Wednesday 8 April 2020

क्या भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा जानबूझकर मुस्लिमों को विलेन बनाने में लगा है?

कोरोना संकट में भी असल मुद्दों से हटकर टीवी पर हो रही है हिन्दू-मुस्लिम डिबेट

  • मोहम्मद सलमान

कोरोना महामारी के भारत में फैलने से लेकर अब तक मुख्यधारा के भारतीय समाचार मीडिया के एक बड़े हिस्से की अब तक की कवरेज पर नज़र डालेंगे तो समझ आएगा कि वह हमेशा की तरह हिन्दू-मुस्लिम डिबेट को शह देकर देश को असल मुद्दों से भटकाने की कोशिश कर रहा है। दुनिया पर आई इतनी बड़ी आफ़त के काल में भी भारतीय मीडिया, ख़ासकर न्यूज चैनलों की ये हरकत अफ़सोसनाक ही नहीं है बल्कि अपराध की श्रेणी में भी आती है। लगता है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कोरोना संकट पर सरकार की कमियों और नाकाफ़ी तैयारियों के मद्देनज़र मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए जानबूझकर इसे साम्प्रदायिक रंग दे रहा है। 

एकतरफ़ा ख़बर दिखा रहा है मीडिया

ऐसा लगता है कि जब राज्य अपनी ग़लतियों के चलते जनता के सामने निरुत्तर हो जाता है तो वह असल मुद्दे को बायपास करके किसी और मुद्दे पर सरकार समर्थक मीडिया को लगा देता है। दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ यानी तबलीगी जमात वाला मामला वही बायपास है कोरोना की तैयारियों के मद्देनज़र चिकित्सा व्यवस्था से जुड़े सवाल ग़ायब कर दिए गए हैं। अब मीडिया एक नैरेटिव गढ़ रहा है जिसके अनुसार भारत में कोरोना जमात वालों की वजह से ही फ़ैल रहा है। 

सोशल मीडिया और अल्टरनेट मीडिया पर ऐसी बहुत सी ख़बरें आई हैं, जिनसे पता चलता है कि अन्य धर्मों के अनुयायियों ने भी लॉकडाउन का उल्लंघन करते हुए धार्मिक कार्यक्रम किए लेकिन उनमें से कितनों की जाँच हुई, इसका कोई डाटा नहीं है। साथ ही पूरे भारत में असल में कोरोना के कितने मरीज हैं इसका भी कोई पुख्ता डाटा भारत सरकार के पास नहीं है क्योंकि भारत का हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना कमजोर है कि सभी की जाँच हो ही नहीं पा रही है। कोरोना की कम जाँच पर विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं और सरकार इस बारे में कुछ बोल ही नहीं रही।  

गलती जमात से हुई या सरकार से या दोनों से?

ज़ाहिर है, मरकज़ द्वारा इस नाजुक वक़्त में धार्मिक आयोजन करना निश्चित रूप से एक गैर-जिम्मेदाराना हरकत थी. आयोजन भले ही 13 से 15 तारीख के बीच हुआ हो मगर वह भी अनुचित था. इसलिए जमात का बचाव इस स्तर पर तो नहीं किया जा सकता कि उसने जो भी किया सही किया. जमात का बचाव न तो घटना के स्तर पर किया जा सकता है, न ही विचारधारा के स्तर पर. खासकर इंदौर की घटना की जितनी भर्त्सना की जाए उतनी कम है. लेकिन इसके भी कई पक्ष हैं। कुछ तथ्य रखता हूं। तब्लीगी जमात का आयोजन 13 से 15 मार्च के बीच हुआ। ये वो समय था, जब देश में कोरोना तेज़ी से फैल रहा था और न्यूज एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार, 13 मार्च तक देश में कोरोना मरीज़ों की तादाद 81 तक पहुँच गई थी। फिर भी केंद्र सरकार के एक बड़े अधिकारी ने उस दिन की प्रेस वार्ता में कहा कि अभी तक स्थिति हेल्थ इमरजेंसी यानी स्वास्थ्य को लेकर लॉकडाउन तक नहीं आई है। 

साथ ही जमात वालों का दावा है कि उन्होंने दिल्ली पुलिस के अफ़सरों को इत्तिला दी थी कि उनके साथी मरकज़ में फँसे हुए हैं और उन्हें घर पहुँचाने के लिए बसों का इंतज़ाम किया जाए। साथ ही जो विदेशी टूरिस्ट जमात में शामिल होने आए थे, उनकी एयरपोर्ट पर स्कीनिंग हुई होगी और विदेश मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय के संज्ञान में ये होगा कि कौन-कौन कहां गया है? मतलब गलती एकतरफ़ा नहीं थी। सरकार को भी मालूम था कि कहां क्या हो रहा है? फिर समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

धर्म के नाम पर आफ़त को दावत

अब दूसरी बात। लॉकडाउन के बाद मेडिकल टीम पर मध्य प्रदेश के इंदौर में जिस तरह हमला हुआ, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है ये मुस्लिम बहुल आबादी वाला इलाक़ा था। हालाँकि बाद के दिनों में इलाक़े के लोगों ने ताली बजाकर मेडिकल टीम का स्वागत किया और माफ़ी मांगी। इसका वीडियो भी सोशल मीडिया पर आया। दरअसल, हमारे देश में दिक्कत किसी एक धर्म की नहीं है। कितने ही उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिसमें अन्य धर्मों के बाबाओं ने कोरोना और बाकी चीज़ों को लेकर हद दर्ज़े की मूर्खता की बात कही है। गोबर और गौमूत्र से कोरोना के इलाज का दावा किया गया है। 


मैंने देवकीनंदन जी का प्रवचन 20 मार्च के आसपास टीवी पर लाइव सुना था। उसमें भक्तों की कितनी भीड़ जुटती है, यह मुझे आपको बताने की ज़रूरत नहीं है। तो उसमें से कितने लोगों की कोरोना जाँच हुई? शायद एक की भी नहीं। और जब जाँच ही नहीं हुई तो कैसे पता चलेगा कि उस प्रवचन से कितने लोग कोरोना का प्रसाद लेकर घर लौटे? ये महत्वपूर्ण सवाल है और वाजिब भी क्योंकि कोरोना से जंग किसी एक समुदाय से लड़ाई नहीं है। भारत के सभी नागरिकों को मिलकर इससे लड़ना है। सो पाबंदी और सख़्ती हर जगह होनी चाहिए और किसी एक समुदाय विशेष को निशाना नहीं बनाना चाहिए। खुलकर कहता हूँ कि कोरोना में भी हिंदू-मुसलमान नहीं करना चाहिए।

जनता को मूर्ख बनाते हैं धर्मगुरु

अब लौटते हैं बाबाओं पर। याद कीजिए आसाराम की गिरफ्तारी के बाद आए उस बयान को जिसमें कहा गया कि वह हिन्दू संत है, इसलिए उसे फँसाया जा रहा है अभी दो हफ्ते पहले देवकीनंदन जी ने यह बात अपने प्रवचन में भी दोहराई वहीं दूसरी ओर कोरोना को अल्लाह का कहर घोषित करके सामूहिक नमाज़ पढ़ने को बेताब लोगों की भी कमी नहीं है। असल में, धर्म का हाथ पकड़ कर दोनों समुदाय के लोगों ने नासमझी की है। यह बात बैलेंस करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ बल्कि इसलिए कि पंडाओं और मौलवियों द्वारा लगातार अवैज्ञानिक बातें कही जाती रही हैं।

हमारी दिक्कत यह है कि हम धारणाओं पर डिबेट नहीं करना चाहते, हम उदाहरणों पर बहस करते हैं। आप इधर से किसी मौलाना का वीडियो भेजेंगे जिसमें वो कोरोना को अल्लाह का कहर बताकर दुआ करने की तकरीर करेगा, तभी उधर से आपको वो मैसेज और पोस्टर भेजे जाएँगे, जिसमें एकादशी के व्रत से कैंसर ठीक करने का दावा होगा। दरअसल, आप धारणाओं के स्तर पर देखेंगे तो समझ आएगा कि दोनों तरह के उदाहरण कट्टरता को बढ़ाने और विज्ञान पर धर्म को तरजीह देने की साज़िश करते हैं।

ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहा मीडिया

मुझे सबसे ज़्यादा दिक्कत मीडिया द्वारा इस घटना के बहाने मुस्लिमों की ब्रांडिंग से है जमातियों और आम मुस्लिम के बीच के फ़र्क़ को मिटाकर और ओवर सिम्पलीफिकेशन करके आम मुस्लिम की जो छवि गढ़ने की कोशिश की जा रही है, वह आपत्तिजनक है। बीते 2-3 दिनों से एक हिंदी न्यूज चैनल में टिकटॉक के वीडियो, जिसमें कई वीडियो पकिस्तान में बनाये गए हैं, दिखाकर लगातार अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिमों को सबसे मूर्ख कौम और इस संकट के 'विलेन' के रूप में पेश किया जा रहा है। 

इस न्यूज़ चैनल सहित बाक़ी चैनलों के कवरेज का भी अमूमन यही हाल है. कई एंकर लगातार मुस्लिमों को निशाना बनाकर शाम को डिबेट के नाम पर मुर्गा लड़वाते हैं। एक और हिंदी टीवी न्यूज़ चैनल तो रज़ा मुराद और शक्ति कपूर से डायलॉग बुलवाकर कोरोना का अंत करने में जुट गया है। मतलब भारतीय टीवी न्यूज़ मीडिया एकदम तमाशा बन चुका है। यहाँ बस ख़बर नहीं है, बाक़ी सबकुछ है।

मीडिया के साथ दिक़्क़त ये है कि वह आख़िरी वक़्त में आँख खोलता है और समस्या के लिए अपनी सुविधानुसार एक विलेन गढ़ देता है। जब इस साल जनवरी में कोरोना का पहला केस सामने गया था, तो क्या उसी दौरान भारतीय चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति पर स्टोरी करके मीडिया को सरकार को जगाना नहीं चाहिए था? 

जो चैनल आज चीन से स्काइप पर पैनलिस्ट को ऑन एयर कर रहे हैं और उनसे कोरोना ज्ञान ले रहे हैं, क्या उन्हें बहुत पहले इन एक्सपर्ट के ज़रिए यह बात सामने नहीं लानी चाहिए थी कि भारत इससे निपटने के लिए कितना तैयार है? 

ये दुखद है कि अब भी राष्ट्रीय मीडिया के ज्यादातर न्यूज चैनल केवल सत्ता का पीआर करने में लगे हुए हैं। मीडिया में निष्पक्षता एक धोखा है, मगर ऐसा भी ना हो कि आप बिछ जाएं। क्रिटिकल तो होना ही चाहिए। वरना क्या ज़रूरत है देश को पत्रकारों की, जो समझ रखने का दावा करते हैं? चैनलों से मज़ेदार बहस तो आपको चाय और पान की दुकानों पर भी सुनने को मिल जाएगी। तो फिर न्यूज़ चैनल क्यों देखना! 

फिर भी हम देखते हैं क्योंकि जनता को वहाँ से असल ख़बर मिलने की आस रहती है। हालाँकि फेक न्यूज के ज़माने में जनता को पता ही नहीं कि असल ख़बर की जगह उसके सामने धोखा परोसा जा रहा है और वह उसे सच मान लेती है। ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। देश के लिए भी और लोकतंत्र के लिए भी। 

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