सरकारी प्रयोगशालाओं को परीक्षण के लिए तैयार किया जा चुका  है। 47 निजी प्रयोगशालाओं को भी परीक्षण की स्वीकृति दे दी गई है। सरकार का दावा है कि हर दिन कम से कम 10 हज़ार परीक्षण किए जा सकेंगे। लेकिन सवाल है कि क्या यह पर्याप्त है? यदि हम प्रयोगशाला केंद्रों पर नज़र दौड़ाएं तो बिहार जिसकी आबादी 10 करोड़ है वहां मात्र 2 लैब हैं,वो भी पटना में। एक सैम्पल को पटना से 300 किलोमीटर दूर किसी गाँव से लाने में जो वक्त लगेगा, उससे परीक्षण में देरी होगी और इन दो प्रयोगशालाओं पर  दबाव भी बढ़ जाएगा। ऐसे में, सही परीक्षण रिपोर्ट देना और बड़ी संख्या में जांच कर पाना बहुत मुश्किल है। बिहार में अभी तक 700 - 800 ही परीक्षण हुए हैं, जो चिंता की बात है।

कहां खड़ी है भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था

राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2019 के अनुसार, भारत के सरकारी अस्पतालों में 7,13, 986 बेड हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1000 की आबादी पर 0.7 बेड है। कुछ अन्य देशों की बात करें तो प्रति 1000 व्यक्ति पर दक्षिण कोरिया में 6.5 बेड, चीन में 11.5 बेड, इटली में 3.4 बेड जबकि अमेरिका में 2.8 बेड हैं। भारत के बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में  यह आंकड़ा 0.7 से भी कम है। बिहार में तो प्रति 1000 व्यक्ति पर 0.1 बेड है। जबकि केरल में प्रति 1000 व्यक्ति पर 1.1 बेड है, जो बाकी देश की स्थिति से थोड़ा बेहतर है।

कोरोना महामारी की यदि सबसे ख़राब परिस्थिति मानकर चलें तो लगभग 30 लाख लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं। यदि उनमें से 5-10% लोग बहुत गंभीर हालात में जाते हैं तो 1 लाख 50 हज़ार से लेकर 3 लाख वेन्टीलेटर्स की आवश्यकता होगी। ऐसा ही हाल देश के अस्पतालों में काम कर रहे डॉक्टरों की है, जिनकी संख्या बहुत ही कम है भारत में 10 हज़ार की आबादी पर 1 सरकारी डॉक्टर है जबकि 55 हज़ार की आबादी पर एक सरकारी अस्पताल है। जो अस्पताल और डॉक्टर हैं उन्हें भी  बुनियादी जरूरतों से  जूझना पड़ रहा है।

ऐसे बहुत से मामले आए हैं, जहाँ डॉक्टरों में  मास्क, दस्ताने और हजमत सूट के अभाव के कारण संक्रमण की शिकायतें मिली हैं। एक बड़ी समस्या यह भी है कि नर्सों को सही ट्रेनिंग नहीं दी गयी है, कोरोना के मरीजों से वो बहुत जल्दी संक्रमित हो जाती हैं। यह भी हो सकता है बहुत सारे नर्सों के लिए संक्रमण का पहला अनुभव हो लेकिन उन्हें इसकी अच्छी ट्रेंनिंग होनी चाहिए।

सरकार ने आइसोलेशन वार्ड की समस्या से निपटने के लिए बन्द पड़े ट्रेन के डब्बों को आइसोलेशन वार्ड के रूप में बदलना शुरू कर दिया है। ट्रेन के एक डब्बे में 9 मरीज़ों को रखा जा सकेगा। ऐसे विकल्पों पर सरकार तेजी से काम कर रही है लेकिन भारत को इसपर और भी गंभीरता से काम करने की ज़रूरत है।

विश्व स्वास्थ्य  संगठन ने  कहा है कि भारत अभी दूसरे स्टेज पर है इसलिए इसे कोरोना के प्रभाव को रोकने का पूरा प्रयास करना चाहिए। जल्दी से जल्दी लोगों को चिन्हित कर, उसे अलग करना चाहिए। लॉकडाउन से स्वास्थ्य व्यवस्था पर दबाव कम हो सकता है लेकिन महामारी खत्म नहीं होगी परीक्षण इसे  रोकने का सबसे तेज तरीका है। भारत के लिए दक्षिण कोरिया एक बढ़िया उदाहरण हो सकता है जो हर दिन 18 - 20 हज़ार जांच कर रहा है।

भारत का जो सामाजिक ढांचा है और चुनौतियां हैं, उसके अनुसार किसी एक ढर्रे पर चलकर कोरोना को रोकना मुश्किल है। इसे रोकने के लिए हर तरह का प्रयास करना होगा, चाहे स्वास्थ्य व्यवस्था में बड़ा परिवर्तन करना हो या  परीक्षण के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रयोगशालाओं का इस्तेमाल हो। लोगों में भी जागरूकता फैलानी होगी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग परीक्षण करवाएं। साफ- सफाई पर ध्यान देने की ज़रूरत है।  लॉकडाउन को भी बहुत सख़्ती से लागू करने की ज़रूरत है।

भारत की  ग्रामीण व्यवस्था जो कृषि और पशुओं पर निर्भर है, वह लोगों को लॉकडाउन का उल्लंघन करने को मजबूर करती है, साथ ही लोगों में जागरूकता की भी कमी है।  सरकार यह दावा कर रही है  कि सामुदायिक संक्रमण नहीं हो रहा है। लेकिन यदि मामले बढ़ते रहे तब जो स्थिति पैदा होगी, उसके लिए सरकार को तैयार रहना चाहिए। उस वक़्त सबसे ज़्यादा बेड, मास्क, वेन्टीलेटर्स आदि की जरूरत होगी।

सरकार की यह कोशिश होनी चाहिए कि वो अपनी पूरी प्रशासनिक शक्ति लॉकडाउन में ना लगाकर अन्य कार्यों पर भी लगाए यदि  सरकार लॉकडाउन पर ज्यादा ध्यान देती है, तो यह कोई जरूरी नहीं है एक ही लॉकडाउन हो। यदि परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो आगे और भी लॉकडाउन करना सरकार की मजबूरी हो जाएगी।  इससे देश की एक बड़ी आबादी भुखमरी का शिकार हो जाएगी, जो भारत के लिए एक बड़ी समस्या बन सकती है। भारत को आने वाले समय में उस आर्थिक परिस्थिति के बारे में भी सोचना चाहिए जो अगले एक -दो  महीने में उभरेगी

सरकार को अभी ज्यादा से ज्यादा विशेषज्ञों के सुझाव और मदद लेनी चाहिए हमें पता है कि हम चीन की तरह 10 दिन में अस्पताल तैयार नहीं कर सकते हैं लेकिन हमें अगले स्टेज से निपटने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए और लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि कोशिश यह होनी चाहिए कि अगले स्टेज में जाने की नौबत ही न आये

कोरोना वायरस के साथ ही डालनी पड़ेगी जीने की आदत

कोरोना का सबसे बड़ा सबक है कि अब हमें जीवन जीने के तरीके बदलने होंगे  संजय दुबे  भारत में कोरोना वायरस के चलते लगा देशव्यापी लाकडाउन...