Tuesday 21 April 2020

पत्रकारिता के दीवाने थे साहित्य में नोबेल पाने वाले मार्खेज

मार्खेज कहते थे कि इससे पहले कभी भी पत्रकारिता इतना खतरनाक पेशा नहीं रहा। जानबूझकर की गई गलतियों से समाचारों को हथियारों के रूप में बदला जा रहा है

  • कोमल शर्मा 

ग्रैबियल गार्सिया मार्खेज कोलंबिया के मशहूर पत्रकार और लेखक रहे हैं। उनका जन्म 6 मार्च 1926 को कोलंबिया में हुआ था। वह लेखक विलियम फॉकनर से प्रभावित थे। स्पैनिश भाषा में लिखा करते थे। लेखन ने उन्हें दुनिया भर में प्रसिद्धी दिलाई। उन्हें पत्रकारिता में बेहद रूचि थी और वो इसी में अपना करियर बनाना चाहते थे। इसलिए मार्खेज ने पत्रकार बनने के लिए पढ़ाई छोड़ दी थी। 

उनका कहना था कि पत्रकारिता दुनिया की सबसे अच्छी नौकरी है। वे हमेशा ही पत्रकारिता के प्रति बेहद जुनूनी रहे। वह सेलिब्रिटी लेखक थे, उन्हें अपने उपन्यास के लिए नोबल पुरस्कार मिला, फिर भी उन्होंने पत्रकारिता कभी नहीं छोड़ी। जब उनकी कहानियां बहुत लोकप्रिय हो गईं और पैसे की कोई कमी नहीं रही, तब भी वह कहते थे कि पत्रकारिता मुझे जीने, लिखने और सच को समझने की शक्ति देती है।

लेखन का शौक होने के कारण उन्होंने रिपोर्ताज और कहानियां लिखना शुरू किया। उन्हें पत्रकारिता से ज्यादा कामयाबी साहित्य लेखन में मिलने लगी। उनका लेखन इतना जादुई था कि उनकी विचारधारा को न मानने वाले लोग भी उनकी लेखनी के दीवाने हो जाया करते थे। 

माना जाता है कि क्यूबा के नेता फिदेल कास्त्रो भी मार्खेज का लेखन चाहने वालों में शामिल रहे हैं। उनकी कई रचनाओं को दुनिया भर में सराहा गया जिनमें क्रॉनिकल ऑफ अ डेथ फोरटोल्ड (Chronicle of A Death Foretold), लीफ स्टार्म एंड अदर स्टोरीज (Leaf Storm And Under Stories), लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा (Love in The Time of Cholera), और द ऑटम ऑटम ऑफ पैट्रियार्क (The Autumn of Patriarch) शामिल हैं।


महान लेखक बनने की ओर पहला कदम


कहते है कि मार्खेज ने 18 साल की उम्र में 'वन हंड्रेड ईयर्स आफ सोलिट्यूड' (One Hundred Years Of Solitude) नामक अपना मशहूर उपन्यास लिखना शुरू किया था। उन्होंने 18 महीनों में 13 सौ पन्नों की इस किताब को बहुत शिद्दत से लिखा। इस किताब से जुड़े अपने अनुभवों को बताते हुए उन्होंने एक व्याख्यान में बताया था कि साल 1965 में उन्हें हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के पहले अध्याय का ख़्याल उस समय आया, जब वो कार से अकापुलो जा रहे थे। उन्होंने अचानक कार रोकी, वापस घर आए और किताब लिखने के लिए कमरे में खुद को बंद कर लिया। 18 महीने के बाद जब किताब पूरी लिख दी, तब तक उन पर 12 हज़ार डॉलर का कर्ज़ था।

यह एक ऐसा उपन्यास है, जो अलग-अलग आयामों के बीच एक द्वंद्वात्मक खिंचाव बनाता है। साथ ही यह हास्य उपन्यास भी है। यह उपन्यास साहित्य के प्रति अवमाननाकारी रुख को लेकर चलता है कि साहित्य एक बढ़िया खिलौना है, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। जहां एक ओर ये लैटिन अमेरिका के इतिहास के पुनर्लेखन का बीड़ा उठाता है तो वहीं दूसरी ओर अन्त में पाठक को बताता है कि यह महज़ उपन्यास है, एक कल्पित संरचना। वह आईना नहीं, जो सच्चाई को गहराई से प्रतिबिम्बित करता हो।

इस किताब की वजह से मार्खेज को दुनिया के महान लेखकों में से एक माना जाने लगा। इस उपन्यास का पहला संस्करण कुछ ही दिनों में बिक गया। साल 1967 में प्रकाशित उनकी इस किताब की तीन करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। 17 अप्रैल, 2014 में उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी इस रचना की मांग कम नहीं हुई है। साल 1982 में इस किताब के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। इसकी लोकप्रियता को देखते हुए ही इस किताब का हिन्दी अनुवाद भी किया गया। अनुवादित उपन्यास का नाम ‘एकांत के सौ वर्ष’ है  जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है।

पत्रकारिता स्कूलों पर मार्खेज के विचार

मार्खेज ने पत्रकारिता और पत्रकारिता ट्रेनिंग के स्कूलों के बारे में एक छोटा लेकिन दिलचस्प लेख लिखा है. इस लेख में वे लिखते हैं: "आज से लगभग 50 साल पहले पत्रकारिता के लिए कोई ट्रेनिंग संस्थान नहीं हुआ करते थे। पत्रकार न्यूज़ रूम, छापेखानों, कैफे और समाज में रहते हुए ही पत्रकारिता के गुर सीखा करते थे। समाचार पत्र संस्थान एक फैक्ट्री की तरह हुआ करते थे, जहां अच्छे पत्रकार बनाए जाते थे और खबरों से गैरजरूरी छेड़छाड़ किए बिना ही उसे प्रकाशित किया जाता था। सभी पत्रकार इतने जुनूनी हुआ करते थे कि वो खबरों के अलावा कोई और बात ही नहीं किया करते थे और न ही अपने निजी जीवन पर ध्यान दे पाते थे। उस समय कोई संपादकीय बैठक भी नहीं हुआ करती थी। लेकिन रोज शाम 5 बजे सभी सदस्य चाय-कॉफी के लिए ब्रेक लिया करते थे, इस समय सभी अगले दिन समाचार पत्र में प्रकाशित होने वाले बड़े समाचारों पर बात किया करते थे।"

मार्खेज आगे लिखते हैं: "उस समय समाचार पत्र को तीन विभागों में बांट दिया गया- न्यूज़, फीचर और संपादकीय। इनमें से सबसे ज्यादा जिम्मेदारी वाला विभाग संपादकीय विभाग था। उसमें रिपोर्टर सबसे नीचे हुआ करता था। समय और पेशे ने धीरे-धीरे ये साबित कर दिया कि पत्रकारिता तंत्र दूसरे तरीके से काम करता है। 19 साल की उम्र में मैंने एक संपादकीय लेखक के रूप में काम करना शुरू किया और काम करते-करते कब-रिपोर्टर (Cub Reporter) बन गया।"

इसके बाद मार्खेज पत्रकारिता के नैतिक सिद्धांतों, उसके कौशल और  तकनीक के साथ उसमें आ रहे बदलावों  की चर्चा करते हुए लिखते हैं: "इसी के साथ पत्रकारिता के स्कूलों और तकनीकों की शुरूआत हुई। व्याकरण और वाक्य विन्यास की थोड़ी समझ थी। अवधारणाओं को और इस गलतफहमी को समझने में कठिनाई हुई कि किसी भी कीमत पर "स्कूप" का महत्व सभी नैतिक विचारों से ज्यादा होता है।

यह पेशा उतनी तेजी से विकसित नहीं हुआ, जितनी तेजी से इसकी तकनीक हुई। पत्रकार तकनीकों में ही खोते जा रहे थे। इस समय समाचार पत्र आधुनिकीकरण के पीछे दौड़ रहे थे। नौकरी के दौरान पत्रकारों को दिए जाने वाले प्रशिक्षण को पीछे छोड़ दिया गया। काम करने की उस व्यवस्था को छोड़ दिया गया, जिससे पेशेवर भावना मजबूत होती थी। न्यूज रूम ऐसी लेबॉरॉट्री में बदल गए, जिनमें पाठकों की इच्छा के अनुरूप खबरें न होकर, बाजार के हिसाब से खबरें हुआ करती थी।

इन सब से संपादकीय विभाग को दूर रखा गया, क्योंकि सबका ऐसा मानना था कि संपादकीय समाचार पत्र का प्रकाशक लिखता है, जबकि ऐसा नहीं था। संपादकीय में लिखे प्रकाशक के निजी विचारों के रूप में कई बार ये विशेष उद्देश्य के लिए लिखे जाने लगे।

वर्तमान समय में तथ्य और विचार आपस में उलझ गए हैं। समाचारों में विचार और संपादकीय में तथ्यों को भर दिया गया है ताकि अर्थों को बदला जा सके। इससे पहले कभी भी पत्रकारिता इतना खतरनाक पेशा नहीं रहा है। जानबूझकर की गई गलतियों से समाचारों को हथियारों के रूप में बदला जा रहा है।

सूत्रों के हवाले और सरकारी अधिकारी- वो स्रोत होते हैं जो सबके बारे में सब कुछ जानते हैं, लेकिन कोई उन्हें नहीं जानता है। ये स्रोत बिना ये सोचे-समझे काम करते हैं कि वह सही भी कर रहे हैं या नहीं? मेरा मानना है कि बुरे पत्रकार अपने स्रोतों को अपने जीवन की तरह संजो कर रखते हैं। विशेष तौर पर अगर वो कोई औपचारिक स्रोत हो। इन स्रोतों को इस तरह रखा जाता है कि स्रोत के बिना रहना असम्भव लगने लगे। 

सभी खबरों के लिए स्रोत पर निर्भर रहना ठीक नहीं है। स्रोत के सामने पत्रकार टेप रिकॉर्डर की भूमिका अदा करने लगते हैं, जो केवल बातों को रिकॉर्ड करता जाता है। टेप रिकॉर्डर सुनता है, दोहराता है। केवल एक डि़जिटल तोते की तरह। लेकिन ये नहीं सोचता है कि ये स्रोत विश्वास करने के लायक हैं भी या नहीं।"

मार्खेज आगे पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों की भूमिका की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि, "ये जरूरी है कि पत्रकार वापस अपनी कलम और कॉपी उठाए ताकि वह अपने लिखे पर पुनर्विचार कर सके और उसे संपादित कर सके। यह मानना पूरी तरह ठीक नहीं है कि वर्तमान की पत्रकारिता को शर्मिंदा करने वाली नैतिक बदहाली हमेशा अनैतिकता का ही परिणाम नहीं है। कौशल के अभाव में भी ऐसा हो रहा है। यह पत्रकारिता के स्कूलों का दुर्भाग्य है कि वो बाजार के कौशल तो सिखाते हैं, लेकिन इन सब में पत्रकारिता के कौशल सिखाना भूल जाते हैं।

पत्रकारिता स्कूल इन तीन सिद्धांतों पर आधारित हों

1. योग्यता और प्रतिभा

2. खोज करने के लिए उत्सुक और

3. जागरुक

किसी भी पत्रकारिता स्कूल का मुख्य और अंतिम उद्देश्य नौकरी पर बुनियादी प्रशिक्षण के दौर को वापस लाना होना चाहिए। ऐसा इसलिए कि पत्रकारिता अपने उद्देश्य, सामाजिक सेवा से दोबारा जुड़ सके।"

मार्खेज का यह लेख यहाँ पूरा पढ़ा जा सकता है: https://www.indexoncensorship.org/2017/03/journalism-best-job-in-the-world-gabriel-garcia-marquez-on-journalism/ 

1 comment:

  1. Thanks Komal .. it's great to read this ....love love

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