Sunday 12 April 2020

सफ़दर हाशमी नुक्कड़ नाटक को मजदूरों के बीच ले गए और उसकी कीमत जान देकर चुकाई

सफ़दर हाशमी के जन्मदिन पर विशेष 
प्रतिरोध की कला के प्रतीक हैं सफ़दर 
  • देवेश मिश्र और आकाश पाण्डेय 

सफदर हाशमी एक ऐसा नाम है जिसे थियेटर से जुड़ा हर शख्स जानता है. एक ऐसा नाम जिसे हर प्रगतिशील व्यक्ति जानता है. जिसे भारत में  प्रतिरोध की एक आवाज माना जाता है. उनकी सिर्फ 35 साल की उम्र में साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक खेलते हुए कांग्रेस पार्टी से जुड़े गुंडों ने हत्या कर दी थी. ऐसी शख्सियत सफदर हाशमी का आज जन्मदिन है

सफ़दर हाशमी शोषण, ग़ुलामी, तानाशाही, पितृसत्ता और अन्याय के ख़िलाफ़ रचनात्मक तरीक़े से सांस्कृतिक हथियारों का उपयोग कर जनता की गोलबंदी करते थे. भारत में नुक्कड़ नाटक को आगे बढ़ाने में सफ़दर हाशमी का बेहद खास योगदान रहा है. सफ़दर ने अपने नाटकों के माध्यम से शोषित और वंचित लोगों की आवाज को बुलंद किया था. 

हालाँकि सफ़दर एक संपन्न परिवार से थे. उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य से एमए कर रखा था. सेंट स्टीफ़ेंस में पढ़ाई के दौरान ही उनका जुड़ाव सीपीआइ-एम की छात्र शाखा- स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की सांस्कृतिक यूनिट और इप्टा से हो गया. हाशमी जन नाट्य मंच के संस्थापक सदस्य थे. यह संगठन 1973 में इप्टा से अलग होकर बना. सीटू जैसे मजदूर संगठनों के साथ जनम का अभिन्न जुड़ाव रहा है.

जब वो उन्नीस साल के थे, उन्होंने जन नाट्य मंच की स्थापना की जो मुख्यतः नुक्कड़ नाटक आयोजित करता था. ‘जनम’ के माध्यम से उन्होंने नुक्कड़ नाटकों को जन-विरोध का एक प्रभावी हथियार बनाया. जन नाट्य मंच ने छात्रों, महिलाओं और किसानों के आंदोलनो में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई.


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के प्रवक्ता और थिएटर सहित तमाम सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाले अमितेश कुमार सफ़दर हाशमी के बारे में कहते हैं, "जब देश में तार्किकता के साथ उठने वाली हर आवाज़ को, डराया-धमकाया जा रहा हो, जब हर किसी पर एक ख़ास विचारधारा थोपने की कोशिश की जा रही हो, तब और सत्ता के निरकुंश होने की ऐसी हर परिस्थिति में सफ़दर हाशमी प्रासंगिक बने रहेंगे और युवाओं को याद आते रहेंगे.''

समकालीन जनमत पत्रिका के उप संपादक विष्णु प्रभाकर बताते हैं कि उनके घर का माहौल हमेशा से प्रगतिशील मार्क्सवादी था. सफ़दर हाशमी का परिवार दिल्ली का अर्बन और संपन्न परिवार था
लेकिन वो आम मज़दूरों के मुद्दों को पकड़ते थे. समसामयिक मुद्दों पर गहरे व्यंग्यात्मक अंदाज़ में नुक्कड़ नाटक ना केवल लिखते थे, बल्कि उसे बेहद जीवंत अंदाज़ में पेश करते थे. उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि वे आम लोगों से सीधा रिश्ता जोड़ लेते थे.

सफ़दर हाशमी का व्यक्तित्व ऐसा था कि आम जन उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनता था. उनकी भाषा बहुत सरल और विद्रोह के भाव से भरी होती थी. वे हमेशा कहा करते थे कि मज़दूरों और किसानों के गर्म बहते लहू में बारूद दौड़ती है जिस दिन ये फटेगा उस दिन इंक़लाब आयेगा.

आपातकाल में जब ट्रेड-यूनियंस की कमर टूट गई थी, तब सफ़दर को महसूस हुआ कि उनमें जोशो-खरोश भरने के लिए ‘जनम’ जैसे ग्रुप की ज़रूरत है. लेकिन उस वक़्त वो किसी थिएटर ग्रुप को चलाने के लिए ज़रूरी फंड्स को मुहैया कराने में असमर्थ थे. वक़्त की ज़रूरत थी ऐसे नाटक हों जो कम खर्चीले हो, असरदार हो और घूमते-फिरते किए जा सकें. 

उस ज़रूरत का नतीजा निकला नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ की सूरत में. महज़ 6 एक्टर और सिर्फ तेरह मिनट की स्टोरी. नाटक की प्रेरणा एक केमिकल फैक्ट्री के मजदूरों पर गार्ड्स द्वारा किया गया क्रूर हमला था. मजदूर अपनी साइकिलों के लिए पार्किंग स्पेस और एक ठीक-ठाक से कैंटीन की मांग कर रहे थे. उनपर फैक्ट्री के सुरक्षकर्मियों ने बेरहमी से हमला बोला. उस हमले में 6 मजदूर मारे गए थे.

‘मशीन’ नाटक ने सांकेतिक तौर पर दिखाया कि कैसे फैक्ट्री मालिक, गार्ड्स और मजदूर सभी पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं. इस नाटक ने महज़ तेरह मिनटों में वंचितों के शोषण को प्रभावी तरीके से पेश कर के पूंजीवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी. आसान, काव्यात्मक भाषा और अपील करने वाली थीम की वजह से इस नाटक ने भारत के कामकाजी तबके में फ़ौरन लोकप्रियता हासिल कर ली. ‘मशीन’ को रिकॉर्ड किया गया और भारत की अन्य भाषाओँ में भी इसको मानचित किया गया. सफदर हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि जो भी जनता के बीच दिखाया जाये या सुनाया जाय या फिर पढ़ने के लिये ही दिया जाये उसकी भाषा बेहद सरल और सामान्य हो.

यहां से ‘जनम’ ने और सफ़दर हाशमी ने पीछे मुड कर नहीं देखा. उनकी सक्रियता का आलम ये था कि जब दिल्ली परिवहन निगम ने किराए में बढ़ोतरी की घोषणा की, उसके पांच घंटों के अंदर-अंदर ‘जनम’ ने ‘डीटीसी की धांधली’ के नाम से प्ले लिख कर उसका मंचन भी कर डाला.

सफ़दर हाशमी ने शुरुआती दिनों में बंगाल सरकार में इंफॉर्मेशन ऑफिसर के पद पर काम किया था. लेकिन 1984 में नौकरी छोड़ वह राजनीति में सक्रिय हो गए. उन्होंने प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया और इकनोमिक टाइम्स के साथ पत्रकार के रूप में भी काम किया. बाद में समय के साथ उन्होंने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से आम लोगों की आवाज़ बुलंद करने का उद्देश्य बना लिया.

1984 में इन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और खुद का पूरा समय राजनैतिक सक्रियता को समर्पित कर दिया. सफ़दर हाशमी ने दो बेहतरीन नाटक तैयार करने में अपना सहयोग दिया,
मक्सिम गोर्की के नाटक पर आधारित 'दुश्मन' और प्रेमचंद की कहानी 'मोटेराम के सत्याग्रह' पर आधारित नाटक जिसे इन्होंने हबीब तनवीर के साथ 1988 में तैयार किया था.

सफ़दर हाशमी ने की कई कविताएं लिखीं,  उसमें कुछ का जादू समय के साथ फीका नहीं हुआ है. उनमें से एक कविता ऐसी है जो आज भी बेहद पसंद की जाती हैं.

किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!
किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की.
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की.
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं.
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती.
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते.
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है.
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है.
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!

लेकिन आम बच्चों की जुबान पर जो कविता आज भी चढ़ी हुई लगती है, वो आम लोगों को पढ़ाई की अहमियत को समझाने वाली कविता-

"पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों, पढ़ना लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालों"

"क ख ग घ को पहचानो, अलिफ़ को पढ़ना सीखो, अ आ इ ई को हथियार बनाकर लड़ना सीखो"

एक जनवरी, 1989 को गाज़ियाबाद के साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' के दौरान स्थानीय कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा ने अपने गुंडों के साथ उनके दल पर जानलेवा हमला किया था. ये घटना दिन दहाड़े हुई. हमले में बुरी तरह घायल सफ़दर की मौत 2 जनवरी 1989 को राम मनोहर लोहिया अस्पताल में हुई थी. सफ़दर  के अंतिम संस्कार में 15 हजार से ज्यादा लोग सड़कों पर उतर आए थे.

जब उनकी अंतिम यात्रा निकाली गई, दिल्ली की सड़कों पर मौजूद जनता उसमे शामिल हो गई. आज़ादी के बाद के भारत में ये ऐसी दुर्लभ शवयात्रा थी, जिसमे बिना किसी पूर्वसूचना के इतने ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था. सफ़दर हाशमी नाम के एक सच्चे रंगकर्मी को जनता द्वारा दी गई ये एक सच्ची श्रद्धांजलि थी.

वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘मौजूदा दौर में सफ़दर हाशमी जैसे युवाओं की ज़रूरत कहीं ज़्यादा है. आम आदमी, ग़रीब मजदूरों के हितों की बात को
उठाने के लिए, उन्हें उनका हक दिलाने के लिए सफ़दर ने नुक्कड़ नाटक को हथियार की तरह इस्तेमाल किया था. उन्होंने जिस तरह के नाटक किए, उसके चलते उनकी हत्या तक हो गई, उस तरह के नाटकों की कल्पना आज के दौर में में भी नहीं की जा सकती.’

सफ़दर हाशमी का पूरा जीवन आम मेहनतकश मज़दूर किसान जनता के बीच उनके हक़ और अधिकारों की लड़ाई करते बीता. नुक्कड़ नाटकों की प्रासंगिकता को लेकर हाशमी एक  बहुत बुनियादी और ग़ज़ब की बात कहते थे कि प्रेक्षागृह में नाटक देखने वाले सभ्य दर्शक के मानसिक आतंक और उसके बंधे बँधाये संस्कारों को गंभीरता मान लेना एक भूल है. 

इसके विपरीत चलता मज़दूर या कर्मचारी अचानक चौराहे पर रुककर अपनी ज़िंदगी की बहुत बुनियादी समस्याओं और संघर्षों पर खेला जा रहा नाटक देखकर जब हँसता- हँसाता है तो वह एक गंभीर काम कर रहा होता है. वह अपना समय अपनी मर्ज़ी से देकर अपनी हंसी द्वारा अपने शोषकों पर आघात कर रहा होता है.

सफ़दर के नाटकों में आम जनता की समस्याएं, गरीबमजदूरशोषितवंचित तबके की समस्याओं को उठाने की कोशिश की गई. उन नाटकों में समाज में व्याप्त बेरोजगारीसाम्प्रदायिकता आदि समस्याओं को दर्शाया गया था लेकिन यदि आज हम देखें तो कला के क्षेत्र में, थियेटर के क्षेत्र में इसकी कमी दिख रही है.


कहते हैं कि फ़िल्में समाज का आईना हैं. फिल्में और सीरियल समाज में किसी मुद्दे को रखकर उनपर लोगों के बीच जनमत तैयार करने और उनपर चर्चा कराने में प्रमुख योगदान देते हैंपहले के सिनेमा में किसान, मजदूरों, शोषितों की बात होती थी लेकिन आज का लगभग सिनेमा बाजार की चकाचौंध की चपेट में है

मौजूदा समय में भी जाति के सवाल, महिलाओं के अधिकारों को लेकर तथा समाज के तमाम अन्य मुद्दों को लेकर सिनेमा बन रहा है लेकिन इनकी संख्या थोड़ी है और यह बहुत कम लोगों तक पहुँच पाता हैसफदर हाशमी जिस तरह गरीब, शोषित, वंचितों की आवाज उठाने के लिए नाटकों का निर्माण करते थे, उसी तरह आज के दौर में भी गरीब, मजदूर, शोषित, वंचित तबके के लिए सिनेमा और नाटकों के निर्माण की आवश्यकता है

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