Thursday 16 April 2020

समझौते की राजनीति नहीं कर पाए चन्द्रशेखर

जन्मदिन पर विशेष
आज की राजनीति पर चंद्रशेखर ने लिखा- "राजनीति की पुरानी मान्यताएं बदल गई हैं। अब तो भीड़ की राजनीति हो गई है। लोगों ने समझ लिया है जनतंत्र का मतलब किसी तरह से जनसमर्थन जुटा लो, इसके लिए चाहे जो करना पड़े!"

  • तरुण प्रताप सिंह

"एक प्रधानमंत्री के साथ आप ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं? यह मेरे व्यक्तिगत घमंड की बात नहीं है। यह
प्रधानमंत्री पद के सम्मान और गरिमा का प्रश्न है। आपके पार्टी प्रेसीडेंट ने भी अतीत में प्रधानमंत्री पद ग्रहण किया था। क्या कांग्रेस वास्तव में विश्वास करती है कि मैंने राजीव गांधी के खिलाफ जासूसी के लिए पुलिस सिपाहियों को नियुक्त करवाया? वापिस जाओ और उनसे कह दो कि चन्द्रशेखर बार-बार अपना निर्णय नहीं बदलता। मैं किसी भी कीमत पर सत्ता से चिपकना नहीं चाहता। एक बार मैंने निर्णय कर लिया तो उसे लागू करता हूँ। मैं इसपर पुनः विचार नहीं करूंगा। हो सकता है, राष्ट्रपति ने अभी तक मेरा इस्तीफा मंजूर ना किया हो, परन्तु उनको शीघ्र ही मेरा इस्तीफा स्वीकार करना होगा।" पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चन्द्रशेखर ने यह बात एनसीपी नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार से कही थी, जो उस समय कांग्रेस में थे और राजीव गांधी के कहने पर चन्द्रशेखर से इस्तीफा वापस लेने का अनुरोध करने गए थे। 


उस समय चन्द्रशेखर कांग्रेस के सहयोग से प्रधानमंत्री बने थे लेकिन उनके ऊपर आरोप लगने लगे कि उन्होंने राज़ीव गांधी की जासूसी करवाई है। शरद पवार उस पूरे प्रकरण को याद करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- 'चन्द्रशेखर के विषय में राजीव गांधी का अनुमान गलत साबित हुआ। कांग्रेस का उद्देश्य चन्द्रशेखर को केवल नीचा दिखाना था, उनको प्रधानमंत्री पद से हटाना नहीं। परन्तु चन्द्रशेखर तो दूसरी ही मिट्टी के बने थे। उन्होंने बड़ी तत्परता के साथ प्रधानमंत्री पद का त्याग दिया और इस तरह कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक मूल्यांकन गलत साबित हुआ।' चन्द्रशेखर के इस्तीफे के बाद देश में एक बार फिर मध्यावधि चुनाव हुए। इसी चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गई।


उत्तर प्रदेश के बलिया में बीता बचपन 


चन्द्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल साल 1927 को बलिया जिले के इब्राहीम पट्टी गाँव में हुआ था। पिता सदानंद सिंह खेती करते थे और मां घर के काम संभालती थीं। चन्द्रशेखर छह भाई-बहनों में तीसरे नम्बर पर थे। उनसे बड़े एक भाई और बहन थीं। बचपन के दिनों को याद करते हुए चन्द्रशेखर ने लिखा है- 'एक दिन मैंने गमछा खरीदने के लिए मां से पैसे मांगे। उन्होंने आठ आना या एक रूपये दिए। पैसे लेकर मैं मीटिंग में चला गया। माँ के दिए पैसे कहीं मीटिंग में ही खर्च हो गए। घर लौटकर आया तो माँ ने पूछा कि गमछा नहीं खरीदा? क्या पैसे झण्डा उड़ाने में खर्च कर दिए?' चन्द्रशेखर को पिता की अपेक्षा अपनी माँ से अधिक लगाव था। जब वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए की पढ़ाई कर रहे थे, उस समय उनकी मां का देहान्त हुआ। 

समाजवाद की तरफ झुकाव 


चन्द्रशेखर बचपन से सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। साल 1946 में जब वह इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहे थे, उसी दौरान उन्होंने कॉलेज के प्रधानमंत्री पद का चुनाव लड़ा और जीत गए। इसके बाद से ही उनका झुकाव राजनीति की तरफ बढ़ता गया। 

चन्द्रशेखर आर्य समाज के कार्यक्रमों में आते-जाते थे लेकिन उनके ऊपर जयप्रकाश नरायण का बहुत प्रभाव था जिसके कारण उनका झुकाव समाजवाद की तरफ बढ़ता गया। साल 1952 में पहले आम चुनावों में लोगों को उम्मीद थी कि सोशलिस्ट पार्टी बिहार में अच्छा प्रदर्शन करेगी। चन्द्रशेखर भी उस चुनाव में कई प्रत्याशियों के प्रचार के लिए गए थे। 

लेकिन चुनाव परिणाम सोशलिस्ट पार्टी की अपेक्षाओं के विपरीत आए। कई बड़े नेता अपना चुनाव हार गए। उसके बाद चन्द्रशेखर ने तय किया कि वो पीएचडी करेंगे। इस इरादे के साथ उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में दाखिला ले लिया। उस समय राजनीति विभाग के विभागाध्यक्ष थे प्रो. मुकुट बिहारी लाल और आचार्य नरेन्द्र देव कुलपति थे। उनके शोध का विषय था 'इन्फ्लूएंस ऑफ इकनामिक डेवलपमेंट ऑन पॉलिटिकल थॉट्स'। 

उसी समय सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने तय किया था कि आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया आदि जिलों में हो रही हिंसा के खिलाफ आन्दोलन चलाएंगे। राजनारायण ने चन्द्रशेखर का नाम संयोजक के तौर पर प्रस्तावित किया, लेकिन प्रो. मुकुट बिहारी लाल ने इसका विरोध किया। चन्द्रशेखर खुद असमंजस में थे। उसी मीटिंग में मौजूद आचार्य नरेन्द्र देव ने चन्द्रशेखर से कहा- 'चन्द्रशेखर जी, इन प्रोफेसर के चक्कर में आप मत आइए, इन्होंने बहुत जिंदगियां बर्बाद की है। आपकी थीसिस कौन पढ़ेगा, अगर देश ही नहीं रहेगा? आप देश बनाने के काम में लगिए." इसके बाद चन्द्रशेखर ने पीएचडी छोड़ दी।

फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता के रूप में चन्द्रशेखर साल 1962 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। चन्द्रशेखर ने अपने शुरूआती दिनों को याद करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'आज के समय से उस समय की संसद के माहौल की तुलना करना असंभव है। उस जमाने में संसद के अन्दर कटु आलोचना तो होती थी, लेकिन उसमें किसी के लिए कोई कटुता नहीं थी। एक बार मेरा मोरारजी से विवाद हो गया। विवाद में कटुता आ गई। बाद में, सेंट्रल हॉल में भानु प्रकाश सिंह जी मुझे मिले। उन दिनों भानु प्रकाश जी भारत सरकार के उपमंत्री थे। उन्होंने कहा कि सिंह काट देने से तुम्हारी जाति नहीं छिपेगी। मैंने कहा कि मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें दरबार बनाकर भेजा है, तुम दरबारी बन गए हो।' 

राज्यसभा सदस्य बनने के कुछ साल बाद ही चन्द्रशेखर कांग्रेस पार्टी में चले गए। उन्हें एक बार फिर से राज्यसभा के लिए निर्वाचित कर लिया गया था। हालांकि वह साल 1967 में लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन उस समय जगन्नाथ प्रसाद ने एक प्रस्ताव रख दिया कि राज्यसभा सदस्य, लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। तब चन्द्रशेखर इस्तीफा देकर चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंने अपना फैसला बदल दिया। साल 1971 में जब कांग्रेस के 'गरीबी हटाओ' का नारा बुलंद था, उस समय फिर चन्द्रशेखर चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन इंदिरा गाँधी के कहने पर दुबारा उन्होंने अपना फैसला बदल लिया।

फिर आया आपातकाल का दौर



इसी दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में छात्रों का आन्दोलन चल रहा था। उसी समय बिहार में भी आन्दोलन शुरू हुआ। उस आन्दोलन की अगुवाई जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। चन्द्रशेखर ने एक संपादकीय में लिखा है-‘जेपी इज नॉट फाइटिंग फॉर पॉलिटिकल पावर, सो ही कैन नॉट बी डिफीटेड बाई यूज ऑफ स्टेट पावर (जेपी राजनीतिक ताकत के लिए नहीं लड़ रहे हैं, इसलिए उन्हें राज्य की शक्ति का प्रयोग करके नहीं हराया जा सकता)। तब सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग के राजनारायण की शिकायत के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी और उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी। इसके बाद देश में आपातकाल लगा दिया गया। 

25 जून को आपातकाल लगा और उससे पहले 24 जून को जयप्रकाश नारायण ने एक बड़ी जनसभा की थी। सुबह 3 बजे उनको गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके बाद विपक्षी नेताओं के साथ-साथ इंदिरा विरोधी नेताओं को भी गिरफ्तार किया जाने लगा। चन्द्रशेखर को भी गिरफ्तार करके पहले हरियाणा के रोहतक भेजा गया, उसके बाद 6 जुलाई को रोहतक से चंडीगढ़ भेज दिया गया। फिर 11 जनवरी 1977 को उनको रिहा कर दिया गया। उस समय देश के सभी बड़े नेताओं को जेल से छोड़ा जाने लगा था। 18 जनवरी 1977 को आम चुनावों की घोषणा हुई लेकिन 77 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी समेत सभी बड़े कांग्रेसी नेता चुनाव हार गए। कांग्रेस बुरी तरह हारकर पहली बार केन्द्रीय सत्ता से बाहर हो गई. 


केंद्र में नई सरकार में मंत्री बनते-बनते रह गए चन्द्रशेखर

77 के आम चुनाव की घोषणा के साथ राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गईं। जयप्रकाश नारायण कांग्रेस (संगठन), समाजवादी, जनसंघ और कुछ अन्य लोगों को शामिल करके एक नई पार्टी बनाना चाहते थे जो कांग्रेस का मुकाबला कर सके और उस पार्टी के अध्यक्ष की जिम्मेदारी चन्द्रशेखर को देना चाहते थे। सभी कांग्रेस विरोधी दलों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा। यहाँ तक कि इंदिरा गाँधी के खास माने जाने वाले जगजीवन राम भी सीएफडी (कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी) बनाकर अलग हो गए। चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। चन्द्रशेखर को भी मंत्री बनाने की चर्चा होने लगी लेकिन उन्होंने अपनी जगह मोहन धारिया के नाम की सिफारिश कर दी जिसके कारण वो मंत्री बनते-बनते रह गए। 


हालांकि बाद में वह जनता पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए। पर सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई। दोहरी सदस्यता के कारण जनसंघ के लोग सरकार से अलग हो गए। हालांकि चन्द्रशेखर अपनी आत्मकथा में इस बात का खण्डन करते हैं- 'आम धारणा है कि जनता पार्टी दोहरी सदस्यता के सवाल पर टूटी। वह राजनीतिक बहाना था। इसी बहाने झगड़ा खड़ा किया गया। मैंने इसमें से रास्ते निकालने के प्रयास किए। सीधे बात हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से सम्पर्क साधा। बालासाहब देवरस और रज्जू भैया से बात की। उन लोगों का रूख सकारात्मक था।’

जनता पार्टी की सरकार गिर गई और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। फिर पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान नेता चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि चन्द्रशेखर, चौधरी चरण सिंह के नाम पर सहमत नहीं थे। वह जगजीवन राम को चाहते थे लेकिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का न्यौता दिया। नीलम संजीव रेड्डी वही व्यक्ति थे जिनका विरोध चन्द्रशेखर ने राष्ट्रपति चुनाव में खुलकर विरोध किया था। 

लेकिन चौधरी चरण सिंह भी अपनी सरकार नहीं चला पाए। जनता पार्टी टूट गई और फिर से 1980 में चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी की फिर से वापसी हुई। इसके बाद चन्द्रशेखर एक लम्बे समय तक संघर्ष करते रहे। इसी दौरान उन्होंने दक्षिण में कन्याकुमारी से उत्तर में दिल्ली के राजघाट तक पैदल भारत यात्रा की। इससे उनका राजनीतिक कद तो बढ़ा लेकिन इससे कुछ खास राजनीतिक सफलता नहीं मिली। वही इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने और सहानुभूति की लहर पर सवार होकर उन्होंने 400 से ज्यादा सीटें लोकसभा चुनाव में जीतीं। यहाँ तक कि खुद चंद्रशेखर बलिया से लोकसभा का चुनाव हार गए. 


बोफ़ोर्स की गूंज और चन्द्रशेखर का प्रधानमंत्री बनना 


उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजीव गांधी की सरकार के वित्त मंत्री थे। वित्त मंत्री के रूप में उनके कुछ कड़े फैसलों और उद्योगपतियों खासकर रिलायंस के धीरुभाई अम्बानी पर कार्रवाई और छापों के कारण कहते हैं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें वित्त मंत्री से हटाकर रक्षामंत्री बना दिया। इससे इन दोनों के बीच विवाद बढ़ने लगा। कारण चाहे जो रहा हो, लेकिन जनता के बीच संदेश गया कि वीपी सिंह किसी उद्योगपति पर कार्रवाई चाहते थे लेकिन राजीव गांधी ने उन्हें रोक दिया। 

इसके बाद वीपी सिंह ने बोफ़ोर्स और पनडुब्बी खरीद के मामले उठाए। इससे राजीव गांधी और उनके बीच तल्खी और बढ़ गई जिसके बाद वीपी सिंह कांग्रेस से अलग हो गए। थोड़े दिनों बाद वीपी सिंह ने जनमोर्चा बनाया जिसमें उनके साथ अरूण नेहरु, आरिफ मोहम्मद खान जैसे लोग थे। उस समय वीपी सिंह के लिए एक नारा बहुत चलता था 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है'। 

इसके बाद चुनाव हुए और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। वीपी सिंह भाजपा के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। उसी दौरान मंडल कमीशन की सिफारिश को उन्होंने लागू कर दिया। भाजपा को लगा कि उसका जनाधार खिसक रहा है। 

भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा शुरु कर दी। लेकिन जब रथ यात्रा बिहार के समस्तीपुर पहुँचा तो आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। भाजपा ने आरोप लगाए कि वीपी सिंह के कहने पर लालू यादव ने आडवाणी को गिरफ्तार किया। भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई।

उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि कांग्रेस चाहकर भी सरकार नहीं बना पाती और चुनाव में जाना उसके लिए किसी तरह से फायदे में नहीं था क्योंकि एक तरफ जहाँ देश में मण्डल का जोर था, वहीं दूसरी तरफ राममंदिर आन्दोलन भी अपने चरम पर था। राजीव गाँधी ने चन्द्रशेखर के सामने सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा और 11 नवम्बर 1990 को चन्द्रशेखर ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। कांग्रेस उन्हें बाहर से समर्थन दे रही थी। चन्द्रशेखर चाहते थे कि कांग्रेस के लोग भी सरकार में शामिल हों, लेकिन राजीव गांधी का कहना था कि एक-दो महीने में कांग्रेस के लोग भी सरकार में शामिल हो जाएंगे। 


चन्द्रशेखर का कार्यकाल ऐसा था, जिसमें लग रहा था कि अयोध्या विवाद का अंत हो जाएगा। पहली बार विश्व हिन्दू परिषद और बाबरी एक्शन कमेटी एक साथ बैठी। लेकिन कुछ ही महीने बाद चन्द्रशेखर सरकार पर राजीव गांधी की जासूसी करवाने का आरोप लगा और जिसके बाद चन्द्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया। 

देश में फिर चुनाव हो रहे थे, चन्द्रशेखर कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे। चुनावों के बाद कांग्रेस की वापसी हुई। पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। उसके बाद चन्द्रशेखर सदैव ही विपक्ष में रहे और मुखर रहे। तब की राजनीति पर चन्द्रशेखर ने लिखा- "राजनीति की पुरानी मान्यताएं बदल गई हैं। अब तो भीड़ की राजनीति हो गई है। लोगों ने समझ लिया है जनतंत्र का मतलब किसी तरह से जनसमर्थन जुटा लो, इसके लिए चाहे जो करना पड़े। ऐसी परिस्थिति में मैं उदासीन हो गया। मैंने राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप बन्द कर दिया।"

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