Wednesday 22 April 2020

शोषण के इस दौर में खूब याद आते हैं लेनिन

मजदूर यूनियनों की हालत राज्य और उद्योगपतियों ने मिलकर इतनी खराब कर दी है कि आज मजदूर यूनियन, अपने मजदूरों के हक की लड़ाई भी नहीं लड़ पाते


आकाश पांडे

जन्मदिवस पर विशेष

"पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे की दुनिया के स्वामी

रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं

मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है

जन्म देने वाली मिट्टी में

माँ के पेट में, आँखों से ओझल गहरे रहस्य में

विचित्र उस कण ने अपने को जिला रखा है

मिट्टी उसे ताक़त देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी

उगेगा वह एक नये जन्म में

एक नयी आज़ादी के बीच वह लायेगा

फाड़ डालेगा बर्फ़ की चादर वह विशाल वृक्ष

अपने लाल पत्तों को फैला कर वह उठेगा

दुनिया को रौशन करेगा

सारी दुनिया को, जनता को

अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा।

ये लेनिन की दुर्लभ कविता की कुछ पक्तियाँ हैं, जो हमारे अंधकारमय समय के लिए भी अत्याधिक प्रासंगिक हैं I यह कविता लेनिन ने साल 1905-7 की रूसी क्रान्ति की विफलता के बाद लिखी थी। लेनिन की यह सम्भवत: एकमात्र कविता हमारे समय की कविता की वसीयत हो सकती है। आने वाले समय के नाम, भावी पीढ़ियों के नाम।

क्रांति के अग्रदूत थे लेनिन 

दुनिया की पहली सफल समाजवादी मजदूर क्रांति के अगुआ लेनिन एक क्रांतिकारी, राजनीतिज्ञ और सिद्धांतकार भी थे। वो साल 1917 की रूसी क्रांति के अगुआ थे, जिसने जार की सत्ता को उखाड़ कर मजदूरों की सत्ता को स्थापित किया था। लेनिन के नेतृत्व में ही दुनिया में पहले समाजवादी राज्य की स्थापना हुई थी।

लेनिन का जन्म रूस के सिंविर्स्क नामक शहर में 22 अप्रैल 1870 को एक अमीर मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था लेनिन का वास्तविक नाम व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव था उस समय रूस में जारशाही का आतंक था लेनिन जब 13 साल के थे तभी उनके बड़े भाई अलेक्सांद्र को जार की हत्या के प्रयास में फांसी दे दी गई और उनकी बहन को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया राज्य की इन दमनकारी शोषक कार्रवाइयों से लेनिन डरे नहीं और मज़दूरों को गोलबंद करने का उनका अभियान चलता ही रहा

लेनिन ने कानून की पढ़ाई की इस दौरान उन्होंने विद्यार्थियों के विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया वो रूसी क्रान्तिकारी विचारक प्लेखानोव द्वारा बनाये गयेश्रमिक मुक्ति दलमें  सक्रिय रूप से भागीदारी करने लगे। यहीं उनका परिचय कार्ल मार्क्स तथा फ्रे़डरिक एंगेल्स की रचनाओं से हुआ। फिर वे रूस के औद्योगिक शहर सेंट पीटर्सबर्ग में मज़दूरों को संगठित करने के काम में जुट गये। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर मज़दूरों के कई अध्ययन मण्डल शुरू किये और फिरश्रमिक मुक्ति के लिए संघर्ष की सेंट पीटर्सबर्ग लीगनामक संगठन में सबको एकजुट किया। उन्होंने कहा कि मज़दूरों को सत्ता हथियाने के संघर्ष में भाग लेना चाहिए, ना केवल अपनी तनख़्वाह बढ़वाने और कुछ सुविधाएँ हासिल करने की लड़ाई में


अखबार को बनाया हथियार


सर्वहारा को शिक्षित करने और साम्यवाद की सरल व्याख्या कर इसे जनता तक पहुँचाने के लिए लेनिन ने "इस्क्रा" नामक क्रांतिकारी अखबार की शुरुआत की। अखबार छापने के लिए लेनिन को रूस छोड़ना पड़ा। रूस में रहते हुए भला कोई ज़ार, ज़मींदारों-उद्योगपतियों और पुलिस अफ़सरों के ख़िलाफ़ अख़बार छापने के लिए तैयार होता? व्लादीमिर इल्यीच ने जैसे-तैसे डॉक्टरी सर्टिफ़िकेट का इन्तज़ाम किया और इलाज के बहाने विदेश रवाना हो गये। उनके अखबार इस्क्रा का पहला अंक जर्मनी से प्रकाशित हुआ।
जब अखबार का पहला अंक लेनिन के हाथ में आया तो उन्होंने कहाअब हमारे पास अपना, मज़दूरों का क्रान्तिकारी अख़बार है ! उड़ चलो, हमारे अख़बार, वतन की तरफ़ ! करो पैदा जागृति और उभारो क्रान्ति के लिए!”

क्रांतिकारी प्रयासों में अखबारों की जरूरत पर लेनिन ने लिखा है-
"आज जबकि शिक्षित समाज ईमानदार, ग़ैरक़ानूनी साहित्य में दिलचस्पी खोता जा रहा है, मज़दूरों के बीच ज्ञान के लिए और समाजवाद के लिए एक उत्कट अभिलाषा पनप रही है, मज़दूरों के बीच से सच्चे वीर सामने रहे हैं, जो अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के बावजूद, कारख़ाने के जड़ीभूत कर देने वाले श्रम के बावजूद, ऐसा चरित्र और इतनी इच्छाशक्ति रखते हैं कि लगातार अध्‍ययन, अध्‍ययन और अध्‍ययन के काम में जुटे रहते हैं और ख़ुद को सचेतन सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) – ”मज़दूर बौद्धिकबना लेते हैं। रूस में ऐसेमज़दूर बौद्धिकअभी भी मौजूद हैं और हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए कि इनकी कतारें लगातार बढ़ती रहें, इनकी उन्नत मानसिक ज़रूरत पूरी होती रहे और कि, इनकी पाँतों से रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी (रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का तत्कालीन नाम) के नेता तैयार हों।"

क्यों याद किये जाते हैं लेनिन


वर्तमान समय में मजदूरों की, मजदूर यूनियनों की हालत देखकर लेनिन का ये कथन बरबस ही याद जाता है "आज मजदूर के बच्चे भूखों मर रहे हैं, मेंढ़क पकड़ कर खाने को मजबूर हैं लेकिन उनकी सुधबुध लेने वाला कोई नजर नहीं रहा है। मजदूर यूनियनों की हालत भी राज्य और उद्योगपतियों द्वारा इतनी खराब कर दी गई है कि आज मजदूर यूनियन अपने मजदूरों के हक की लड़ाई भी ढंग से नहीं लड़ पा रहे हैं।

लेनिन ने अपने विश्लेषण के माध्यम से यह दिखाया कि साम्राज्यवाद, पूँजीवाद की अन्तिम अवस्था है और सर्वहारा क्रान्तियाँ साम्राज्यवाद के युग का अन्त कर देंगी। उन्होंने यह भी बताया कि बड़े-बड़े पूँजीवादी देशों ने ग़रीब और पिछड़े देशों को लूटकर उसके एक हिस्से से अपने देश के मज़दूरों को कुछ सुविधाएँ दे दी हैं। इस वजह से इंग्लैण्ड, फ़्रांस, जर्मनी जैसे देशों में मज़दूरों का एक हिस्साअभिजात्य मज़दूरबन गया है और अब इसके लिए क्रान्ति का कोई मतलब नहीं रह गया है। लेनिन ने कहा कि पिछड़े देश साम्राज्यवाद की ज़ंजीर की कमज़ोर कड़ियाँ हैं और अब पहले इन्हीं देशों में क्रान्तियाँ होंगी।

अपने क्रांति के सपने को साकार करते हुए लेनिन ने अक्टूबर वर्ष 1917 में  रूस को जार के अत्याचारों से आजाद कराया और समाजवादी राज्य की स्थापना की। जमींदारों की जमीनों को बिना उन्हें मुआवजा दिए लेकर मजदूरों में बांट दिया गया। उद्योगों पर सरकार का नियंत्रण हो गया।
दुनिया के इतिहास में जिसकी रुचि होगी, उसे रुसी क्रांति से जुड़े कुछ मूलभूत तथ्य निश्चित ही पता होंगे। लोगों को यह जानना जरूरी है कि रूसी क्रांति दो चरणों में हुई थी। पहला चरण फरवरी-मार्च का रहा था और दूसरा, अक्टूबर-नवंबर का था पहले चरण में रुस के शासक ज़ार निकोलस को अपनी सत्ता छोड़नी पड़ी थी इसके बाद रुस में मिलीजुली एक सरकार बनी इसमें राजसत्ता के प्रति वफादारी रखने वालों का ही बहुमत था इसका नेतृत्व एलेक्ज़ेडर करेंस्की ने किया करेंस्की का जन्म भी उसी शहर में हुआ था, जहां के लेनिन थे। यानी क्रांति के दोनों चरणों के नेतृत्वकर्ता एक ही शहर में जन्मे थे जब यह सरकार किसानों की, प्रथम विश्व युद्ध में लगे सैनिकों की और कारखानों के मज़दूरों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकी तो लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने दूसरी क्रांति कर पूरी व्यवस्था ही बदल दी अक्टूबर-नवंबर में चले क्रांति के इस चरण को ही वास्तविक क्रांति की संज्ञा दी जाती है इसे बोल्शेविक क्रांति या अक्टूबर क्रांति भी कहा जाता है

उसके बाद से ही साल 1917-1921 के बीच रूस लगातार गृहयुद्ध से जूझता रहा इसी दौरान वर्ष 1918 में दुश्मनों द्वारा चलाई गई गोलियों से लेनिन बुरी तरह घायल हो गए और पूरी तरह कभी स्वस्थ हो पाने के कारण 21 जनवरी 1924 को उनका निधन हो गया

लेनिन की विरासत


रुस की इस समाजवादी क्रांति ने जनता को वास्तविक रूप से स्वतंत्रता समानता का अधिकार दिया। प्रत्येक नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास की गारंटी दी गयी। जंमीदारों-पूजीपतियों की सम्पत्ति को जब्त कर इस पर मज़दूरों और किसानों का मालिकाना हक़ कायम किया गया। लेनिन के नेतृत्व में हुयी समाजवादी क्रांति ने रुस जैसे बेहद पिछड़े देश को विकसित मुल्कों से भी आगे की कतारों में ला खड़ा किया।

रूस के इस समाजवादी राज्य से समूची दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित राष्ट्रों मेहनतकश जनता के संघर्षों को जहां एक नई रोशनी मिली, वहीं दुनिया के पूंजीपति साम्राज्यवादी बेहद भयभीत हो गये। लेनिन और समाजवादी क्रांति का भूत आज भी दुनिया के पूंजीपतियों साम्राज्यवादियों को डराता है। वे अपने प्रचार माध्यमों से लेनिन की छवि एक तानाशाह के रुप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

कुछ समय पहले भारत में कई जगह महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ने की घटनाएं सामने आई थीं इन घटनाओं की शुरुआत त्रिपुरा से हुई थी विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद यहां के बेलोनिया में रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को गिरा दिया गया इस घटना के बाद देखते ही देखते देश भर में लेनिन को लेकर बड़ी बहस शुरू हो गई जहां एक तरफ लेनिन के समर्थक उन्हें समाजवादी बता रहे थे, वहीं आलोचक उन्हें ऐसा तानाशाह बताते नजर आए जो बड़े पैमाने पर राजनीतिक अत्याचार और हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार रहा लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने की घटना को एक बड़े तबके ने भारतीय समाज और लोकतंत्र की अपरिपक्वता से भी परिभाषित किया


आज दुनिया भर के मजदूरों को उनकी ताकत का आभास कराने वाले लेनिन की 150वीं जयंती है। हम वर्तमान समय में अपने देश भारत में मजदूरों और  किसानों की स्थिति से भलीभांति वाकिफ हैं आज हमारे देश में मजदूर मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरस रहे हैं हमारे देश के मजदूरों को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा नसीब नहीं हो रही है ऐसे में मजदूर यूनियनों को लेनिन से प्रेरणा लेकर मजदूरों और किसानों के लिए मूलभूत सुविधाओं सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए संघर्ष करना चाहिए आज के समाज में ग़रीबों और वंचितों का शोषण इस कदर बढ़ चुका है कि दुनिया को एक और लेनिन की ज़रूरत महसूस होने लगी है,, जो हर जगह बराबरी क़ायम कर दे। ना कोई अमीर हो और ना कोई गरीब। बस, सब बराबर दर्जे वाले इंसान हों।

 प्रसिद्ध जर्मन कवि एवं नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने लेनिन के क्रांतिकारी जीवन और क्रांति की उत्कट अभिलाषा पर एक कविता लिखी-लेनिन ज़िन्दाबाद

पहली जंग के दौरान
इटली की सानकार्लोर जेल की अन्धी कोठरी में
ठूँस दिया गया एक मुक्ति योद्धा को भी
शराबियों, चोरों और उच्चकों के साथ।
ख़ाली वक़्त में वह दीवार पर पेन्सिल घिसता रहा
लिखता रहा हर्फ़--हर्फ़ 
लेनिन ज़िन्दाबाद!
ऊपरी हिस्से में दीवार के
अँधेरा होने की वजह से
नामुमकिन था कुछ भी देख पाना
तब भी चमक रहे थे वे अक्षर- बड़े-बड़े और सुडौल।
जेल के अफ़सरान ने देखा
तो फौरन एक पुताई वाले को बुलवा
बाल्टी-भर क़लई से पुतवा दी वह ख़तरनाक इबारत।
मगर सफ़ेदी चूँकि अक्षरों के ऊपर ही पोती गयी थी
इस बार दीवार पर चमक उठे सफ़ेद अक्षर:
लेनिन ज़िन्दाबाद!

तब एक और पुताई वाला लाया गया।
बहुत मोटे ब्रश से, पूरी दीवार को
इस बार सुर्ख़ी से वह पोतता रहा बार-बार
जब तक कि नीचे के अक्षर पूरी तरह छिप नहीं गये।

मगर अगली सुबह
दीवार के सूखते ही, नीचे से फूट पड़े सुर्ख़ अक्षर
लेनिन ज़िन्दाबाद!

तब जेल के अफ़सरान ने भेजा एक राजमिस्त्री।
घण्टे-भर वह उस पूरी इबारत को
करनी से खुरचता रहा सधे हाथों।
लेकिन काम के पूरा होते ही
कोठरी की दीवार के ऊपरी हिस्से पर
और भी साफ़ नज़र आने लगी
बेदार बेनज़ीर इबारत
लेनिन ज़िन्दाबाद!

तब उस मुक्तियोद्धा ने कहा,

अब तुम पूरी दीवार ही उड़ा दो !

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