Friday 1 May 2020

लॉकडाउन ने असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को भुखमरी की कगार तक पहुँचा दिया

संकट के पहले महीने में ही विश्वभर में असंगठित श्रमिकों की आय में 60 फ़ीसदी की गिरावट आई है। वैकल्पिक आय के स्रोतों के बिना इन श्रमिकों और उनके परिवारों के पास जीवित रहने का कोई साधन नहीं है


अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर विशेष


रितिक चौधरी


जब भी कोई छोटी-बड़ी आपदा आती है, उसका पहला ख़ामियाज़ा मज़दूर वर्ग को भुगतना पड़ता है। आपातकाल का पहला असर मज़दूरों के पेट पर पड़ता है। उसे दो वक़्त की रोटी के लिए तरसना पड़ता है, तड़पना पड़ता है। इसका एक ताज़ा उदाहरण बिहार के बेगूसराय के रामजी महतो हैं। रामजी महतो दिल्ली से पैदल ही बिहार के लिए चल पड़े थे। जेब में पैसे नहीं थे कि वह रास्ते में कुछ खा-पी सकते। भूखे पेट बनारस आते-आते उनकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डॉक्टर ने बताया कि वह कई दिन से भूखे थे। जब उनके घर वालों से संपर्क किया गया कि क्या वे शव को लेने आएंगे, तब परिवार वालों ने बताया कि उनके पास इतने भी पैसे नहीं हैं कि वो वहां सकें। इसी से समझा जा सकता है कि देश-दुनिया के मज़दूर किस दौर से गुज़र रहे हैं।

दुनियाभर के देश मज़दूरों की स्थिति में बड़े सुधार का दावा करते हैं, लेकिन सच्चाई क्या है, कोरोना काल ने बता दिया है। मज़दूर तो हैं, लेकिन सरकार को पता नहीं कितने मज़दूर हैं ! संगठित और असंगठित क्षेत्र के चक्कर में मज़दूरों की जान जा रही है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट


अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़, भारत में कम से कम 90 फीसदी लोग गैर-संगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। ये लोग सिक्योरिटी गार्ड, सफाई करने वाले, रिक्शा चलाने वाले, रेहड़ी लगाकर सामान बेचने वाले, कूड़ा उठाने वाले और घरों में नौकर के रूप में काम करते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोगों को पेंशन, बीमार होने पर छुट्टी, पेड लीव और किसी भी तरह की बीमा नहीं होता है। कई के बैंक अकाउंट तक नहीं हैं, जिस कारण बहुत सारी सरकारी सुविधाओं से ये वंचित ही रहते हैं। 

ऐसे में, इनकी और इनके परिवार की ज़िंदगी उसी नकद आमदनी पर टिकी होती है, जिसे ये पूरे दिन काम करने के बाद घर लेकर आते हैं। इनमें से कई सारे प्रवासी मजदूर होते हैं। इसका मतलब ये है कि ये असल में किसी दूसरे राज्य के निवासी हैं और मज़दूरी करने कहीं और जाते हैं। 


अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने ही हाल ही में बताया है कि कोविड-19 के प्रकोप के कारण वैश्विक स्तर पर काम के घंटों में बड़ी गिरावट आई है। दुनियाभर के 200 करोड़ अनौपचारिक श्रमिकों में 160 करोड़ श्रमिक अपनी आजीविका के नष्ट होने के तत्काल खतरे से गुज़र रहे हैं। ये श्रमिक पूरी दुनिया के कार्यबल का आधा हैं। दुनियाभर में बढ़ते लॉकडाउन और पूर्व संकटों के आधार पर एक अनुमान यह भी है कि अमेरिका में दूसरी तिमाही तक काम के घंटे में 12.4 फ़ीसदी की कमी सकती है। यूरोप और मध्य एशिया में यह 11.8 फ़ीसदी हो सकता है। 

दुनिया भर के अन्य देशों में भी इसके 9.5 फीसदी रहने का अनुमान है जिसका सीधा और सबसे गहरा असर मज़दूरों के जीवन पर पड़ेगा। महामारी से उत्पन्न आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप, पूरी दुनिया के 330 करोड़ वैश्विक कर्मचारियों में 160 करोड़ अनौपचारिक श्रमिकों को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। संकट के पहले महीने में ही विश्वभर में असंगठित श्रमिकों की आय में 60 फ़ीसदी की गिरावट आई है। यह गिरावट अफ्रीका और अमेरिका में 81 फ़ीसदी और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में 21.6 फ़ीसदी और यूरोप और मध्य एशिया में 70 फ़ीसदी है। वर्तमान स्थिति यही बता रही है कि वैकल्पिक आय स्रोतों के बिना इन श्रमिकों और उनके परिवारों के पास जीवित रहने का कोई साधन नहीं है।

भारतीय श्रमिकों का हाल


2011 की जनगणना के अनुसार, पिछले एक साल के भीतर 35 लाख प्रवासी मजदूर एक राज्य से दूसरे राज्य में गए। इसकी मुख्य वज़ह आर्थिक थी। साल 2001 और 1991 की जनगणना के अनुसार, यह संख्या क्रमश 22 लाख और 14 लाख थी। यानी अपने राज्यों में रोज़गार नहीं होने के कारण ये मज़दूर लगातार दूसरे राज्य कमाने जा रहे हैं और पलायन की यह दर हर साल बढ़ती ही जा रही है। कोरोना संकट के इस दौर में इनके पास अब ना तो काम है और ना ही पैसे दूसरे राज्यों में और असंगठित क्षेत्रों में होने के कारण वे सरकारी मदद से भी दूर हैं, जिस कारण वे जहाँ-तहाँ भूखे-प्यासे फँसे हुए हैं।

मज़दूरों की मुख्य समस्याएं


इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है, 30 मार्च से 5 अप्रैल के दौरान बेरोजगारी दर में 23.4 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। कोविड-19 के प्रकोप से निपटने के लिए लॉकडाउन के कारण श्रम भागीदारी दर 36 फ़ीसदी तक गिर गई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा हाल में जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि मार्च के पूरे महीने में बेरोजगारी 43 महीने के उच्च स्तर पर 8.7 फ़ीसदी हो गई। जबकि श्रम भागीदारी दर 41.9 प्रतिशत तक गिर गई। सीएमआईई ने कहा कि फरवरी में श्रम भागीदारी दर 42.6 प्रतिशत जबकि मार्च  2019 में 42.7 प्रतिशत थी। इसी तरह फरवरी में बेरोजगारी दर 7.7 जबकि जनवरी में यह 7.1 प्रतिशत दर्ज की गई थी। एक अनुमान के मुताबिक देश में कार्यरत 41 लाख अस्थायी कर्मचारियों पर अगली दो तिमाही सबसे ज्यादा भारी पड़ने वाली है।

भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र के मुख्य कार्यपालक अधिकारी महेश व्यास कहते हैं-  "यह पहली बार है कि श्रम भागीदारी दर 42 फीसदी से भी नीचे गई हैश्रम भागीदारी गिरने का सबसे बड़ा कारण श्रम बल में नौ फ़ीसदी की तेज गिरावट है। इस कारण, जनवरी 2020 में जहां श्रमिकों की भागीदारी 44 करोड़ 30 लाख थी, वो मार्च महीने तक 43 करोड़ 40 लाख हो गई। श्रम बल में वे सभी लोग शामिल हैं, जिनके पास रोजगार था और वो लोग भी, जो बेरोजगार हैं, लेकिन सक्रिय रूप से नौकरियों की तलाश में हैं। जनवरी और मार्च के बीच रोजगार की संख्या 41 करोड़ 10 लाख से 39 करोड़ 60 लाख तक रह गई और बेरोजगारों की संख्या 3 करोड़ 29 लाख से बढ़कर 3 करोड़ 80 लाख हो गई।

अधिकांश प्रवासी श्रमिक अपनी मासिक आय का 25 से 50 फ़ीसदी अपने परिवारों को भेजते हैं, जो अब उनके लिए कमा पाना भी मुश्किल है। बिहार, उड़ीसा के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को भविष्य में बड़े स्तर पर पैसे की तंगी से गुज़रना पड़ेगा। साल 2017-18  के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2012-18 के दौरान ग्रामीण-शहरी प्रति व्यक्ति व्यय की खाई बहुत चौड़ी हुई है। 2011-12 में ग्रामीण प्रति व्यक्ति व्यय 1,430 रुपये था, जो  साल 2017-18 में घटकर 1,304 रुपये हो गया, यह 8.8 फ़ीसदी की गिरावट है। शहरी भारत में प्रति व्यक्ति व्यय 2,630 रुपये से बढ़कर 3,155 रुपये हो गया, जिसमें 2.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। एनएसएस के आंकड़ों से पता चलता है कि 2011-12 और 2017-18 के बीच ग्रामीण गरीबी लगभग चार फ़ीसदी वृद्धि के बाद 30 फ़ीसदी हो गई। जबकि शहरी गरीबी नौ फ़ीसदी हो गयी।

मदद पहुँचाने के रास्ते हैं


सार्वभौमिक भोजन और नकद वितरण की अभी तत्काल आवश्यकता है, जो बहुत ज़रूरी है। ऐसी कई सारी रिपोर्टें हैं, जिसमें प्रवासी श्रमिक, स्थानीय कार्यकर्ता, किसान, देहाती, मछुआरे, विक्रेता, रैगपिकर्स, और निराश्रित लोग अत्यधिक कठिनायों का सामना कर रहे हैं। असल में उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है। लॉकडाउन के कारण उनके लिए आजीविका का एक अभूतपूर्व मानवीय संकट पैदा हो गया है। कम बचत वाले लाखों परिवारों के पास आने वाले हफ्तों में भोजन और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है। कोरोना का ख़तरा उनके लिए संक्रमण से ज़्यादा भुखमरी का है।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इस संकट से निकलने के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह 10 किलो अनाज (गेहूं या चावल) का सार्वभौमिक प्रावधान होना चाहिए। इसका लाभ लगभग 80 प्रतिशत आबादी को मिलेगा। 130 करोड़ की आबादी के लिए छह महीने तक 62.4 मिलियन टन अनाज की आवश्यकता होगी। 

यह अनुमानित आँकड़ा है और वास्तविक आवश्यकता शायद कम होगी। वर्तमान समय में एफसीआई 24 मिलियन टन के बफर स्टॉक मानदंडों की तुलना में 77 मिलियन टन खाद्यान्न भंडार रखता है। मौजूदा रबी फसल से 40 मिलियन टन की खरीद की उम्मीद है। उम्मीद के मुताबिक रबी खरीद लक्ष्य पूरा होने पर सरकार आसानी से 62.5 मिलियन टन के खाद्यान्न के मुफ्त वितरण की अनुमति दे सकती है और फिर भी 54.5 मिलियन टन का खाद्यान्न भंडार उसके पास बना रहेगा

इसके अलावा, सरकार तीन महीने के लिए प्रति माह 7,000 रुपये प्रति माह नकद हस्तांतरण का उपाय कर सकती है, यह मानते हुए कि 80 प्रतिशत परिवारों को यह प्राप्त होगा। प्रति व्यक्ति पांच लोगों के साथ यह व्यय 4,36,800 करोड़ रुपये होगा। इस तरह देश की बहुत बड़ी आबादी को भुखमरी से बचाया जा सकता है।

वैसे नकद हस्तांतरण का मामला अधिक जटिल है। ग्रामीण भारत में, 'महात्मा गांधी रोजगार गारंटी' कार्ड और पेंशन अधिकांश घरों को कवर करते हैं और बैंक भुगतान की अनुमति देते हैं। शहरी गरीबों में ज्यादातर प्रवासी, अनुबंध और आकस्मिक श्रमिक, छोटे और मध्यम उद्यमों में काम करने वाले, घरेलू श्रमिक, सड़क विक्रेताओं जैसे स्वयं-नियोजित व्यक्ति, सेक्स श्रमिक और रैगपिकर शामिल हैं। 

शहरी गरीबों का कोई व्यापक रिकॉर्ड नहीं है क्योंकि राज्य ने अधिकांश शहरी श्रमिकों के लिए श्रम अधिकार या सामाजिक सुरक्षा अधिकार सुरक्षित करने के लिए कोई प्रभावी तंत्र स्थापित नहीं किया है। उनके पास कानूनी तौर पर मान्यता, निर्माण कार्यकर्ताओं के अनिवार्य पंजीकरण जैसा कुछ भी नहीं हैं। तो ऐसे लोगों को भी सरकार को नकद हस्तांतरण करना पड़ेगा, जो रिकॉर्ड में नहीं है। सरकार को तत्काल हर शहरों में उन्हें चिन्हित कर राहत पहुँचाना होगा। उनके लिए संयुक्त रूप से भोजन और राशन की व्यवस्था करनी होगी। 

हमने हाल में देखा भी है कि दिल्ली के मज़दूर यमुना किनारे रह रहे हैं क्योंकि मकान का किराया देने के पैसे इनके पास नहीं हैं। सरकार उन तक मदद पहुंचा नहीं रही। ऐसे में, वो हज़ार किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय कर रहे हैं। वो सोचते हैं कि गाँव पहुंचने के बाद उन्हें नमक-रोटी तो मिल ही जाएगी। लेकिन यह कब तक नसीब होगा, यह भी देखने वाली बात होगी? आने वाले समय में यदि लॉकडाउन बढ़ता है, तो इन मज़दूरों की समस्याएं बढ़ेंगी। देश और सरकार को तुरंत इनके बारे में सोचने की ज़रूरत है। हमारे गोदाम अनाज से भरे पड़े हैं, सो लॉकडाउन में कोई गरीब कम के कम भूख ने ना मरे।

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