Saturday 11 April 2020

कोरोना के साथ डिजिटल असमानता से भी जंग लड़ रही है दुनिया

भारत के शहरों में जहां प्रति 100 लोगों में 84 लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, वहीं गांवो में सिर्फ 16 लोग। संसाधनों की कमी के चलते ऑनलाइन शिक्षा और घर से काम करना सबके लिए आसान नहीं!

  • जागृति राय

जागृति राय 
चीन से शुरू हुआ नॉवेल कोरोना वायरस अब तक दुनिया के 207 देशों में फैल चुका है। 14 लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं। इसकी वैक्सीन अब तक नहीं बनाई जा सकी है, इसलिए वायरस का प्रसार रोकने के लिए एकमात्र उपाय के रूप में सामाजिक दूरी (Social distancing) को दुनियाभर में बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके लिए दुनियाभर के देशों में स्कूल-कॉलेज बंद कर दिये गए हैं, साथ ही, दफ्तर और कारखानें भी बंद हैं। 

ऐसे में, जहां कुछ स्कूल ऑनलाइन कक्षाओं की तरफ बढ़े हैं, वहीं कुछ  लोग दफ्तर घर से काम करने (वर्क फ्रॉम होम) को मजबूर हो गये हैं। लेकिन एक समस्या के समाधान ने दूसरी समस्या को सतह पर ला दिया है। ऑनलाइन कक्षाओं और घर मे काम करने में डिजिटल विभाजन की समस्या सिर उठाने लगी है। ऐसा भी नहीं है कि यह समस्या नई है। लेकिन कोरोना वायरस से बचाव के लिए उठाए जा रहे कदमों ने इसे फिर चर्चा का विषय बना दिया है। 

क्या है डिजिटल विभाजन

डिजिटल विभाजन (Digital Divde) उस अंतर को कहते है, जो इंटरनेट और आधुनिक तकनीकी संसाधनों तक लोगों की पहुंच का अंतर बताता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिन लोगों तक इंटरनेट और मोबाइल फोन जैसे आधुनिक तकनीकी साधनों की पहुंच है और जो लोग इन संसाधनों से वंचित हैं, उनके बीच की खाई को डिजिटल विभाजन कहते हैं। यह अंतर गाँवों और शहरों के बीच स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। यह असमानता आर्थिक-सामाजिक स्तर पर, कम विकसित देश और ज्यादा विकसित देशों के बीच, पढ़े-लिखे होने और ना पढ़े-लिखे होने के बीच व्यापक रूप से मौजूद है। 

भारत के संदर्भ में देखें तो भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) के अनुसार प्रति 100 लोगों में सिर्फ 38 लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा है। इसमें भी गांव और शहरों के बीच अंतर और भी ज्यादा है। शहरों में जहां प्रति 100 लोगों में 84 लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं, वहीं गांवो में प्रति 100 लोगों में सिर्फ 16 लोगों की ही पहुंच इंटरनेट तक है। 

ये आंकड़े भारत के डिजिटल विभाजन की स्याह तस्वीर दिखाते हैं। इस तस्वीर की बारीकियों में जाने पर विभाजन और भी गहराता जाता है। जैसे अमीरों की तुलना में गरीबों तक तकनीकी सुविधाओं का के बराबर होना। पिछले कुछ सालों में सस्ते स्मार्टफोन और गांवो को वायरलेस से जोड़ने कीभारतनेटजैसी योजनाओं से इस अंतर को कम करने की कोशिश की गई है, लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है। डिजिटल विभाजन पुरुषों और महिलाओं के स्तर पर भी देखने में आता है। कई शोध रिपोर्टों में यह बात सामने आई है कि भारत में पुरुषों की तुलना में तकनीकी संसाधनों तक महिलाओं की पहुंच कम है। 
ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ भारत की है। दुनिया के विकसित से लेकर विकासशील देशों तक में डिजिटल विभाजन की समस्या मौजूद है। अंतर बस इतना है कि कहीं यह विभाजन कम है तो कहीं ज्यादा। उदाहरण के लिए अमेरिका में इंटरनेट का इस्तेमाल वहां की 90 प्रतिशत आबादी करती है, वहीं भारत और केन्या जैसे विकासशील देशों में यह आंकड़ा क्रमशः 38 प्रतिशत और 48 प्रतिशत है। जाहिर है, भारत जैसे विकासशील देशों में इसका प्रभाव ज्यादा व्यापक होगा। 


ऑनलाइन कक्षाओं तक सबकी पहुँच नहीं


कोरोना वायरस के फैलने के साथ दुनिया के अधिकांश देशों में स्कूल-कॉलेज बंद कर दिये गये हैं। भारत सहित दुनिया के कई देशों में प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों तक की कक्षायें ठप्प पड़ी हैं। ऐसे में, स्कूल और कॉलेज ऑनलाइन कक्षाओं और ऑनलाइन स्टडी मैटेरियल का सहारा ले रहे हैं। लेकिन ऑनलाइन माध्यम अपनाने में डिजिटल विभाजन बड़ी समस्या बन कर उभर रही है।

गांधी फेलोशिप के तहत प्राथमिक स्तर तक के बच्चों को पढ़ाने वाली अंकिता कहती हैं कि सरकार की तरफ से सभी सरकारी स्कूल के अध्यापकों को अपनी कक्षा के बच्चों के माता-पिता का व्हाट्सएप ग्रुप बना कर स्टडी मैटेरियल देने को कहा गया है। लेकिन ज्यादातर घरों में स्मार्टफोन होने, सीमित इंटरनेट कनेक्शन होने और तकनीकी साक्षरता की कमी जैसी समस्यायें सामने रही हैं।  
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के वर्ष 2017 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में कुल 11 करोड़ 30 लाख बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। यह संख्या भारत के कुल स्कूली बच्चों के लगभग 65 प्रतिशत के बराबर है। देश भर में कुल छात्रों की संख्या 34 करोड़ है। ऐसे में, बंद स्कूल और कॉलेज एक बड़ी आबादी को प्रभावित कर रहे हैं। इनमें से कई स्कूल और कॉलेज आनलाइन कक्षायें चला रहे हैं। जिन बच्चों के पास इंटरनेट और लैपटॉप जैसे जरूरी संसाधन हैं, वे इसमें शामिल भी हो रहे हैं। इसके बावजूद करोड़ों छात्र इंटरनेट और जरूरी तकनीकी संसाधन के अभाव में पीछे छूटते जा रहे हैं।

अभिनव ग्रेजुएशन के तीसरे साल में हैं और पंजाब की प्राइवेट यूनिवर्सिटी से बीटेक कर रहे हैं। वह कहते हैं कि कालेज बंद होने पर वह अपने गांव वीरपुर (उत्तर प्रदेश) चले आये। उधर 14 अप्रैल तक लॉकडाउन की घोषणा के बाद कॉलेज की तरफ से ऑनलाइन कक्षायें चलाई जाने लगीं। लेकिन गांव में खराब इंटरनेट कनेक्शन की वजह से वह चाह कर भी कक्षायें नहीं कर पा रहे हैं। 


सरकार की कोशिश


भारत में आज भी ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां इंटरनेट नहीं पहुंच पाया है और जिन जगहों पर है भी, वहां करोड़ों ऐसे बच्चे हैं जिनके पास स्मार्टफोन और लैपटॉप जैसे जरूरी साधन नहीं हैं। स्कूल-कॉलेजों के बंद होने के बाद से ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से ऑनलाइन एजुकेशन से संबंधित जानकारियां उपलब्ध करायी जाने लगी हैं। इसमें दीक्षा ऐप, निष्ठा ऐप, स्वयं स्वयंप्रभा, -पाठशाला और राष्ट्रीय मुक्त शैक्षिक संसाधन कोष जैसे वेबपोर्टल शामिल हैं। इनमें स्वयं और स्वयंप्रभा टीवी चैनल हैं बाकी सभी वेबपोर्टल और ऐप है। इनके लिए टेलीविजन, इंटरनेट कनेक्शन और मोबाइल फोन लैपटॉप जैसे संसाधन जरूरी हैं। ऐसी स्थिति में ऑनलाइन एजुकेशन एक दूर की कौड़ी लगती है जो भारत के डिजिटल विभाजन की त्रासद स्थित बयां कर रही है। 

समस्या सिर्फ तकनीकी संसाधनों की कमी तक सीमित नहीं है। तकनीकी साक्षरता की कमी और उसके उपयोग में हिचक भी डिजिटल विभाजन के कारणों में से एक है। इसके लिए जरूरी है शिक्षण-प्रशिक्षण में ऑनलाइन एजुकेशन ट्रेनिंग पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाए। कहा जा सकता है कि ऑनलाइन एजुकेशन एक तरफ समय और दूरी की सीमाओं को खत्म करता है तो दूसरी तरफ इसे डिजिटल विभाजन की सीमा में बांध देता है। डिजिटल विभाजन की समस्या सभी के लिए शिक्षा के अधिकार जैसे मौलिक अधिकार को भी प्रभावित कर रहा है। 

घर से काम करना भी आसान नहीं

कोरोना वायरस के कारण उपजे आर्थिक संकट की तुलना साल 2008 के वैश्विक मंदी से की जा रही है। लेकिन कोरोना वायरस के कारण शुरू हुई आर्थिक आपदा इस मायने में अलग है कि इसने दफ़्तर से काम करने का पारंपरिक तरीका बदल कर रख दिया है। बड़ी से बड़ी कंपनियों के दफ्तर बंद हैं और कर्मचारियों को घर से काम करने को कहा जा रहा है। दफ्तर में बड़े से बड़ा काम आमने-सामने बैठकर हो जाता था, वहीं अब घर में छोटे से छोटे काम के लिए भी इंटरनेट और तकनीकी उपकरणों की जरूरत पड़ रही है। 

अंकिता बताती हैं कि घर से काम करने के दौरान पूरे दिन चलने वाले वेबेनॉर और मीटिंग में इंटरनेट डाटा खत्म हो जाता है। ऐसे में, हर रोज दो जीबी से ऊपर डाटा का खर्च उठा पाना मुश्किल हो रहा है। जिन सरकारी कर्मचारियों के साथ वह काम करती हैं, उनमें से बहुत लोगों के पास लैपटॉप नहीं हैं जिससे उन लोगों के साथ काम करने में दिक्कत रही है। उनके पास स्मार्टफोन होने का भी ज्यादा फायदा नहीं हो रहा क्योंकि तकनीकी साक्षरता की कमी की वजह से वे लोग जूम और स्काइप जैसे विडियो कॉन्फ्रेन्सिंग ऐप का इस्तेमाल नहीं कर पा रहें हैं।  

यह समस्या सिर्फ अंकिता की नहीं है। दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से काम करने वाली एक बड़ी आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है। घर से काम करने को दुनियाभर में विलासिता के रूप में देखा जाने लगा है क्योंकि इंटरनेट जैसी तकनीकी से दुनिया की एक बड़ी आबादी अछूती है। दूसरी तरफ इंटरनेट होते हुए भी आबादी का एक हिस्सा तकनीक की जटिलताओं से जूझ रहा है। 

ऐसे समय में जब सूचना पाने से लेकर घर का राशन मंगाने तक में इंटरनेट का इस्तेमाल होने लगा है, तब भारत की आधी से ज्यादा आबादी के पास इंटरनेट का होना डिजिटल विभाजन की समस्या को और गंभीर बना देता है। 

कोरोना महामारी तकनीकी संसाधनों के विकास के लिए एक मौका लेकर आयी है। इस महामारी में दुनिया ने डिजिटल विभाजन को जितना स्पष्ट देखा है, इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। इसलिए समझदारी इसी में है कि इससे सबक़ लेकर आने वाले दिनों में हम डिजिटल विभाजन की समस्या पर गंभीरता से सोचें और इसे दूर करने की युद्धस्तर पर कोशिश करें।

(लेखिका भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता की छात्रा हैं. लिखने-पढ़ने का शौक है. ये शौक ही उन्हें उनके मूल निवास गाजीपुर से यहाँ तक के सफर में ले आया है.)

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