Tuesday 14 April 2020

महिला अधिकार, हिंदू कोड बिल और डा. आम्बेडकर

अंबेडकर जयंती पर विशेष

महिला अधिकारों और आज़ादी के लिए बाबासाहेब ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने में भी संकोच नहीं किया 

  • करिश्मा सिंह


किसी समुदाय  की प्रगति को मैं इस आधार पर मापता हूं कि उस समुदाय की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है।

महिला आंदोलनों में आपने एक नारा सुना होगामांग रही, आधी आबादी-आज़ादी।” अक्सर यह प्रश्न उठता है कि आखिर यह आधी आबादी कौन है और यह किससे आज़ादी चाहती है? उत्तर बिलकुल आसान है। यह आधी आबादी दुनियाभर की महिलाएं हैं और जहां तक प्रश्न आज़ादी का है, तो इसका उत्तर स्पष्ट है कि ये महिलाएं अधिकारों के साथ ही स्वतंत्रता की मांग कर रही हैं। 

प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता की परिभाषा अलग हो सकती है। आधुनिक समाज में यह सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक स्वतंत्रता हो सकती है, जिसके आधार पर एक समतामूलक समाज की स्थापना की जा सकती है। 

साभार: न्यूजक्लिक 

भारत में स्त्रियों की स्थिति 

लितों जैसी 


यदि भारत के संदर्भ में देखें तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं का लिंगानुपात, शिक्षा, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा, सब कुछ उनकी दोयम स्थिति का सुबूत है। भारतीय समाज में जाति प्रथा और पितृसत्ता एक दूसरे के समानांतर चलते हैं। महिलाओं की निराशाजनक स्थिति के लिए यह दोनों जिम्मेदार हैं और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह एक-दूसरे के पूरक हैं। 

उत्तर वैदिक काल से ही महिलाओं की स्थिति जो खराब हुई, वह आज तक वैसी ही है। सती प्रथा, दहेज प्रथा, अशिक्षा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, बलात्कार, वैवाहिक बलात्कार और महिलाओं की खरीद-फरोख्त से लेकर तेजाब फेंकने की घटनाएं इसी समाज की सच्चाई हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि संविधान निर्माताओं के पास इसे बनाते समय सिर्फ दूरदृष्टि थी, बल्कि वह भारतीय समाज की तत्कालीन वास्तविकताओं से भी भलीभांति अवगत थे।


डॉ. अम्बेडकर को दलितों का मसीहा कहा जाता है क्योंकि वे वर्ण व्यवस्था की तह तक जाकर भारतीय समाज की विसंगतियों को सिर्फ सामने लाते हैं, बल्कि इसे खत्म करने के समाधान भी बताते हैं। कहना होगा कि भारत में स्त्रियों की स्थिति भीदलित” के समान ही रही है। सम्मान, शिक्षा और किसी भी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा एवं स्वतंत्रता के अभाव में भारतीय स्त्री का दर्ज़ा सदैव शोषित ही रहा है। चार वर्णों (ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में बंटा भारतीय समाज, स्त्री के प्रति सदैव कठोर ही रहा है। 

इस समाज को समझने के लिए इसकी गहराई में जाना जरूरी है। डॉ. अम्बेडकर इसी का प्रयास करते हैं।भारत में जाति प्रथानामक लेख में वह भारतीय समाज और विवाह व्यवस्था पर बात करते हुए स्त्रियों की अवस्था पर विस्तार से बात करते हैं कि कैसे जाति प्रथा को बनाए रखने के लिए स्त्री का शोषण किया गया। इसमें वह हिंदू समाज की तीन असाधारण रीतियों के बारे में बताते हैं:

1. सती या विधवा को उसके मृत पति के साथ जलाना
2. विधवा पुनर्विवाह निषेध
3. बालिका विवाह 

यह सब कुछ स्त्री को पुरुष के अधीन बनाए रखने के साधन थे। उसकी अभिव्यक्ति से लेकर यौनिकता तक सब कुछ एक पुरुष के द्वारा नियंत्रित करने की व्यवस्था भारतीय समाज में बहुत पहले से थी और आज भी यह बहुत हद तक बरकरार है। आज भी लोग घर में बेटी से पहले बेटे के जन्म की दुआएं मांगते हैं, आज भी हर दिन लगभग 90 बलात्कार रिपोर्ट किए जाते हैं, फिर भी इस देश में सबसे ज्यादा पूजादेवियोंकी होती है।

हिन्दू कोड बिल का विरोध


1947 में भारत को अंग्रेजों के शासन से स्वतंत्रता मिल गयी। लेकिन वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाजिक व्यवस्था जस की तस चलती रही। भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. अम्बेडकर के योगदान के लिए उन्हेंभारतीय संविधान का पिताभी कहा जाता है। 11 अप्रैल सन 1947 को डॉ. अम्बेडकर ने पहली बार हिंदू कोड बिल संविधान सभा में पेश किया था। सदन में इस बिल को पेश करते हुए उन्होंने कहा था- “ जो लोग संरक्षण करना चाहते हैं, उन्हें मरम्मत के लिए तैयार रहना होगा। मैं इस सदन से बस इतना कहना चाहता हूं कि यदि आप हिंदू प्रणाली, हिंदू संस्कृति और हिंदू समाज को बनाए रखना चाहते हैं तो जहां मरम्मत की आवश्यकता है, वहां संकोच करें। यह विधेयक हिंदू प्रणाली के उन सबसे जीर्ण हो चुके हिस्सों की मरम्मत के अलावा और कुछ नहीं मांगता है

ज़ाहिर है कि पहली बार में ही इस बिल का कड़ा विरोध हुआ क्योंकि यह सदियों से चली रही परंपरावादी हिंदू व्यवस्था के विरूद्ध था और दूसरा यह कि इसकी परिधि में मुस्लिमों को नहीं रखा गया था। यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और संविधान सभा के स्पीकर . अयंगर भी इसके विरोध में थे। 

कट्टर हिंदू संगठनों जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने सिर्फ इसका विरोध किया बल्कि इसे भारतीय संस्कृति का विरोधी भी बताया। संविधान प्रदत्त अधिकारों से पूर्व हिंदू संस्कृति में महिलाओं की स्थिति किसी से छुपी नहीं थी, सो आइए जानते हैं इस बिल की मुख्य बातें।

हिंदू कोड बिल के प्रमुख प्रावधान


1. हिंदू महिलाओं और विधवाओं को पिता की संपत्ति में पुत्र के बराबर का अधिकार।
2. विवाह, रख-रखाव, तलाक, गोद लेने संबंधी प्रावधान।
3.सिक्ख, जैन और बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों को भी इसकी परिधि में लाया गया।
4. विवाह संबंधों में किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव को खत्म किया गया।
5. सिर्फ एक जीवनसाथी रखने का प्रावधान।
6.किसी अन्य स्त्री को रखने, पत्नी के प्रति क्रूर व्यवहार या पुरुष के किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होने पर पत्नी को गुजारा भत्ता सहित अलग होने का अधिकार।

इस बिल के आने से पहले हिंदू महिलाओं को कोई निश्चित सांवैधानिक उपचार प्राप्त नहीं थे और कानूनों की व्याख्या का आधार प्राचीन ग्रंथ ही थे संपत्ति के अधिकार से संबंधित दो तरह के नियम प्रचलित थे- मिताक्षर नियम और दयाभाग नियम।


मिताक्षर नियमके अनुसार एक हिंदू की संपत्ति उसकी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है बल्कि वह एक समूह के स्वामित्व में होती है। इसके अंतर्गत  पिता, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र शामिल हैं यानि इन लोगों के पास उस संपत्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। 

 “दयाभाग नियम के अंतर्गत मृत सदस्य की संपत्ति व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में उसके उत्तराधिकारी के स्वामित्व में चली जाएगी और उसे किसी भी रूप में उस संपत्ति को बेचने या हस्तांतरित करने का पूर्ण अधिकार होगा।

हिंदू कोड बिल इस दयाभाग के नियम को अपनाता है। बिल के विरोध में कट्टरवादी हिंदू संगठन डॉ. आम्बेडकर पर जातिवादी टिप्पणियां करने से भी नहीं कतराए। स्वामी करपात्री महाराज ने कहा किएक अछूत को ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है।इस प्रकार कड़े विरोध के कारण यह बिल पारित नहीं हो पाया, जिसके चलते डॉ. अम्बेडकर ने 27 सितंबर वर्ष 1951 को मंत्रीपरिषद से इस्तीफा दे दिया। 

हालांकि बाद में इसे चार हिस्सों में बांटकर पारित किया गया। वर्ष 1955 में इसके पहले भाग को हिंदू मैरिज एक्ट के नाम से पास किया गया। आगे के वर्षों में हिंदू दत्तक एवं भरण पोषण अधिनियम 1956, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 और हिंदू माइनॉरिटी एवं गार्डियनशिप एक्ट 1956 पास किया गया। 

अभी दूर है महिलाओं की मंज़िल


दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के पास दुनिया का सबसे लंबा संविधान है। जाहिर है कि यह इतना लंबा इसीलिए है कि संविधान निर्माताओं के पास सिर्फ एक बेहतरीन विज़न था बल्कि वे यह भी जानते थे कि भारतीय समाज की जटिलताओं से निपटने के लिए हमें क्या चाहिए। सभी को प्राप्त सार्वभौम वयस्क मताधिकार इस बात की बानगी भर है। भारतीय संविधान में महिलाओं को बराबरी को दर्जा तो मिला लेकिन वह उनकी सामाजिक स्थिति को उतना बेहतर नहीं कर पाया जितने की हमें आवश्यकता है। ऐसा क्यों हुआ, यह समझने के लिए आपको उसी रास्ते जाना पड़ेगा, जिस राह पर अम्बेडकर हमें ले जाना चाहते थे। 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’  के नारे को आज भी हमें जीवन में आत्मसात करने की जरूरत है। 



ऐसा नहीं है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधरी नहीं है, पर जिस समानता का प्रयास डा. आम्बेडकर ने किया थावह अभी दूर है। आंकड़े अभी भी इस असमानता की गवाही देते हैं। भारत के असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही महिला मज़दूर मात्र अपने जेंडर के कारण कम पैसों में ही संतोष कर लेती है। लेकिन यह पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब यह महिला दलित जाति से होती है क्योंकि यह देखा गया है कि तथाकथित निचली जाति की महिलाओं पर बलात्कार और यौन हिंसा को तथाकथित उच्च जातियां अपना अधिकार समझती हैं। जातिगत हिंसा के मामलों में सबसे पहले महिलाओं को हिंसा का शिकार बनाया जाता है।  

डॉ. अम्बेडकर के पहले बहुत से समाज सुधारकों जैसे राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले महात्मा गांधी  ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए काम किए लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय महिलाओं को सांवैधानिक सशक्तीकरण की राह दिखायी। यह वही अधिकार हैं, जिनके बल पर महिलाओं ने विज्ञान से लेकर आकाश तक अपना परचम लहरा दिया है। 

भारत के लोकतंत्र ने महिलाओं को समानता का दर्जा देने के प्रयास तो किया पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। आज जरूरत है उन अभावों को स्वीकार करने की है, जिनके चलते महिलाओं की स्थिति अभी भी दयनीय बनी हुई है। महिलाओं के लिए राजनीतिक और सांवैधानिक अधिकारों के साथ ही सामाजिक विषमताओं को भी दूर करने की ज़रूरत है। 

डॉ. अम्बेडकर इसीलिए विशिष्ट हैं क्योंकि वह सिर्फ दलितों बल्कि स्त्री अधिकारों के लिए अंत तक डटे रहे। उन्होंने विवाह व्यवस्था में स्त्री को पुरुष का पूरक माना, उसके अधीन कोई भौतिक वस्तु या संपत्ति नहीं।स्त्रीधर्मसे इतर उन्होनें स्त्री को सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण की राह दिखायी, स्त्री अधिकारों को संविधान में सिर्फ लिखा गया बल्कि वे लागू भी हुए। 

समान वेतन से लेकर असंगठित और निजी क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की नौकरी की सुरक्षा हो या मातृत्व लाभ देने की बात, यह सब अभी भी बड़ी चुनौती हैं। समाज को एक बार फिर से डॉ. अम्बेडकर के विचारों और मूल्यों की ओर लौटना होगा। अपनी सामाजिक व्यवस्था के साथ ही न्यायिक व्यवस्था में भी सुधार करना होगा ताकि कोई स्त्री अपने अधिकारों का हनन होने पर उन्हें वापस पा सके, तभी हम डॉ. अम्बेडकर के सपनों वाला समतामूलक समाज स्थापित कर पाएंगे। 

ऐसे में, दलित लेखिका सुशीला टाकभौरे की कविता “ घर के चौखट के बाहर” आज  भी प्रासंगिक जान पड़ती है। वह लिखती हैं

दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
झाँकती औरत
दरवाज़े से बाहर देखती है
गली-मोहल्ला शहर संसार

आँख, कान, विचार स्वतन्त्र हैं
बन्धन हैं सिर्फ़ पाँव में
कुल की लाज
सीमाओं का दायरा
घर की चौखट तक
मायका हो या ससुराल
दरवाज़े के पीछे
परदे की ओट से
वह देखती है संसार
समझने लगी है सब
फिर भी है चुप
हिलाकर हाथ अपने
स्वयं पकड़ लेती है बन्धन
जकड़े रहने देती है पाँव

अब
आने वाली पीढ़ियों को
बचाना होगा।
रास्ता देना होगा
आगे बढ़कर
घर की चौखट से बाहर निकलना होगा 

(स्त्रोत: कविता कोश)

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