Tuesday 14 April 2020

ज़रूरत हुई तो मैं अपना बनाया संविधान भी जला दूँगा : डा. अम्बेडकर

बाबा साहेब ने कहा था कि बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते कि हम अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दे सकते,  इससे लोकतंत्र को नुकसान होगा

  • आकाश पांडे

आज जब हम बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 129वीं जयंती मना रहे हैं, तो हमें अपने देश के वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य को लेकर चिंता भी सता रही है बाबा साहब की थाती के रूप में जो संविधान हमारे पास है, उसकी प्रस्तावना में देश को संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के संकल्प की बात कही गई है। लेकिन यदि हम अपने मौजूदा समय में नजर डालें तो संविधान की प्रस्तावना में कही गईं अनेक बातें व्यवहार में दिखाई नहीं देती हैं और ऐसा लगता है कि संविधान में जिन आदर्शों और मूल्यों का उल्लेख है, उनसे आँखें मूंद ली गई हैं 

इसमें समाजवाद की बात तो कही गई है पर वर्तमान समय में देश नवउदारवाद की नीति से संचालित हो रहा है, जिसमें समाजवाद की जगह पूंजीवाद का बोलबाला है और जहाँ बेरोजगारी, भुखमरी अमीरी-गरीबी के बीच खाई दिन प्रतिदिन और चौड़ी होती जा रही है

क्या 70 साल बाद भी लागू हो पाया है संविधान?

संविधान में समानता की बात कही गई है किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा, ऐसा कहा गया है लेकिन क्या संविधान लागू होने के 70 साल बाद भी ऐसा हो पाया है? नहीं आज भी देश में छुआछूत का बोलबाला है आज भी हमारे देश में ऊना और भीमा कोरेगांव जैसी घटनाएं आम हैं आज भी देश के कई हिस्सों में दलितों को सिर्फ इसलिए घोड़ी नहीं चढ़ने दिया जाता है क्योंकि वो दलित हैं देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में आज भी कई छात्रों को प्रोफ़ेसर सिर्फ़ इसलिये रिसर्च के लिये एडमिशन नहीं लेते कि वे दलित हैं आज भी हमारे देश में पायल ताडवी और रोहित वेमुला जैसे होनहार छात्र जातीय असमानता का दंश झेलते-झेलते आत्महत्या कर लेते हैं रोहित वेमुला की आत्महत्या को यदि हम सिर्फ जातीय आधार पर देखेंगे तो हम शायद संपूर्ण आकलन पर नहीं पहुंच पाएंगे 

हमें रोहित की मौत को सस्ती शिक्षा पर हो रहे हमले के रूप में भी देखना होगा हमें ये समझना होगा कि सस्ती शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है कि ताकि समाज के निचले तबके यानी गरीब, पिछड़े, शोषित और वंचित लोगों तक सुलभता से शिक्षा को पहुंचाया जा सके जिससे वो अपना भविष्य बेहतर करने सकें 

ख़तरे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


हमारे संविधान में स्वतंत्रता की बात कही गई है, जिसके अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आती है लेकिन वर्तमान दौर में यह खतरे में दिखाई दे रही है इसी देश में पढ़ने, लिखने और आवाज उठाने के लिए कलबुर्गी, दाभोलकर, पनसारे व गौरी लंकेश जैसे लेखक, पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है इसी देश में खाने-पहनने के नाम पर लोगों की हत्या कर दी जा रही है अखलाक व पहलू खान आदि इसके उदाहरण हैं यहाँ महिलाओं को एक निश्चित समय के बाद घरों में कैद कर दिया जाता है, ऑनर किलिंग रेप जैसे अपराध लगातार बढ़ रहे हैं

'लोग शुरु से आख़िर तक भारतीय हों'


बाबा साहब ने कानून मंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में कहा था-  ‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा’ 

आज बाबा साहब की वो बात सही साबित होती दिख रही है आज देश में साम्प्रदायिकता अपने चरम पर है धर्म के नाम पर लोगों की सामूहिक हत्याएं हो रही हैं। कोरोना जैसी समस्या में भी एक खास कौम को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे में ये बिल्कुल साफ है कि मौजूदा दौर में संविधान के मूल्यों और बाबा साहेब के आदर्शों का क्षरण हुआ है सरकारों को भी हिन्दू- मुस्लिम से ऊपर उठकर समाज की भलाई पर ध्यान देना चाहिए बाबा साहेब कहते हैं- ‘कुछ लोग बोलते हैं कि हम पहले भारतीय हैं, बाद में हिंदू या मुसलमान मुझे यह स्वीकार नहीं है मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें भारतीय के अलावा कुछ भी हों


बाबा साहेब की विचारधारा के झंडाबरदार होने का दावा करने वाली राजनीतिक जमात ने भी सत्ता पाने के लिए साम्प्रदायिक और घोर जातिवादी विचारधारा से समझौते किए हैं। 

बाबा साहब ने राज्यसभा में एक बार कहा था कि छोटे समुदायों और छोटे लोगों को यह डर रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं। मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है। पर मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि इसे जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा। मुझे इसकी जरूरत नहीं, अगर यह किसी के लिए अच्छा नहीं है। फिर भी यदि हमारे लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहें तो हमें याद रखना होगा कि एक तरफ बहुसंख्यक हैं और एक तरफ अल्पसंख्यक। और बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते कि हम अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दे सकते क्योंकि इससे लोकतंत्र को नुकसान होगा।’ 

ज़ाहिर है कि बाबा साहब लोकतंत्र के असली मूल्यों के संरक्षक थे और बराबरी का दर्जा वह हर स्तर पर चाहते थे। आज देश की राजनीतिक जमात में उनके जैसे नेताओं की कमी बहुत खलती है।

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