जन्मदिन पर विशेष: आधुनिक विश्व के बड़े विचारक और साहित्यकार
कई ऐसे मौके दिखे जब टैगोर और गांधी के विचार परस्पर
विरोधी नज़र आते हैं लेकिन दोनों में एक दूसरे के प्रति सम्मान में
कोई कमी नहीं दिखती है
- रितिक कुमार
मई 1941 का पहला सप्ताह था। टैगोर की कुछ समय से तबियत ठीक नहीं चल रही थी।
शांति-निकेतन में उनके शिष्य और मित्र उनका 80 वां जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रहे
थे। 6 मई को जन्मदिन से दो दिन पहले पूर्व छात्र शांतिदेव घोष आए थे। टैगोर
ने उनसे उनके 'पोकिश बोइशाख' योजना के बारे में पूछा। घोष ने अपनी पुस्तक 'रबीन्द्रसंगीत' में
लिखा है,“ मुझे समझ में आया कि वह चाहते थे कि संगीत और नृत्य के माध्यम से वह दिन
मनाया जाए।" टैगोर के शिष्यों और मित्रों ने उनपर दबाव बनाया कि वे अपने
जन्मदिन पर कोई गीत या कविता लिखें। टैगोर आलोचना के डर से राज़ी नहीं हुए,
उन्होंने बहुत टालने की कोशिश की, लेकिन चाहने वाले के ज़िद पर उन्हें लिखना पड़ा।
अपने जन्मदिन के 2 महीने बाद ही 7 अगस्त 1941 को उनका देहांत
हो गया। ऐसा कहा जाता है, यह उनका आख़िरी गीत था, जो उन्होंने बंगाली में लिखा था। इस गीत के ज़रिए उन्होंने अपने अंतिम समय की इच्छा को प्रकट किया
था:
हे नवीन फिर से दिखा दो
जन्म
का प्रथम शुभ छण ॥
तेरा
प्रकाश हो, कुहक भेद दो दर्शन
सूरज
सा बन ॥
रिक्तता
का वक्ष भेदो, अपने को करो उन्मोचन
व्यक्त
हो जीवन का जय
व्यक्त
हो तुझही में असीम का चिर विस्मय
उदय दिगंत
में शंख बाजे रे
उर में मेरे, चिर नूतन को पुकारा तूने
पच्चीस
बैशाख, हे नवीन ॥
रबीन्द्रनाथ टैगोर बड़े दार्शनिक, विचारक, कवि, संगीतकार, चित्रकार,
साहित्यकार थे। उन्होंने आठ साल की उम्र में अपने जीवन की पहली कविता लिखी थी।
सोलह साल की उम्र में उनकी पहली लघु कथा प्रकाशित हुई थी। उनकी ज़्यादातर रचनाएं
बंगाली और अंग्रेजी में हैं। बंगाली साहित्य में उनका बहुत बड़ा योगदान है।
बांग्लादेश और भारत का राष्ट्रगान भी उन्होंने ही लिखा था। उनके द्वारा लिखा 'जन
गण मन' भारत के राष्ट्रगान के रूप में मूल कविता का एक छोटा सा अंश है।
अपने जीवन में उन्होंने
हर तरह के गीत और कविताएं लिखी, जो उनके प्रकृति से प्रेम को दिखाती हैं। 'गीतांजलि'
के लिए नोबेल मिलने के बाद वह विश्वभर में प्रसिद्ध हुए जिस कारण उनकी कृतियों
का
दुनियाभर के कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनकी कृतियों में मुख्य तौर पर कर्म, त्याग, मानवता की झलक मिलती है।
टैगोर ने प्रेम पर भी खूब लिखा है।
टैगोर
की एक ऐसी ही कविता जो बताती है कि जब प्यार में दर्द है, तो प्यार क्यों है?
अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल
दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी
मूर्खता है यह
कि चूँकि
हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए
उसके दिल पर
दावा
बनता है, हमारा भी
रक्त
में जलती इच्छाओं और आँखों में
चमकते
पागलपन के साथ
मरुस्थलों का यह बारंबार चक्कर क्यों...
टैगौर का व्यक्तित्व: ऋषि और गुरुदेव की तरह
रबीन्द्रनाथ टैगोर एक बहुत ही शान्त और निश्च्छल स्वभाव के व्यक्ति थे।
उनके लिए देशों की सीमाएं, भाषाएं, सभ्यताएं, मान्यताएं बिल्कुल भी बाधा नहीं थीं। वे विश्व बंधुत्व और मानवतावाद को सबसे आगे रखकर देखते थे और इसी में
मानव का कल्याण समझते थे। पश्चिम में उन्हें 'पूरब के
रहस्यवादी' के रूप में देखा जाता था।
जापानी
साहित्यकार यासुनारी कवबाता के मुताबिक, जब वे विद्यालय में तभी उन्होंने टैगोर को
देखा था। रबीन्द्रनाथ टैगोर एक बहुत खूबसूरत इंसान थे। उनकी बड़ी दाढ़ी, ललाट के दोनों तरफ लटके लंबे
केश और भारतीय पोशाक, उन्हें बिल्कुल 'प्राचीन प्राच्य जादूगर' की छवि देती थी।
टैगोर को देखकर किसी भारतीय के मन में जो छवि उभरती है, वो भारत के पुराने ऋषियों
की तरह लगती है। जो हर वक़्त अपनी साधना में लीन रहता है। टैगोर ने प्रेम, समाज, देश, विश्व
के अलावा ईश्वर से जुड़ी कई कविताएं लिखी हैं जिसमें वो ईश्वर से कुछ मांगते नहीं हैं बल्कि
बस सही दिशा दिखाने की बात करते हैं। उनके अंदर की बुराइयों को मिटाने की बात करते
हैं। ऐसी ही उनकी एक कविता है:
देव!
डुबा दो अहंकार सब, मेरे आँसू-जल में।
अपने
को गौरव देने को, अपमानित करता अपने को,
घेर स्वयं
को घूम-घूम कर, मरता हूं पल-पल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब, मेरे आँसू-जल में।
अपने
कामों में न करूं मैं, आत्म-प्रचार प्रभो;
अपनी
ही इच्छा मेरे, जीवन में पूर्ण करो।..
20वीं
शताब्दी के शुरुआती सालों में टैगोर की लेखनी अमेरिका और यूरोप में काफ़ी प्रसिद्ध हुई।
उनकी लगभग 200 किताबों में बंगाल, भारत और विश्व की चर्चा और चिंता दिखती है। 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना उनके
उसी विश्वबंधुत्व, प्रकृति से प्रेम और शिक्षा पर अलग नजरिये को दर्शाता है। टैगोर
ने अपने जीवन की ज्यादातर रचनाएं यहीं रची थी।
टैगोर के विचार: मानवता के पुजारी
टैगोर बहुत बड़े विचारक थे, भारत और दुनिया के अलग-अलग विषयों और
समस्याओं पर उनके काफ़ी अलग विचार थे जो पूरी मानव जाति को लक्षित थे। अपने
समकालीन दार्शनिकों और विचारकों से उनके कई संवाद हैं। दुनियाभर के कई
देशों और विश्वविद्यालयों में उन्होंने अपने विचार रखे थे जिसकी उन्हें कई मौकों पर आलोचना और समालोचना भी झेलनी पड़ी थी लेकिन वे डिगे नहीं. कई बार वे अपने ज़वाबों को अपनी गीतों और कविताओं के जरिये से लोगों के सामने रखते थे।
टैगोर कर्म की प्रधानता पर हमेशा ज़ोर देते थे। वे अपने एक लोकप्रिय गीत के जरिये विपरीत परिस्थितियों में भी इंसान को
अपने पथ पर चलते रहने के लिए कहते हैं। यह प्रेरक गीत आज भी बहुत गाया जाता है:
यदि तेरी पुकार सुन के कोई न आए
तो अकेला चलो रे।
यदि
कोई न बोले, बोल रहें चुपचाप, डरें सब लोग,
जब कोई
न बोले बोल,
तब मन
में भर कर प्राण वायु, तू अपने मुख को खोल,
तू अपने
मन की बोल, अभागे, अपने मन की बोल
तो अकेला
चलो रे..
राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर उनके विचार
टैगोर किसी भी तरह के सम्प्रदायवाद के सख़्त विरोधी थे। वे कुप्रथाओं
और अन्धविश्वसों के भी बड़े विरोधी थे। राष्ट्रवाद को और भी संदेह की नज़रों से
देखते थे जिस कारण ब्रिटिश हुकूमत से लड़ाई के दौरान भारत में जन्मे राष्ट्रवाद की भावना का भी उन्होंने विरोध किया था। इसे लेकर गांधी और उनमें असहमति भी थी।
उनका
मानना था कि इतिहास से रोमानी जुड़ाव, भारत को अतीत में बांधने जैसा है। वो यह भी कहते
थे कि भारत के लोग असली राजनैतिक स्वतंत्रता को नहीं जानते थे. अंग्रेजी विचारकों और
अंग्रेजी क़िताबों से ही वो असली राजनीतिक स्वतंत्रता को समझ पाए। 1917 में उन्होंने
एक जगह यह भी कहा था कि खुद को मास्टर के भरोसे छोड़ना ख़तरनाक है, चाहे वो 'ब्राह्मण'
हो या 'अंग्रेज'।
एक भाषण
में टैगोर ने कहा था, ‘राष्ट्रवाद का राजनीतिक और आर्थिक संगठनात्मक आधार उत्पादन में
बढ़ोतरी और मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल करने का प्रयास है। राष्ट्रवाद
की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि और राजनैतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल
की गई है। शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और
भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है।'
टैगोर अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने बंगाल के विभाजन का कड़ा
विरोध किया था। अंग्रेजों के अत्याचार पर भी देश-विदेश में खुलकर बोले थे। जलियांवाला नरसंहार के बाद तो उन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश सरकार की दी हुई नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी बल्कि अपने समकालीन लेखकों, विचारकों को कई पत्र लिखे थे,
लेकिन वो राष्ट्रवादी आंदोलन के भी बड़े आलोचक थे।
जगदीश चन्द्र बोस की पत्नी अबला बोस को लिखे एक पत्र
में उन्होंने कहा था, "देशभक्ति हमारी अंतिम आध्यात्मिक शरण नहीं हो सकती,
मेरी शरण मानवता है। मैं हीरे की कीमत पर कांच नहीं खरीदूंगा और जब तक मैं जीवित रहूंगा, मानवता पर देशभक्ति की
जीत नहीं होने दूंगा"। उनके उपन्यास 'घर और दुनिया' इसी के बारे में बहुत कुछ कहता है।
शिक्षा पर उनके विचार: नवाचार के उन्मेषक
अमर्त्य सेन की क़िताब ' द अरगुमेंटटीव इंडियन' के अनुसार, शिक्षा को
लेकर टैगोर का मानना था कि यह सामाजिक विकास का केंद्र है। बुनियादी शिक्षा का
अभाव भारत में सामाजिक आर्थिक समस्या का मौलिक कारण है। वो कहते थे कि भारत का
सबसे बड़ा दुख, जो भारत के हृदय में है, उसका आधार शिक्षा का ना होना है। यही वज़ह है जिसके कारण जाति का बंटवारा, साम्प्रदायिकरण,
सामाजिक, आर्थिक समस्या देश में हावी है।
टैगोर यह भी कहते थे, पूरे देश में ना
सिर्फ शिक्षा ग्रहण करने के बड़े अवसर होने चाहिए, बल्कि शिक्षा सुगम, सरल, सजीव और
आनंददायक होनी चाहिए। उन्होंने इसपर बहुत कुछ लिखा है कि विद्यालय कैसे होने
चाहिए, पढ़ाई का क्या तरीका होना चाहिए, क्या पद्धति होनी चाहिए ताकि विद्यालय
उत्पादक हो। शांतिनिकेतन में विद्यालय की स्थापना उन्होंने इसी उद्देश्य से की थी जहां पढ़ाई की एक अलग ही पद्धति का पालन किया जाता है।
वर्तमान समय में जैसी
कॉलेज व्यवस्था है, उससे वो बिल्कुल असहमत थे। वो छात्रों को किसी बंधन में नहीं
बांधना चाहते थे। परीक्षा की अनिवार्यता को भी वो आवश्यक नहीं समझते थे। वो
व्यक्तित्व निर्माण को पढ़ाई का मूल उद्देश्य समझते थे। वे लोगों को तार्किक बनाना चाहते थे, उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण भरना चाहते थे, ताकि पाखंड और अंधविश्वास ख़त्म हो।
मानव स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार
टैगोर के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण था कि कोई भी व्यक्ति अपनी आज़ादी के
साथ रहे। उनके राष्ट्रवाद, अन्तर्राष्ट्रवाद, राजनीति, संस्कृति, आधुनिकता सबको
इसी आज़ादी से जोड़कर देखा जा
सकता है। स्वतंत्रता को लेकर उनके विचार 'गीतांजलि' में संग्रहित उनकी एक मशहूर कविता से समझा जा सकता है:
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की
दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों, कर्मों की गति फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा ।
मशहूर फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने एक बार कहा था कि टैगोर की चित्रकारी
में एक गज़ब की स्वतंत्रता झलकती है। यह रबीन्द्रनाथ टैगोर के भाव हैं जो चित्रों
के माध्यम से सामने आते हैं। टैगोर का मानना है कि जीवन में हर वक़्त 'मास्टर' की
ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। सब कुछ हमारे दिमाग में है, उससे पूछना चाहिए। टैगोर इस
बात पर जोर देते हैं, ''अतीत की किसी प्रतिबद्धता को अपने समकालीन समय में संशोधित
किया जा सकता है।"
इस पर गांधी जी से उनकी एक दिलचस्प चर्चा भी है। यहाँ तक कि गांधी जी के चरखा चलाने के अभियान को टैगोर व्यक्ति विशेष की स्वतंत्रता पर छोड़ना
चाहते थे। वो आधुनिकता के बड़े समर्थक थे, मानव कल्याण के लिए हर उस नए खोज़ को
अपनाना चाहते थे, जो देशों की परिधि से बहुत बाहर है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी
टैगोर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी काफ़ी दिलचस्पी रखते थे,
शांतिनिकेतन में इसकी पढ़ाई भी होती है। 1926 में वो मुसोलिनी से भी मिले थे। वो
रूस के बारे में बहुत गहराई से जानकारी रखते थे। रूस में भी उन्हें ख़ूब पढ़ा गया।
1930 में रूस के एक दैनिक समाचार पत्र 'इज़वेस्टिया' में उन्होंने साक्षात्कार दिया
था जिसमें उन्होंने रूस के अंदर आज़ादी के अवरोधों के ऊपर काफी आलोचनात्मक विचार
रखे थे। हालांकि यह साक्षात्कार 1988 में जाकर छपा था। भारतीय अंग्रेज शासक रूस में
टैगोर के छवि को धूमिल करना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने वहां के अधिकारियों का भी
सहयोग लिया लेकिन वह नहीं हो सका।
1930
में जब वे रूस गए थे, वहां की शिक्षा व्यवस्था उन्हें बहुत पसंद आई। ग़रीबी हटाने और
सामाजिक असमानता को कम करने के लिए जो प्रयास दिखे, उन्हें वे काफी पसंद आए। उन्होंने
इस बात की तुलना भी की थी कि शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने पिछले 150 साल में जितना
विकास नहीं किया था, रूस ने कुछ बर्षों में कर लिया था।
गांधी और टैगोर के विचार
गांधी और टैगोर एक दूसरे का काफ़ी सम्मान करते थे, लेकिन वैचारिक रूप
से काफ़ी भिन्न थे। एक ओर गांधी जहां राष्ट्रवाद की बात करते थे, वहीं टैगोर
राष्ट्रवाद को मानवता के लिए ख़तरा मानकर ख़ारिज कर देते थे। गांधी जहां असहयोग
आंदोलन चलाकर अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर करना चाहते थे, वहीं टैगोर के
मुताबिक असहयोग एक नकारवादी विचार था और इससे मानवता में विश्वास की नीति की भी अनदेखी
होती थी। टैगोर ने असहयोग को भी ‘एक प्रकार की हिंसा’ करार दिया था।
टैगोर ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और उन्हें जलाने की गांधी की मुहिम का भी विरोध किया था। उन्होंने इसे ठेठ अर्थशास्त्रीय नज़रिए से देखा और कहा
कि चूंकि भारत की एक बड़ी आबादी के पास पहनने को वस्त्र नहीं हैं, इसलिए उसे जो भी
वस्त्र मिलता है उसे अपनाना चाहिए। जबकि गांधी इसे न केवल अपने ही अर्थशास्त्रीय
नज़रिए से देख रहे थे, बल्कि इसे आत्म-शुद्धिकरण का तरीका मान बैठे थे।
गांधी जहाँ चरखा चलाने के लिए, हर व्यक्ति को कहते थे, तो वहीं टैगोर व्यक्ति
की स्वतंत्रता पर इसे छोड़ देना चाहते थे। गांधीजी द्वारा चरखा और खादी के कथित
महिमामंडन की आलोचना करते हुए टैगोर ने सितंबर, 1925 में एक लंबा लेख लिखा था
जिसका शीर्षक था- ‘दी कल्ट ऑफ चरखा’। महात्मा गांधी ने पांच नवंबर, 1925 के ‘यंग
इंडिया’ में ‘कवि-गुरु और चरखा’ शीर्षक से एक लेख लिखकर उन आलोचनाओं का जवाब दिया
था।
दोनों विचारों में कितनी भिन्नता थी, इससे जुड़ी एक
दिलचस्प कहानी है: एक मौके पर टैगोर शांतिनिकेतन गए थे। एक औरत ने उन्हें ऑटोग्राफ
पुस्तक दिया। उसमें गांधी जी ने लिखा 'कभी भी कोई वादा जल्दबाज़ी में नहीं करें,
अगर अपने एक बार वादा कर दिया तो अपने जीवन के किसी भी क़ीमत पर उसे ज़रूर पूरा करें।'
जब टैगोर ने यह देखा तो वे उत्तेजित हो उठे। फिर उन्होंने उसी पुस्तिका में बंगाली
में एक छोटी सी कविता लिखी। उसके बाद आख़िर में अंग्रेजी में लिखा 'अपने वादे से
मुकर जाना चाहिए, यदि यह ग़लत साबित होता है।'
ऐसी ही एक घटना है 1934 की जब बिहार में भूकंप आया था। इस भूकंप के
बारे में गांधी ने यह कहा था, 'यह
दलितों के प्रति छुआछूत के पाप का ईश्वरीय दंड है।' जिसके बाद टैगोर ने इसे अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता का नमूना माना। इसपर उन्होंने गांधी जी को एक लेख
लिखा। गांधी जी ने अपने जवाब के साथ इस लेख को 'यंग इंडिया' में छापा था। गांधी के
लेख का शीर्षक 'अंधविश्वास बनाम श्रद्धा' था।
ऐसे कई मौकों पर टैगोर गांधी की आलोचना करते दिखते हैं, और गांधी बहुत
सरलता से उसका जवाब देते हैं। कई ऐसे भी भाषण मिलते हैं, जो दोनों एक दूसरे के लिए
काफ़ी भावपूर्ण है। रवींद्रनाथ की मृत्यु के बाद भारत में ब्रिटिश जेल में बंद जवाहरलाल
नेहरू ने 7 अगस्त 1941 को अपनी जेल डायरी में लिखा: गांधी और टैगोर। एक दूसरे से पूरी तरह से अलग हैं, दोनों भारत
के लिए विशिष्ट हैं, दोनों भारत के महापुरुषों की लंबी कतार में हैं....यह किसी एक
गुण के कारण नहीं है बल्कि 'टाउट एन्सेम्बल' के कारण है, मैंने महसूस किया कि आज दुनिया के महापुरुषों
में गांधी और टैगोर मानव के रूप में सर्वोच्च थे। मुझे उनके साथ रहने का सौभाग्य
मिला।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि गांधी ने ही टैगोर को 'गुरुदेव' की
उपाधि दी थी और टैगोर ने ही गांधी को 'महात्मा' कहा था। गांधी को अफ्रीका से भारत
लाने में टैगोर का भी हाथ है।
पूरे विश्व में आज जिस तरह तरह राष्ट्रवाद का एक संकीर्ण विचार फैल
रहा है, वह एक देश में दूसरे देश के प्रति ईर्ष्या फैला रहा है। पूरी दुनिया में जहाँ
आतंकवाद और सम्प्रदायवाद हावी हो रहा है, ऐसे में, टैगोर के विचारों को पढ़ना बहुत
ज़रूरी है। मानवता को बचाने की लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए, उनके विचारों को आत्मसात
करने की ज़रूरत है और प्रेम के रास्ते पर चलकर खुद को आज़ाद करने की ज़रूरत है। टैगोर
लिखते हैं:
मेरे प्यार की खुशबू
वसंत
के फूलों सी है
चारों
और उठ रही है।
यह पुरानी
धुनों की
याद दिला
रही है
अचानक
मेरे हृदय में
इच्छाओं
की हरी पत्तियां
उगने
लगी हैं
मेरा प्यार पास नहीं है
पर उसके
स्पर्श मेरे केशों पर हैं
और उसकी
आवाज़ अप्रैल के
सुहावने
मैदानों से फुसफुसाती आ रही है।
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