Friday 1 May 2020

दास्तान उस बादशाह की जिसकी तलवार ने साम्राज्य की हदों को विस्तार दिया और मजहबों को अक्ल की कसौटी पर कसा

पुस्तक समीक्षा: अकबर: लेखक- शाज़ी ज़मां 

जब इतिहास के तथ्यों और किस्सागोई के रसायन आपस में बारीक तरीके से मिलते हैं तो बनती है ऐसी क़िताब 
  • शुभम शर्मा 
"एक बादशाह जिसकी तलवार ने साम्राज्य की हदों को विस्तार दिया, जिसने मजहबों को अक्ल की कसौटी पर कसा, जिसने हुकूमत और तहजीब को नए मायने दिए, उसी बादशाह की रूहानी और सियासी जिंदगी की जद्दोजहद का संपूर्ण खाका पेश करता एक अभूतपूर्व उपन्यास"- यह शब्द लिखे हैं क़िताब "अकबर" के कवर पृष्ठ पर. इस किताब के लेखक हैं शाज़ी ज़माँ जो न सिर्फ जानेमाने पत्रकार और लेखक हैं बल्कि इस क़िताब के जरिये उनके अन्दर छुपा इतिहासकार भी उभरकर सामने आ गया है. 

यह सही है कि वे एक प्रशिक्षित इतिहासकार हैं. उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से इतिहास में स्नातक किया है. लेकिन इस किताब में वे सिर्फ इतिहासकार भर नहीं हैं बल्कि उनका किस्सागो भी कुछ छूट लेते हुए उस दौर को फिर से जीने की कोशिश करता है. इसमें उनकी किस्सागोई का जवाब नहीं. वह बीबीसी, जी न्यूज, आज तक और स्टार न्यूज से जुड़े रहे हैं, इसके अलावा वह एबीवीपी न्यूज नेटवर्क के समूह संपादक रहे हैं. इस किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है.

वैसे मेरे जैसे युवा पाठक के लिए अकबर यह नाम सुनते ही ध्यान आता है, आशुतोष गोवारिकर की फिल्म "जोधा अकबर" के रितिक रोशन अभिनीत कैरेक्टर अकबर का. वहीं पुरानी याददाश्त कुरेदने पर "मुगल-ए-आज़म" के पृथ्वीराज कपूर की आवाज कानों में गूंजती है जिनके सुडौल शरीर और भारी-गंभीर आवाज़ में हम मध्यकालीन बादशाह अकबर की छवि देखने लगते हैं. लेकिन इस किताब में अकबर की रूह खुलकर सामने आती है, लेखक ने इस किताब को लिखने के लिए अकबर पर लगभग 20 साल की रिसर्च की है, जिसे दास्तान की शक्ल में इस किताब में उतारा गया है. 

किताब के बारे में

यह किताब शुरू से शुरू नहीं होती है यानी यह किताब बादशाह अकबर के जन्म से प्रारंभ नहीं होती है, यह किताब अकबर की जिंदगी के एक बहुत ख़ास लम्हे से परवान चढ़ती है, जिस वक़्त उनपर एक कैफियत सवार थी, जिसे लेखक ने 'हालते अजीब' कहा है. 

इस किताब में शेख अबुल फजल के अकबरनामा की झलक दिखती है, तो कभी निजामुद्दीन अहमद के तबाकाते अकबरी और मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी के मुंतुखबुत्तवारीख का जिक्र आता है. लेखक ने इस किताब को लिखने के लिए मुगल वंश पर लिखी किताबों से लेकर दलपत विलास नाम तक के कई ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने पलटे हैं. पन्ने दर पन्ने रहीम, तानसेन, बनारसी दास जैसे वैष्णव कवियों का भी सामना अकबर से
होता है. 

यहां एक ऐसा अकबर नजर आता है जिसे धर्मों में काफी रूचि है वह इसलिए ईसाई पादरी, जैन संतों, सूफियों सबसे दीन पर चर्चा करता है. वह निराश पादरी से कहता है कि  इस बात से खुश रहिए कि मुझसे पहले आप कभी कोई बादशाह से दूसरे धर्म की बात भी नहीं कर पाते.

किताब की भाषा 

इस उपन्यास की भाषा आज की हिंदी नहीं है. लेखक के अनुसार उन्होंने उसी भाषा में लिखा है जो अकबर की ज़बान थी, कई पन्नों में दस - ग्यारह शब्द ऐसे दिखते है जिनका अर्थ समझे बिना वाक्य नहीं समझ आता. जैसे स्वर्गीय की जगह जन्नत आशियानी या फिरदौस मकानी शब्द जानकर खुद का शब्दकोश भी विस्तृत होता है. भाषा में फारसी पुट ज्यादा है, फारसी में ट, ड और ड़ की ध्वनि नहीं है, इसलिए लेखक ने कटिज़ेब शब्द को कतिज़ेब लिखा है. इसलिए पढ़ते - पढ़ते दिमाग पर थोडा जोर देना पढ़ता है लेकिन उसके बाद यह भाषा और शाजी ज़मां की किस्सागोई आपको बाँध लेती है. 

अकबर के पहले के दौर के लिए लेखक ने हिज्री और अकबर के समय के लिए इलाही सन का इस्तेमाल किया है. ऐसा इसलिए क्योंकि बाबर और हुमायूं के समय को हिज्री सन से नापा जाता था और अकबर ने अपने समय को इलाही सन से शुरू कराया था. इस किताब में लेखक ने उसी हिसाब से तारीखें दर्ज की हैं. 

अकबर में खास

किताब में वैष्णव कवि कुम्भनदास का जिक्र आता है कि किस तरीके से अकबर को कुंभन की कविता मिलती है और वह कवि को दरबार में आने का न्यौता देते हैं. कुम्भनदास गोवर्धन में रहते हैं और बेमन से सिर्फ बादशाह के हुक्म की तामील करने पहुंच जाते हैं. जब अकबर उन्हें पद गाने बोलते है तो कुम्भनदास गाते हैं:

"भक्तन को कहाँ सीकरी सो काम।
आवत जात पन्हैया टूटी बिसर गयो हरि नाम।।
जाको मुख देखे दुख लागै ताको करन परी परवान।।
कुम्भनदास लाल गिरधर बिन यह सब झूठौ धाम।।"

जाहिर है कि इसके बाद अकबर उन्हें जाने देते हैं.

इस किताब में जब भी अकबर का वर्णन होता है तो कुछ यूं होता है-" जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के दाहिने हाथ पर बुलंद दरवाजा था जो उनकी गुजरात फतह की यादगार था, लाल पत्थर और संगमरमर के इस बुलंद दरवाजे पर कुरान की आयतें लिखी थी. किताब के पन्नों में मुगल काल के काव्य, चित्रकला और संगीत को भी संवाद की शक्ल में उतारा गया है, कुछ कविताएं जो यहां मौजूद हैं-

जैसे अकबर अपने आखिरी वक्त की तन्हाई में एक दोहा कहता है जो उसने खुद लिखा था-

"पीथल" सूँ मजलिस गई तानसेन सूँ राग
हंसबो रमिबो बोलबो गयो बीरबर साथ।

दरबार की शानो शौकत का वर्णन मियां तानसेन के शब्दों में कुछ यूं बताया गया है-

चढ़ौ चिरंजीव साह अकबर साहन साह
बादशाह तख्त बैठो छत्र फिरै निसान।
दिल्लीपति तुम नहीं जी के नायब अति सुंदर सुलतान।

चारौं देस लिये कर जोर कमान,
राजा राव, उमराव सब मानत तेरी आन।
कहे मियां तानसेन सुनियो महाजान,
तुम से तुम ही और नाहीं दूजौ गुनीं जनन के राखत मान।।

अकबर को खुद की प्रशंसा पसंद थी. उसने दीन ए इलाही के जरिए सभी धर्मों का मेल करते हुए एक नया धर्म ही बना दिया था. अकबर को खुदा के समकक्ष बताते हुए शायर कासिमे काही का यह शेर देखिए:
 
शाहे दीन अकबर मोहम्मद का ऐसा रूतबा और रोब है,
अगर कुफ्र न होता तो उन्हें दूसरा खुदा कहता।

दूसरा शेर शायर मुल्ला शेरी का:

बादशाह इस साल पैगंबरी का दावा करेंगे,
गर खुदा ने चाहा तो वो अगले साल खुदा बन जाएंगे।

बच्चों की पसंदीदा कहानियों में आज भी अकबर-बीरबल जिंदा है. जब एक बार अकबर बीमार हुए तो हकीम के नब्ज देखते हुए बीरबल की पहेली सुनाई देती है-

"कर बोले कर ही सुने श्रवण सुने नहि ताहि
कहि पहेली बीरबल सुनिए अकबर साहि‌।।" 

यह पुस्तक पढ़ते हुए अकबर रहमदिल, जालिम, ईमानपसंद, लापरवाह, बहादुर, संवेदनाहीन, सच्चा मित्र सहित परत दर परत सबसे बढ़कर एक चलता फिरता इंसान नजर आता है. बाबर की मौत के समय पुस्तकालय की सीढ़ियों की डिटेलिंग, अकबर के जनाजे के समय चोर दरवाजे का खुलना और पार्श्व में आवाज की शाही दरवाजों से बादशाह गुजरते हैं, लाश नहीं. पढ़ते हुए लगता है कि किसी फिल्म का स्क्रीनप्ले पढ़ रहे हों.

आपकी अगर अकबर में रूचि हो तो किताब सिर्फ आपके लिए है. वैसे मौका भी है जब आप इस शानदार देश को बनानेवाले एक महान बादशाह के बारे में लिखी इस दिलचस्प और अनूठी किस्सागोई की किताब को पढ़ें. यह क़िताब राजकमल प्रकाशन ने छापी है.  


( इस समीक्षा के लेखक शुभम शर्मा पर्दा, जर्दा और गर्दा के शहर भोपाल के रहनेवाले हैं और उन्हें, पढ़ना, सुनना और घूमना पसंद है.) 

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