मीना कुमारी के अभिनय में कविता की लय और नाटक की दुखांतिका थी
- देवेश मिश्र
“टुकड़े
टुकड़े
ये
दिन
बीता
धज्जी-धज्जी रात गई
जिसका
जितना
आंचल
था
उतनी
ही
सौग़ात
मिली.”
ये
शेर
है
मीना
कुमारी
का
जो
उनकी
ज़िंदगी
का
मज़मून
बन
गया.
वो मीना कुमारी जिसका नाम सुनते ही हज़ारों दिल धड़कने लगते थे, जिसका नाम सुनते ही दिल से एक आह सी निकलती थी. शब्दों में दर्द का दरिया और पर्दे पर पीड़ा. कुछ ऐसी कि मरते दम तक जिगर से जो न निकले वह नाम है- माहजबीं बानो यानी मीना कुमारी.
ये
बिल्कुल
भी
कल्पना
से
परे
है कि क़िस्मत
किसी
इंसान
को
दौलत,
शोहरत,
रंजो
-ग़म
इतना अधिक और एक साथ तोहफ़े में दे सकती है. फ़िल्म “पाकीज़ा” से लेकर “साहब, बीबी और गुलाम” तक मीना कुमारी ने अपने अभिनय की दर्शकों पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उनके इस दुनिया को अलविदा कहने के 48 साल बाद भी वह ज्यों का त्यों बरकरार है.
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय
में
सिनेमा
और
राजनीति
के
प्रवक्ता
अंकित
पाठक
बताते
हैं
कि
मीना
कुमारी की जिंदगी काफी दर्द भरी रही जिसकीवजह से उन्हें ‘ट्रेजिडी क्वीन’ कहा जाने लगा था. उन्होंने बताया कि सिनेमा के गंभीर लेखक लेखक मधुप शर्मा अपनी किताब ‘आखिरी अढ़ाई दिन’ में बताते हैं कि मीना कुमारी जब पैदा हुईं तो उनके परिवार में कोई खुशी नहीं मनाई गई. बहन खुर्शीद के बाद मीना कुमारी केपिता को बेटे की उम्मीद थी लेकिन पैदा हुईं मीना यानी महजबीं बानो.
बंबई
की
एक
चॉल
में
उनकी
मां
इक़बाल
बानो
और
पिता मास्टर
अली
बख़्श
रहते
थे.
उनके
पिता
हारमोनियम
बजाते
थे
और
थियेटर
आर्टिस्ट
भी
थे.
परिवार
में
बहुत
ग़रीबी
और
तंगहाली
थी.
फिर 1
अगस्त
1932 को
मीना
कुमारी
का
जन्म
हुआ.
उनके
घर
पर
डिलीवरी
करने
वाले
डॉक्टर
को
फीस
देने
तक
के
पैसे
नहीं
थे.
बताया जाता
है
कि
अली
बख़्श
इतने
निराश
थे
कि
बच्ची
को
दादर
के
पास
एक
मुस्लिम
अनाथालय
के
बाहर
छोड़
दिया
लेकिन
बाद
में
उन्हें
उठा लाये.
राज्यसभा
टीवी
के
वरिष्ठ
पत्रकार
और
सिनेमा,
साहित्य
और
संगीत
पर
विशेष
रुचि
रखने
वाले
इरफ़ान
बताते
हैं
कि
मीना
के
घर
के हालात
बिल्कुल
भी
ठीक
नहीं
थे.
इसलिये
बचपना
रूखी-सूखी खाकर ही गुजरा. उन दिनों थियेटर के अलावा छोटी-छोटी फ़िल्में बनती थीं और फिल्मों में बच्चों को रोल मिला करते थे. उनकी मां इक़बाल बानो बेटियों के लिए रोल ढूंढ़ा करती थीं. एक बार वे 7 साल की मीना को भी एक फिल्म स्टूडियो लेकर गईं, जहां तब के बड़े प्रोड्यूसर विजय भट्ट बैठे थे. उन्होंने कहा कि इस बच्ची के लायक काम हो तो दीजिए.
किस्मत देखिये कि महजबीन का चेहरा विजय भट्ट को पसंद आ गया. उन्होंने फिल्म ‘लेदरफेस’ (1939) में बाल कलाकार की भूमिका में उन्हें ले लिया. घर की स्थिति डांवाडोल ही रहती थी. इसलिये कैमरे से महजबीं का रिश्ता गहराता गया. 8 साल की उम्र में दो फ़िल्में की- ‘एक ही भूल’ और ‘पूजा’. महजबीं की आवाज़ भी बड़ी मीठी थी. माता-पिता ने अभिनय के अलावा गाने के लिये भी प्रेरित किया जिससे कुछ कमाई हो सके.
महजबीं
बानो का नाम बदला प्रोड्यूसर विजय भट्ट ने. माहजबीं जब 14 साल की थीं तब उन्हें एक और
फ़िल्म मिली जिसके बाद इनका नाम मीना कुमारी हो गया. अगले ही साल मीना कुमारी को फ़िल्म ‘पिया घर आजा’ के सारे गीत गाने को मिले जिसे खूब सराहा गया.
1961 में आई ‘भाभी की चूडियां’ एक पारिवारिक ड्रामा फ़िल्म थी जिसका निर्देशन सदाशिव कवि ने किया था. मीना कुमारी और बलराज साहनी की मुख्य भूमिका
थी. यह मीना कुमारी की प्रसिद्ध फिल्मों में से एक है. यह फिल्म लता मंगेशकर के प्रसिद्ध गीत "ज्योति कलश छलके" के
साथ बॉक्स ऑफिस पर उस साल की सबसे अधिक कमाई वाली फिल्मों में से एक बन गया.
जेएनयू
में
सिनेमा
की
पढ़ाई
करने
वाले
हिमांशु
का
कहना
है
कि
मीना
कुमारी
की
कुछ
फ़िल्में
तो
ऐसी
थीं
जो
दशकों
तक
दर्शकों
के
दिलों में
छाई
रहीं.
गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अल्वी के निर्देशन में बनी मशहूर फ़िल्म ‘साहब बीबी और गुलाम’ 1962
में
आई
थी.
यह
बिमल
मित्र
के
बंगाली
उपन्यास
"साहेब,
बीबी,
गोलम"
पर
आधारित
है.
फिल्म
में
मीना
कुमारी,
गुरु
दत्त,
रहमान,
वहीदा
रहमान
और नाज़िर
हुसैन
हैं.
इसका
संगीत
हेमंत
कुमार
का
है
और
गीत
शकील
बदायूनी
के
हैं.
इस
फिल्म
को
वी.
के.
मूर्ति
और
गीता
दत्त
द्वारा
गाए गए
प्रसिद्ध
गीत
"ना जाओ सईयां छुड़ा के बइयां" और "पिया ऐसो जिया में समाय गयो" के लिए भी जाना जाता है.
फिल्म
में
मीना
कुमारी
काअभिनय
इतना
ज़बर्दस्त
है
कि
इसे
दर्शकों
ने
खूब
पसंद
किया
था.
फिल्म
ने
चार
फिल्मफेयर
पुरस्कार
जीते,
जिसमें
सर्वश्रेष्ठ
अभिनेत्री
का पुरस्कार
भी
शामिल
था. इस फिल्म को 13 वें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर के लिए भी नामित किया गया था, जहाँ मीना कुमारी को एक प्रतिनिधि के रूप में चुना गया था. “साहब, बीबी और गुलाम” को ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भी भेजा गया था.
“बैजू बावरा’ ने मीना कुमारी को एक बार फिर बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर अवॉर्ड दिलवाया. वह यह अवॉर्ड पाने वाली पहली एक्ट्रेस थीं. इसके बाद भी उन्होंने एक से बढ़ कर एक फिल्में दीं. परिणीता, दिल
अपना प्रीत पराई, श्रद्धा, आजाद, कोहिनूर….1960 के दशक में वह बहुत बड़ी स्टार बन गई थीं. यह स्टारडम उनकी निजी जिंदगी में कड़वाहट घोल रहा था.
1964 में आई ‘सांझ और सवेरा’- हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म है, जिसमें मीना कुमारी, गुरुदत्त और महमूद ने अभिनय किया था. यह फ़िल्म गुरु दत्त की अंतिम फ़िल्म थी. अपने दौर की सबसे ज्यादा फीस लेने वाली कुछ एक्ट्रेस में मीना कुमारी आती हैं. 1940 के बाद के दौर में वे एक फिल्म के लिए 10,000 रुपए की मोटी फीस लेती थीं.
दिल्ली
विश्वविद्यालय
में
प्रोफ़ेसर
मिहिर
पंड्या
मीना
कुमारी
की
ज़िंदगी
के
कई
अनछुए
पहलुओं
का
ज़िक्र
करते हैं. उनका
कहना है कि मीना कुमारी बॉलीवुड के आसमां का वो सितारा थीं, जिसे छूने के लिए हर कोई बेताब था. 70 के दशक की शुरुआत में, मीना कुमारी ने अपना ध्यान ‘अभिनय उन्मुख' या चरित्र भूमिकाओं पर स्थानांतरित कर दिया. उनकी अंतिम छह फिल्में- जबाव, सात फेरे, मेरे अपने, दुश्मन, पाकीज़ा और गोमती के किनारे में से केवल पाकीज़ा में उनकी मुख्य भूमिका थी.
‘पाकीज़ा’ फ़िल्म में उनका अभिनय, नृत्य और भूमिका कमाल की थी. इस फ़िल्म ने मीना कुमारी के निजी जीवन को बहुत प्रभावित किया था. ये समय भी मीना कुमारी का लगभग आख़िरी समय था. मीना कुमारी हिंदी सिनेमा में अपने समय की चर्चित अभिनेत्री थीं. उन्होंने अपनी कामयाबी का एक नायाब इतिहास रचा लेकिन पर्दे पर रिश्ते की बुनावट और गरमाहट को साकार करने वाली मीना कुमारी अपने जीवन में इस गरमाहट के लिए जीवन भर तरसती रहीं.
कमाल
अमरोही के साथ मीना कुमारी का रिश्ता करीब एक दशक चला. बाद में इसमें खटास आने लगी. कमाल भी उन्हें लेकर बहुत पज़ेसिव थे और रूढ़िवादी भी थे. उन्होंने कई बंदिशें लगा रखी थीं. शर्तें बना रखी थीं. जैसे उनके मेक-अप रूप में किसी मर्द का घुसना मना था. इसी तरह उन्होंने एक असिस्टेंट मीना कुमारी के साथ लगा रखा था ताकि वे हर पल नजर रख सके. लेकिन मीना ने हर नियम को तोड़ा. कहते हैं कि उन्होंने एक बार स्टूडियो में गुलज़ार को बुलाया और सबके सामने अपना स्नेह प्रदर्शित किया. उसके बाद पति के घर से चली गईं और अपनी बहन के वहां रहने लगीं.
मीना
कुमारी
अपने
अंतिम
दिनों
में
काफ़ी
तंगहाली
और
परेशानी
में
रहीं.
पाकीज़ा
फ़िल्म
की
रिलीज़
के
दो
महीने
बाद
ही
उनकी
मृत्यु
हो गई.
पाकीज़ा
की
रिलीज़
के
समय
ही
वह
काफ़ी
शेरो-शायरी भी लिखती थीं जिसे उन्होंने गुलज़ार साहब को दिया और बाद में वह छपी भी. उनका एक शेर जो जैसे उन्होंने बिल्कुल उन्होंने अपनी ज़िंदगी पर ही लिखा हो, कुछ ऐसे है,
ग़म
ही
दुश्मन
है
मेरा,
ग़म
ही
को
दिल
ढूंढ़ता
है
एक
लम्हे
की
जुदाई
भी
अगर
होती
है
बैठे
रहे
हैं
रास्ता
में
दिल
का
खंडहर
सजा
कर
शायद
इसी
तरफ
से
एक
दिन
बहार
गुज़रे
28 मार्च, 1972 को उन्हें सेंट एलिजाबेथ नर्सिग होम में भर्ती कराया गया. मीना कुमारी ने 29 मार्च, 1972 को आखिरी बार कमाल अमरोही (अपने पति) का नाम लिया, इसके बाद वह कोमा में चली गईं. मीना कुमारी महज 39 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गईं.