Tuesday 7 April 2020

बुरी तरह बीमार हैं ग्रामीण भारत के अस्पताल

--विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष


भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है। देश की 80 फीसदी शहरी और 90 फीसदी ग्रामीण आबादी अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं


स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं


हमारा देश स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है


  • देवेश मिश्रा

सुबह-सुबह ही गाँव में हल्ला होने लगा। एक छोटे बच्चे को साँप ने काट लिया था। बच्चे के माँ-बाप उसे लेकर गाँव में ही मंदिर की मुँडेर पर बैठकर रो रहे थे। सारा गाँव उन्हें चारों तरफ़ से घेरकर तमाशा देख रहा था। किसी ने उन्हें बताया कि बग़ल के एक गाँव में कोई झाड़-फूँक करता है जो इसे ठीक कर देगा। वे बच्चे को लेकर उस ओझा/तांत्रिक के पास गए. तांत्रिक लगभग एक घंटे तक लगातार उस बच्चे को कभी कोई जड़ी पीसकर पिला रहा था तो कभी पानी में कुछ घोलकर उससे नहला रहा था. उसके बाद जब कोई असर नहीं हुआ तो उसने साँप के बारे में कुछ इधर-उधर की बातें बताईं और कहा कि ये ठीक नहीं हो सकता। 
फिर परिजन उसे दूसरे ओझा के पास ले गए। उसने भी काफ़ी देर तक ऊटपटाँग हरकत करके बच्चे से ज़हर झाड़ने की नाकाम कोशिश की। निराश परिजन शाम तक बच्चे को लेकर ज़िला अस्पताल पहुंचे। जिला अस्पताल में भी हालात अच्छे नहीं थे। आमतौर पर वहाँ बड़े डॉक्टर बिरले ही मिलते हैं बच्चे की जाँच हुई और डाक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। उसने परिजनों को भी खूब डाँट लगाई कि इसे तुरंत लेकर अस्पताल क्यों नहीं आए? इसकी जान बच सकती थी, ये कैसा अन्धविश्वास है


आज भी गाँव में नहीं हैं अच्छे सरकारी अस्पताल


आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश के ग्रामीण इलाक़े आज भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और सही जागरूकता के अभाव से जूझ रहे हैं। भारत के ग्रामीण इलाक़ों में सबसे ज्यादा मौतें सही समय पर उचित इलाज मिल पाने के कारण ही होती हैं। सरकारी हों या प्राइवेट, स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों का ऐसा जटिल तंत्र हमारे यहाँ बनाया गया है कि आज भी देश की बड़ी आबादी की पहुँच यहाँ तक मुश्किल ही जान पड़ती है। गाँव में ज़्यादातर आबादी निम्न मध्यमवर्गीय और खेतिहर होती है। बुख़ार-जुकाम हो या कोई और गंभीर रोग, लोग उसे सस्ती और सुलभ दवाओं की मदद से जल्दी ठीक कर लेना चाहते हैं। सस्ती स्वास्थ्य सुविधा की माँग करने में कोई बुराई नहीं है पर ग्रामीण इलाक़ों में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ दम तोड़ रही हैं। झोलाछाप डॉक्टर और प्राइवेट अस्पतालों का जाल पूरी तरह से फैला हुआ है। और प्राइवेट अस्पताल महँगे हैं, जिनकी तक इन ग़रीबों की पहुँच नहीं होती।


उत्तर प्रदेश के कौशांबी ज़िले के रोहित बताते हैं कि ज़िला अस्पताल में चाहे जब जाओ कभी भी समय पर डॉक्टर नहीं मिलते। ओपीडी में भीड़ भी बहुत होती है और मुख्य डॉक्टर कभी जाँच करते ही नहीं। उसके असिस्टेंट-कम्पाउंडर ही सारा अमला सँभाले रहते हैं। ऐसे में कौन सरकारी अस्पताल जाए, जहां आपकी जान ख़तरे में हो ! कई कई बार तो ऐसा होता है कि सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के बाद भी कोई सुधार नहीं होता तो मजबूरन हमें निजी अस्पतालों का रुख़ करना पड़ता है।

ओझा और तांत्रिकों के पास जाने को मजबूर


हालाँकि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति की है लेकिन जनसंख्या वृद्धि की तुलना में ग्रामीण भारत तक इसकी पहुँच सिफ़र है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की तादाद 66 फ़ीसदी बढ़ी है। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बिस्तरों की संख्या मात्र 5.1 फ़ीसदी ही बढी। देश  के अस्पतालों में औसत बिस्तर घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बिस्तर की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बिस्तर सालभर खाली पड़े रहते हैं।


आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72 फ़ीसदी जनसंख्या निवास करती है, वहां अस्पतालों के कुल बिस्तर का 19 फीसदी तथा चिकित्साकर्मियों का 14 फ़ीसदी ही पाया जाता है। ऐसे में गाँव में रहने वाली एक बड़ी आबादी के स्वास्थ्य पर गहरा संकट दिखाई देता है। ये एक बड़ा कारण है कि गाँव में झोलाछाप डॉक्टरों और ओझा तांत्रिकों की भरमार है.ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। यहाँ 62 फीसदी विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49 फीसदी प्रयोगशाला सहायकों और 20 फीसदी फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरा कारण ये है कि बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवत्तायुक्त और सस्ती चिकित्सा सेवा नहीं मिलती जिससे वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं।

सरकारी उदासीनता का फ़ायदा निजी अस्पतालों को


राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68 फ़ीसदी देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होता है। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक उच्च मध्यमवर्गीय भारतीय निजी अस्पतालों की सेवा लेते हैं। हालाँकि एक बड़ी आबादी जो मज़दूरी करती है और ग़रीबी रेखा से नीचे है, वो आज भी सरकारी तंत्र के ही भरोसे है। पर अगर उनके पास भी पर्याप्त पैसे हो जाए तो वे प्राइवेट स्वास्थ्य सुविधा ही अपनाएंगे।


ग़ौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशतरूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है. दक्षेस देशों में, अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है। वर्ष 2017-18 और 2018-19 में स्वास्थ्य बजट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में गिरावट आई और यह मात्र 49 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में वर्ष 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का दो प्रतिशत ही खर्च किया गया। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। देश में डॉक्टरों की उपलब्धता का केवल दो फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में रहता हैं जहां भारत की 68 फ़ीसदी जनसंख्या रहती हैं। ऐसे में गरीब भारतीय सस्ती और झोलाछाप दवाएँ लेने को मजबूर हैं।

ग्रामीण महिलाओं की स्थित और भी बदतर


गाँव में इन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से सबसे ज़्यादा महिलाएँ प्रभावित होती हैं। गाँव में ही रहकर एक कॉलेज से बीटीसी करने वाली मनोरमा बताती हैं कि महिलाओं के लिए गाँव में बीमार होना किसी संकट से कम नहीं। एक तो कोई ज़्यादा ध्यान नहीं देता क्योंकि पैसे बहुत लगेंगे और शहर भी जाना पड़ सकता है। उनका इलाज तब तक नहीं कराया जाता, जब तक घर का काम चलता रहता है या फिर आसपास के ही डॉक्टरों से दवा लेकर वे घर बैठ जातीं हैं। एक वक्त ऐसा भी हो जाता है कि औरतें अपनी बीमारी के बारे में बताना ही बंद कर देती हैं जिससे कई बार बहुत समस्या हो जाती है। गाँव में कई महिलाओं की प्रसव पीड़ा और कई अन्दरूनी बीमारियों के कारण मौत हो जाती है। ग़ौरतलब है कि भारत में अभी भी प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा मृत्यु दर काफ़ी ज्यादा है। यहाँ हर माह लगभग 80 हज़ार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। भारत में महिलाएँ एवं बच्चे बड़ी तादाद में कुपोषण के शिकार हैं। ये सारे आँकड़े बेहद डराने वाले हैं।

1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से भारत में विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। सरकारी क्षेत्र में समुचित मानक और नियमों-मानकों की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70 फ़ीसदी जनता उसे वहन करने में सक्षम नहीं है। हालांकि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं लेकिन केवल 12 फ़ीसदी देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं। ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को तो सरकारी योजनाओं की भनक तक नहीं लगती, उसका लाभ लेना तो दूर की बात है।

खेत बेचकर कराते हैं इलाज


इस समस्या का एक और पहलू है। महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41 फ़ीसदी भर्ती होने वाले और 17 फीसीद वाह्य रोगी (ओपीडी में जाने वाले) कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। 

उत्तर प्रदेश के ही फ़तेहपुर ज़िले के अरविंद पिछले तीन साल से अपने पिता का इलाज शहर के एक बड़े निजी अस्पताल में करा रहे हैं। शुरुआत में तो जो थोड़े पैसे थे उससे काम चल गया पर वे पर्याप्त नहीं थे उन्हें अपना खेत गिरवी रखकर क़र्ज़ लेना पड़ा और उससे भी बात नहीं बनी तो खेत बेचना पड़ा। एक किसान के लिये इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है कि उसे अपनी रोज़ी रोटी का साधन ही बेचना पड़े। उनका कहना था कि मरना तो है ही, चाहे भूख से मरें या बीमारी से। उनकी कही ये बात भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं की हक़ीक़त बयान करती है।

ग्रामीण भारत में बीमार अस्पतालों के लिए देश का चिकित्सा पाठ्यक्रम भी उत्तरदायी है। चिकित्सा पाठ्यक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। मेडिकल शिक्षा का मुख्य ज़ोर इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाए। जो रोग गरीबी की देन हैं, उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण का इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है ना तो इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश होती है और उसके लिये पुख़्ता सरकारी मदद मुहैया कराई जाती है।

दवा भी मयस्सर नहीं


किसी भी देश का सामाजिक-आर्थिक विकास उस देश के सेहतमंद नागरिकों पर निर्भर करता है। भारत की सकल राष्ट्रीय आय की दृष्टि से यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन जब बात स्वास्थ्य सेवाओं की आती है तो हमारी स्थिति काफी दयनीय है। ग्रामीणों को सस्ती और जवाबदेह चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए 12 अप्रैल 2005 से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत हुई। इसके तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य संकेतक वाले राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन ऐसी कितनी ही योजनाएँ गाँवों में आकर दम तोड़ देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की कई रिपोर्टों से लेकर इस क्षेत्र में हुए अनेक सर्वेक्षण यह बताते हैं कि हमारी सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था सुधरने की बजाय और बदहाल होती जा रही है।

भारत में स्वास्थ्य संबंधी कई चुनौतियाँ हैं। किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे पहला बुनियादी अधिकार होता है, लेकिन भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हजारों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है। इसका खुलासा शोध एजेंसीलैंसेटने अपनेग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीजनामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या आठ प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया हैं। लोगों का कहना है कि आप कभी भी सरकारी अस्पताल में इलाज कराइए, आपको वहाँ दवा नहीं मिलेगी। ये कह दिया जायेगा कि यहाँ दवा ख़त्म है, जाकर बाहर मेडिकल स्टोर से खरीद लीजिये। हर डॉक्टर का अपना मेडिकल स्टोर फ़िक्स होता है जो उन्हें कमीशन देता है। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए पेशा बन चुका है।

कहां जाए गरीब


यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में जहां आज भी लोग आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार हैं, वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में क्यों सौंपा गया ? एक अध्ययन के अनुसार, स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसीअर्न्स्ट एंड यंगद्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं।


गाँवों में स्वास्थ्य क्षेत्र से संबंधित सबसे प्रमुख चुनौती है आबादी के अनुपात में अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी। सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाओं, आधारभूत संरचना, दवाइयों, कुशल प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ एवं अन्य सुविधाओं की भारी कमी है। भारत में आर्थिक असमानता के कारण स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में भी काफी विषमता है। निजी अस्पतालों की वज़ह से संपन्न लोगों को तो अच्छा इलाज मिल जाता है, किंतु गरीब एवं निर्धन लोगों के संबंध में यह स्थिति काफी चिंताजनक बनी हुई है। इन दिनों गाँव में खेती की कटाई-बिनाई का सीजन चल रहा है और बहुत सारे मज़दूर दिन-रात कटाई के काम में लगे हैं। कई बार ट्रैक्टर और कटाई मशीन या फिर थ्रेसर से उन्हें गंभीर चोट जाती है। लेकिन उन्हें ही कोई प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा मिल पाती है और ही बाद में समुचित सरकारी स्वास्थ्य सुविधा का लाभ। वो अपनी सारी जमापूँजी उसी इलाज में खर्च कर देते हैं।
प्रतापगढ़ ज़िले के एक रिटायर्ड शिक्षक केदारनाथ का कहना है कि यह एक विडंबना ही है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है ! ऐसे हालात में निजी अस्पताल कुकरमुत्ते की तरह हर तरफ़ छाप हुए हैं. इन अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना हैं। लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा हैं कि मरीज को अपना घर, जमीन खेत गिरवी रखने के बाद भी बैंक से लोन लेने की नौबत जाती है. नतीजा ये है कि महँगी होती स्वास्थ्य सेवाओं के कारण आम आदमी द्वारा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई विशेषज्ञों के अनुसार, भारत में यह गरीबी बढ़ाने का एक प्रमुख कारण है। देश में लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के मूल में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और जनता में अपने अधिकारों के प्रति चेतना का अभाव है। स्वास्थ्य सुविधाएँ देश में चुनाव का मुद्दा नहीं बन पातीं और ना ही लोग इसे ठीक करने के वादे पर वोट देते हैं। ऐसे में राजनेता भी कभी इस समस्या पर ध्यान नहीं देते और हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं। 

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