फ़िल्म समीक्षा
ऋषभ देव
‘ उसने मुझे मारा, पहली बार नहीं मार सकता, एक बार भी नहीं। बस इतनी-सी बात है।’
ये डायलॉग थप्पड़ मूवी की पूरी कहानी बताता है। इस मूवी में पति अपनी पत्नी पर हाथ उठा देता है और उस औरत को कहा जाता है कि जाने दो, कोई बड़ी बात नहीं है। गलती उस पुरूष की नहीं है, जिसने थप्पड़ मारा। गलती है लड़की की मां की, जिसने कहा कि औरतों को बर्दाश्त करना चाहिए। गलती है इस समाज की, जिसने बताया कि थप्पड़ मारना मर्द का हक है। थप्पड़ की कहानी इसी हक को झुठलाने का काम करती है।
फिल्म शुरू होती है कुछ किरादारों से, जो फिल्म की भूमिका बनाने का काम करते हैं। उसके बाद दिखाई देता है एक परिवार। जिसमें अमू तापसी पन्नू अपने पति और सास के साथ रहती है। अमू हाउसवाइफ हैं और उसका पति विक्रम बड़ी-सी कंपनी में काम करता है, जिसे ऑफिस से लंदन भेजा जा रहा है। पति के इस सपने को अमू अपना मानकर बहुत खुश होती है। लंदन जाने की खुशी में पार्टी होती है और उसी पार्टी में विक्रम, अमू को थप्पड़ मार देता है। अमू हर रोज की तरह अगले दिन घर के सारे काम कर रही थी। मगर अब उसके चेहरे से हंसी गायब हो गई थी और एक टीस आ गई थी।
विक्रम उस थप्पड़ के लिए न ही माफी मांगता है और न ही उसे अपनी गलती का एहसास है। फिल्म में एक जगह विक्रम, अमू से कहता है- ‘जिस कंपनी के लिए आप सब कुछ दो। जब पता चले कि वहां आपकी वैल्यू ही नहीं है, तो वहां कैसा लगता है?’ विक्रम बोल ये अपने लिए रहा था और अमू को महसूस हो रहा था कि ये बात खुद उसी पर लागू हो रही है। कुछ दिनों तक मायूसी का माहौल घर में चलता रहता है। फिर एक दिन अचानक अम्मू पति का घर छोड़कर पिता के घर आ जाती है।
आखिर ये हुआ ही क्यों ?
फिल्म में एक सीन है, जब विक्रम अपने ससुर से बात कर रहा होता है। तब अमु के पिता कहते हैं- ‘सवाल ये नहीं है कि अब क्या, उससे बड़ा सवाल ये हुआ क्यों?’ अनुभव सिन्हा की ये फिल्म उन छोटी-छोटी बातों को बताती है, जिनको हम सब बहुत सामान्य मानते हैं। वो थप्पड़ सिर्फ एक थप्पड़ नहीं था। उस थप्पड़ से गिरा था उस औरत का सम्मान, उस थप्पड़ ने छीनी थी औरत की खुशी। इस एक थप्पड़ के बहाने अनुभव और भी बहुत सारी कहानियों को साथ-साथ दिखाते हैं। एक औरत जो अमू के घर काम करती है, एक औरत जो उसकी मां है, एक औरत जो उसकी सास हैं। सब कहीं न कहीं, किसी न किसी लेवल पर अपनी खुशी को छोड़कर फैमिली की खुशी का ध्यान रखती हैं। कुछ अपने रिश्ते को बचाने के लिए चुप रहती हैं। हम अपने आसपास देखें तो हमें अपने समाज में भी यही दिखता है। मूवी में एक जगह तापसी पन्नू कहती हैं- ‘मुझे खुशी और सम्मान चाहिए। शायद इस समाज ने सोचा ही नहीं कि पत्नी की भी अपनी इच्छाएं और खुशियां हो सकती हैं।’
हमारे समाज में जब पत्नी के साथ कुछ गलत होता है, तो आसपास की महिलाएं ही उसे कदम बढ़ाने से रोकती हैं। इस मूवी में भी अमू को उसकी मां और सास रिश्ता बचाने को कहती हैं। फिल्म में ये बेहद संजीदगी से बताया गया है कि महिलाएं अपने परिवेश और परंपरावादी सीख की वजह से उस रिश्ते को ढोती हैं। फिल्म आगे बढ़ती है तो कुछ कानूनी पेंच आते हैं। तलाक और बच्चे की कस्टडी पर दांव लगता है। अपने को सही साबित करने के लिए एक-दूसरे पर झूठे आरोप लगते हैं। फिर अनुभव सिन्हा की हर फिल्म की तरह ही इसमें भी एक मोनोलॉग होता है।
तापसी इस मोनोलाॅग में उस थप्पड़ और सबकी चुप्पी पर सवाल उठाती हैं। वो पूछती है कि आखिर क्यों किसी ने विक्रम को नहीं कहा कि उसकी गलती है? ऐसी ही बहुत सारे सवाल उठाती है ये फिल्म। फिल्म खत्म होती है एक अच्छे अंत से। बाकी महिलाएं जो चुप थीं और ये सब सह रही थी, वो अपने आपको घुटन से बाहर निकाल फेंकती है। इसके अलावा फिल्म में बाप-बेटी का रिश्ता बेहद अच्छे तरीके से दिखाया गया है। पिता को बेटी के लिए कैसा होना चाहिए, उसको पैमाना बनाती है ये मूवी।
किरदार
तापसी पन्नू ने अपनी संजीदगी और गंभीरता से इस कहानी को बेहद सफल बनाया है। उनके अलावा मूवी में उनके पति का किरदार निभाया है पैवल गुलाटी ने। पिता बने हैं कुमुद मिश्रा, जिन्होंने लाजवाब काम किया है। इसके अलावा रत्ना पाठक और तन्वी आजमी भी हैं। दीया मिर्जा और मानव कौल थोड़ी-थोड़ी देर के लिए स्क्रीन पर दिखती हैं।
यह फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों के दिमाग में चलती रहती है। यही इसकी कामयाबी है। दर्शकों के गहरे अंदर तक भेद देती है ये फिल्म और उन्होंने सोचने को मजबूर कर देती है। अपने बारे में, अपने समाज के बारे में, अपने घर के बारे में।
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