Saturday 25 April 2020

कोरोना के इलाज में उम्मीद की किरण है प्लाजमा थेरेपी

कोरोना से संक्रमित जो मरीज ठीक हो जाता है, उसके ही खून में मौजूद प्लाजमा का इस्तेमाल दूसरे रोगियों को ठीक करने में किया जाता है।


अश्वनी


कोरोना वायरस ( कोविड-19) लगभग विश्व के हर देश में फैल चुका है। यह खतरनाक इसलिए है कि अभी तक कोरोना के इलाज के लिए कोई टीका (वैक्सीन) नहीं उपलब्ध नहीं है। इसलिए अलग-अलग देश सुझाव और अनुभव पर ही काम कर रहे हैं। डॉ फहीम युनूस अमेरिका में विश्वविद्यालय ऑफ मैरीलैंड में संक्रामक रोगों से संबंधित विभाग के मुखिया हैं। उनका कहना है कि कोरोना का टीका उपलब्ध होने में कम से 12 से 18 महीने लगेंगे। ये महामारी से जूझ रही दुनिया के लिए काफ़ी लंबा समय है।

इस बीच आजकल प्लाजमा थेरेपी जिसको कॉनवेल्सेंट प्लाजमा थेरेपी भी कहा जाता है, चर्चा में है। पिछले दिनों दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स अस्पताल में 49 वर्षीय एक कोरोना संक्रमित को प्लाजमा थेरेपी के कारण वेंटिलेटर से नॉर्मल बेड पर स्थानांतरित किया गया। मैक्स अस्पताल के निदेशक डॉ संदीप बुद्धिराजा ने एक निजी चैनल से बातचीत करते हुए बताया कि कोरोना संक्रमण से ठीक हुए व्यक्ति के खून का इस्तेमाल करते हुए मरीज को वेंटिलेटर से हटाया गया है। महाराष्ट्र, दिल्ली और केरल आदि राज्यों को भी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर ) ने इस विधा के लिए क्लीनिकल ट्रायल की अनुमति दी है। अमरीका और इंग्लैंड में भी इसे लेकर क्लीनिकल ट्रायल शुरू हो चुके हैं। अमरीका के फूड एंड ड्रग प्रशासन (एफडीए) ने गंभीर रोगियों के लिए इस तरह की थेरेपी के उपयोग की मंजूरी दी है। चीन में भी ठीक हुए रोगियों के खून से प्लाजमा थेरेपी की मदद लेते हुए संक्रमित रोगियों का इलाज किया गया, जिसके सकारात्मक परिणाम मिले।

क्या है कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी 


इंसान के खून में चार चीजें होती हैं। पहली ब्लड सेल, दूसरी व्हाइट ब्लड सेल, तीसरी प्लेटलेट्स और चौथी प्लाजमा। प्लाज्मा खून का तरल ( लिक्विड) वाला हिस्सा होता है। यह बीमारियों से लड़ने का काम करता है। जब कोई व्यक्ति किसी वायरस से संक्रमित होता है तो उस समय प्लाजमा शरीर में  प्राकृतिक एंटीबॉडीज विकसित करता है। अगर एंटीबॉडीज पर्याप्त मात्रा में विकसित होती हैं तो संक्रमित व्यक्ति ठीक हो जाता है। 
जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में इम्यूनोलॉजिस्ट, अर्तुरो कैसादेवल के हवाले से इंडिया टुडे मैगज़ीन ने लिखा है कि जो भी कोविड-19 से संक्रमित मरीज ठीक होता है, उसके ही प्लाजमा का इस्तेमाल दूसरे रोगी को ठीक करने में किया जाता है। वही व्यक्ति जो स्वस्थ हुआ हो, अपना प्लाज़्मा दान करता है। साथ ही दान करने से पहले ठीक हुआ व्यक्ति 28 दिनों के लिए लक्षण-रहित होना चाहिए या दान से पहले कम से कम 14 दिनों के लिए लक्षण-रहित होने के साथ-साथ दो बार कोरोना की जांच परिणाम नतीजा भी नकारात्मक होनी चाहिए। सिर्फ़ वैसे व्यक्ति का प्लाजमा गंभीर रूप से संक्रमित मरीज को स्थानांतरित किया जा सकता है। इसके अलावा दानकर्ता को अन्य बीमारियों जैसे एचआईवी, हेपाटाइटिस आदि से पीड़ित नहीं होना चाहिए।

प्लाजमा थेरेपी पर पिछले पांच साल से काम कर रहे डॉक्टर जॉय ने हिंदू अख़बार को दिए साक्षात्कार में बताया कि खून से प्लाज़्मा लेने के दो तरीके हैं। 

पहला - अपकेंद्रित्र तकनीक यानी सेंट्र‍िफ्यूज तकनीक (centrifuge technique) से, जिसमें 180 मिलीलीटर से 220 मिलीलीटर तक कन्वेंशनल सीरा (convalescent sera) यानी प्लाज्मा पा सकते हैं। 

दूसरा- एफ़्रेसिस मशीन / सेल सेपरेटर मशीन का उपयोग करके, इस तरीके से एक बार में 600 मिलीलीटर प्लाजमा लिया जा सकता है। डॉक्टर जॉय के अनुसार, 60 डिग्री सेल्सियस के तापमान में प्लाजमा को स्टोर करके एक साल तक रखा जा सकता है।

कब हुआ इसका सबसे पहले इस्तेमाल


साल 1890 से पहले जर्मन वैज्ञानिक एमिल वान बेहरिंग ने टेटनस और डिप्थीरिया (सांस और नाक से संबंधित बीमारी) में इसका इस्तेमाल किया था। डॉ फहीम युनूस के अनुसार, वर्ष 1890 में इसे 'पेसिव एंटीबॉडीके नाम से जाना जाता था। 


कब-कब इस थेरेपी का उपयोग हुआ



नेचर पत्रिका में 26 मार्च को छपे लेख के अनुसार साल 1918 में एच1एन1 बीमारी ( स्पैनिश फ्लू के दौरान) में 1700 मरीजों पर इसका इस्तेमाल किया गया, पर उसकी तुलना आज के समय से नहीं कर सकते क्योंकि उस समय की थेरेपी आज के स्टैंडर्ड के हिसाब से नहीं थी।

सिवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानी सार्स (वर्ष 2002-03) के दौरान हांगकांग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इससे संक्रमित 80 लोगों पर कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया था। इस रिसर्च के अनुसार वायरस के लक्षण दिखने के दो हफ्ते के अंदर प्लाजमा थेरेपी का इस्तेमाल किया गया। इससे रोगियों में सुधार हुआ और वो उन लोगों की तुलना में जल्दी अस्पताल से डिस्चार्ज हुए, जिनको प्लाज्मा थेरेपी नहीं दी गई थी।

इंडिया टुडे मैगज़ीन ने यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के हवाले से लिखा है कि साल 2009 में स्वाइनफ्लू के दौरान 93 मरीजों पर रिसर्च की गई। यह सभी मरीज वो थे, जिन्हें अधिक देखभाल की जरूरत होती है। इनमें से 20 मरीजों को कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी दी गई। इस रिसर्च में कहा जाता है कि जिन्हें प्लाज़्मा थेरेपी दी गई, उनकी मृत्यु दर यह थेरेपी नहीं पाने वालों की तुलना में कम थी। 

डॉक्टर फहीम ने अपने वाशिंगटन पोस्ट में लिखे लेख में प्लाजमा थेरेपी के समर्थन में कई बातें कही हैं।

(1) साल 2003 में सार्स से संक्रमित 1,775 मरीजों का अध्ययन किया गया जिनको कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी दी गई थी। उनकी मृत्यु दर 12.5 प्रतिशत थी जबकि जिनको नहीं दिया गया था उनकी मृत्यु दर 17 प्रतिशत थी।

(2) कुल 32 अध्ययनों का विश्लेषण किया जाए  तो जिनको  कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी दी गई, उनमें मृत्यु का जोखिम 75 प्रतिशत कम हो जाता है।

(3) चीन के शेनजेन में कोविड-19 से संक्रमित पाँच मरीज, जोकि वेंटिलेटर पर थे, उनमें से तीन अस्पताल से डिस्चार्ज हो गए थे और बाक़ी दो मरीजों की स्थिति में भी सुधार हुआ था। इन्हें प्लाज़्मा थेरेपी दी गई थी।

नेचर पत्रिका के अनुसार अर्तुरो कैसादेवल कहते है कि कॉनवेल्सेंट प्लाज़्मा थेरेपी का परिणाम इसलिए सकारात्मक रहा कि इसका इस्तेमाल उन्हीं पर होता है, जिनमें वायरस से संबंधित लक्षण शुरू में ही दिख जाते हैं। 
इंडिया टुडे के अनुसार अर्तुरो ने इस थेरेपी के दौरान कुछ खतरों की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा है कि यह थेरेपी कुछ मरीजों पर नाकाम हो सकती है इससे थेरेपी के दौरान संक्रमण का खतरा भी सकता है।

कॉनवेल्सेंट प्लाज्मा थेरेपी का फायदा क्या है


-यह थेरेपी सस्ती है

-लगभग विश्व के सभी देशों में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ रही है तो प्लाज्मा देने वालों की भी अच्छी तादाद है।

-यह थेरेपी लगभग सभी देशों में उपलब्ध है।

क्या यह कारगर है


इस समय कोविड-19 का कोई वैक्सीन नहीं है इसलिए प्लाज़्मा थेरेपी एक थोड़ी सी आशा है। कई वैज्ञानिकों और रिसर्च करने वालों का मानना है कि जब तक कोरोना की कोई वैक्सीन नहीं बन जाती, तब तक प्लाज़्मा थेरेपी का इस्तेमाल किया जा सकता है।

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