Tuesday 28 April 2020

कश्मीर के हालात, एक कश्मीरी पत्रकार की नज़र से

पुस्तक समीक्षा

लेकिन यह किताब कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन और उनकी बदहाली की चर्चा नहीं करती है 
  • आशुतोष तिवारी 
चेहरों के, दिलों के ये पत्थर, ये जलते घर
बर्बादी के सारे मंजर, सब तेरे नगर सब मेरे नगर, ये कहते हैं
इस सरहद पर फुफकारेगा कब तक नफरत का ये अजगर
हम अपने अपने खेतो में, गेहूँ की जगह चावल की जगह
ये बन्दूके क्यों बोते हैं
जब दोनों ही की गलियों में, कुछ भूखे बच्चे रोते हैं। 
--जावेद अख्तर

श्मीर के हालात पर साल 2008 में कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर की लिखी एक किताब आई थी- "कर्फ्यूड नाईट, मेमॉयर ऑफ वॉर इन कश्मीर।" इस किताब को उसी साल नॉन-फिक्शन कैटेगरी में क्रॉसवर्ड पुरस्कार भी मिला। लेखक बशारत पीर रेडिफ और तहलका पत्रिका में काम कर चुके हैं और फिलहाल, न्यूयॉर्क में रहते हुए 'दी न्यूयॉर्क टाइम्स’ के लिए काम कर रहे हैं। 

यह किताब भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के बिगड़ते हालात का चित्रण है। इसमें अलगाववादियों और भारतीय सुरक्षा बलों के बीच के टकराव और हिंसा से कश्मीरियों को होने वाले दर्द और नुकसान की कहानी है। क़रीब चार दशकों की लगातार हिंसा से कश्मीरी जनजीवन, संस्कृति और युवाओं का भविष्य किस तरह नष्ट होता रहा है, इसका वर्णन इस किताब में किया गया है। हालाँकि इस किताब में कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन की त्रासद घटना के बारे में कोई खास जिक्र नहीं है और उनकी मुश्किलों को लगभग अनदेखा कर दिया गया है. 

किताब की शुरुआत एक आत्मकथा की तरह होती है जिसमें लेखक ने अपने स्कूली समय में कश्मीरियों के अंदर भारत को लेकर बनती अवधारणा दिखाई है। वे अपने ही देश के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। लेखक खुद 14 साल की उम्र में अलगाववादियों से प्रेरित होकर जेकेएलएफ (जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) से जुड़ना चाहता है लेकिन उनका परिवार उन्हें समझा कर हॉस्टल से वापिस घर बुला लेता है। 

बाद में लेखक को तब गहरा झटका लगता है जब उनका एक चचेरा भाई अलगाववादी गुट से जुड़ जाता है और कुछ महीनों में ही सेना से हुए मुठभेड़ में मारा जाता है। इसके बाद लेखक को आगे की पढ़ाई के लिए कश्मीर से बाहर भेजा दिया जाता है। वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़कर दिल्ली में ही पत्रकारिता करने लगते हैं। 

लेकिन तभी साल 2001 में भारतीय संसद पर पाकिस्तानी आतंकवादियों का हमला होता है जिसमें कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के हाथ होने की पुष्टि होती है। इसके बाद लेखक तय करता है कि वह कश्मीर जाकर हालात का जायज़ा लेगा और उस पर लिखेगा। कश्मीर जाने के बाद लेखक को कई तरह की कहानियाँ पता चलती हैं जो आम कश्मीरी, सुरक्षा बलों और अलगाववादियों के बीच हुई घटनाएँ हैं लेखक बताते हैं कि आम कश्मीरी ना सिर्फ़ सुरक्षा बलों बल्कि अलगाववादियों की नज़र में भी शक के घेरे में रहते हैं। कई लोगों को अलगाववाद समर्थक आतंकवादियों ने सेना का जासूस और भारतीय समर्थक होने के शक में मौत के घाट उतार दिया। 

यह किताब हमें राजनीति और हिंसा की उस कड़वी सच्चाई से सामना करवाती है जिसमें नेताओं के स्वार्थी अहंकार के कारण आम लोगों की ज़िंदगी तबाह हो जाती है। लेखक ने एक ऐसे इंसान की कहानी का भी ज़िक्र किया है जिसने अलगाववादियों का साथ दिया लेकिन जब उसे मदद की ज़रूरत पड़ी तब उसे दुत्कार दिया गया। वह आदमी कहता है कि अलगाववादी नेताओं के पास आलीशान बंगले और गाड़ियाँ हैं और वे गरीबों को बन्दूक थमाकर उन्हें मौत की ओर धकेल रहे हैं।

यह किताब आपको कश्मीर के भटके युवाओं के बारे में भी बताएगी। किस तरह एके-47 थामना और अलगाववादियों का पहनावा वहाँ के युवाओं के लिए फैशन बन जाता है। लेखक ने कश्मीर की शिक्षा व्यवस्था के ख़राब हालात पर भी रोशनी डाली है। 

एक और महत्वपूर्ण बात इस किताब में उठाई गई है और वह है कश्मीर के भटके नौजवानों का इस्लामीकरण और पाकिस्तानीकरण। जहाँ 80 के दशक में जेकेएलएफ कश्मीर को आज़ाद करने का लक्ष्य लिए हुए था, वहीं 90 के दशक की शुरुआत के साथ ही जेकेएलएफ की जगह हिजबुल मुजाहिदीन का प्रभुत्व कश्मीर में बढ़ गया, जो कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहता है।प्रख्यात पत्रकार खुशवंत सिंह ने इस किताब के बारे में कहा था कि आज़ादी के समय जिस कश्मीर ने मुस्लिम पाकिस्तान की जगह सेक्युलर भारत को चुना, आज वहाँ हिंसा क्यों है, इसका कारण जानने के लिए इस किताब को पढ़ें। 

कुल मिलाकर लेखक ने कश्मीर के अंदरूनी हालात का इस किताब में बहुत मार्मिक चित्रण किया है। लेकिन कश्मीरी पंडितों की तकलीफों का विस्तार से उल्लेख न होना खटकता है.  

लेखक: बशारत पीर 
किताब: कर्फ्यूड नाईट मेमॉयर ऑफ वॉर इन कश्मीर

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