Saturday 4 April 2020

खुशवंत सिंह का मनो माजरा कोरोना के दौर में कैसा है?

गंगा-जमुनी संस्कृति के जरिये ही लड़ पायेंगे कोरोना वायरस से 
  • शुभम शर्मा

खुशवंत सिंह के मनो माजरा की सुबह कैसे होती थी? खुशवंत सिंह ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ में लिखते हैं कि "सब जानते हैं कि भोर होने से पहले लाहौर को जानेवाली मेलगाड़ी यहां से गुजरती है। पुल से गुजरते हुए ड्राइवर बेनागा दो लंबी सीटियां देता है। क्षण भर में ही सारा मनो- माजरा जाग उठता है। कीकर के पेड़ों पर कौए कांव-कांव करने लगते हैं। चमगादड़ लंबी-लंबी टोलियों में चुपचाप पीपल के पेड़ पर वापस लौटकर अपने-अपने बसेरों के लिए लड़ने लगते हैं। मस्जिद के मुल्ले को भी खबर हो जाती है कि सुबह की अजान का वक्त हो गया। जल्दी-जल्दी हाथ मुंह धोकर वह पश्चिम में मक्का की तरफ मुंह करके खड़ा हो जाता है और अपने कानों में उंगलियां ठूंस ऊंचे गुंजायमान सुर में अजान देनी शुरू करता है - 'अल्लाहो-अकबर।'

खुशवंत सिंह आगे लिखते हैं- ”गुरुद्वारे का भाई मुल्ले के अजान देने तक बिस्तर में ही पड़ा रहता है। अजान सुनकर ही वह उठता है और गुरुद्वारे के अहाते के कुएं से बाल्टी-भर पानी निकाल अपने ऊपर उड़ेलने लगता है। बदन पर पानी छिड़कते हुए वह एक सुर में गुरू ग्रंथ साहब का जाप भी जारी रखता है।"

यह सुबह मनो माजरा नामक एक काल्पनिक जगह में होती है जो खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ के केंद्र में है. मनो माजरा की यह उस दरमियान होती है जब देश बंटवारे की दहलीज पर होता है. लाहौर जाने वाली ट्रेन से देश का एक हिस्सा जागता है, वहां सूरज की पहली किरण से नहीं, ट्रेन की आवाज से लोग सुबह को महसूस करते हैं, मौलाना उस आवाज से जागता है और अपने खुदा के आगे सर झुकाने के लिए अपने मजहब के लोगों को अजान देता है।

उस अल्लाह-ओ-अकबर की आवाज को सुनकर बगल के गुरूद्वारे के खिदमतगार की सुबह होती है और वह वाहे गुरु की अरदास करता है। यह धर्म प्रधान माने जानेवाले भारत की सुबह है जो सभी मजहबों को एक स्वर में ढालती है। "ट्रेन टू पाकिस्तान" भारत के विभाजन के दंश को दिखाती है कि किस तरह भारतीयता का खून हरे और केसरिया में बंटकर एक दूसरे को जख्म देता है।

आज का दौर भी कुछ ऐसे धार्मिक उन्माद की जद में हैं

अल्लामा इक़बाल ने कहा था "मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।" यह हमारे पूर्वजों की ऐसी सीख है जिसे हमें गांठ बांधकर रख लेना चाहिए. लेकिन आज देश में हो क्या रहा है? जब कोरोना जैसी आपदा दुनिया में आफत बरपा रही है। देशवासी इक्कीस दिन के लॉकडाउन के कारण घरों में है। तब सोशल मीडिया पर हैशटेग “कोरोना जिहाद” ट्रेंड कर रहा होता है। हम भारत के लोगों ने कोरोना वायरस का भी धर्म ढूंढ निकाला है।

महात्मा गांधी कहा करते थे "सत्य ही मेरा ईश्वर है"

आज भारत का सच कोरोना है। उसको रोकने के लिए ‘सोशल डिस्टेंस’ के जरिए ही हम यह लड़ाई लड़ सकते हैं। कोरोना के बाद जब घर में ही रह रहे लोगों के लिए दूरदर्शन पर दोबारा रामानंद सागर की ‘रामायण’ दिखाई जाने लगी तो एक हिस्से ने उसका विरोध किया कि मनुवादी और पितृसत्तात्मक रचना दिखाकर सरकार अपने दक्षिणपंथी एजेंडे को लागू कर रही है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सोशल मीडिया पर श्रेय लेने की कोशिश की कि यह देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का विजन था, जिसके चलते दूरदर्शन पर रामायण दिखाई गई थी। 

याद रहे हमारे समय की एक फिल्म "ओह माय गॉड" में अक्षय कुमार का एक डॉयलॉग है कि "आप अगर भगवान का विरोध करेंगे तो लोग आपको ही भगवान मानने लगेंगे।" इसी फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती का भी एक डॉयलॉग है कि "देश में जितने लोग स्कूल नहीं जाते हैं, उससे ज्यादा लोग मंदिर जाते हैं।"

यूँ तो यह फिल्म का एक संवाद है लेकिन यह सच्चाई है कि आज भी अधिकतर लोग धार्मिक अनुष्ठानों में खूब समय खपाते हैं। वैसे रामायण के लिए "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक फ्रांसिसी इतिहासकार मिशेल  के हवाले से लिखते हैं कि "जब मैं एशिया की और देखता हूं तो मुझे मिलता है सुकून और सोच का एक गहरा फलसफा, हिंद महासागर
सा विस्तार, अपने भीतर समेटे हुए एक अनोखी कविता, इसमें एक अद्भुत शांति, गहरा फैलाव है, इसमें दुनियावी जद्दोजहद होते हुए भी एक मिठास और आपसी भाईचारा छाए हुए है, यह कोमलता, स्नेह और हमदर्दी से भरपूर एक दरिया है।"

एक समय था जब दिल्ली में दंगे फैलते थे, तब हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह वाला वह इलाका था, जहां हिंदू  और मुस्लिम दोनों ही कौमें महफूज रहती थीं. आज उसी इलाके में कोरोना माहमारी के समय ‘सोशल डिस्टेंस’ का उल्लघंन होने की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनी हुई हैं। बीबीसी हिंदी के अनुसार, तबलीगी जमात के एक कार्यक्रम में लगभग दो हजार लोगों ने हिस्सा लिया था, जिसमें 250 के करीब विदेशी भी शामिल थे।

इस जमात में शामिल हुए जम्मू कश्मीर और तमिलनाडु जैसे राज्यों के लोग कोरोना पॉजीटिव पाए गए हैं जिनमें कुछ लोगों की मौतें भी हुई हैं। यह खबर वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर #coronajihad, #nizamuddinmarkaj ट्रेड करने लगा, कोरोना बम के रूप में घर पर खाली बैठे लोगों को एक धार्मिक एंगल मिल गया है।

अफ़सोस जहां हेल्थ एमरजेंसी में स्वास्थ्य पर बात होनी चाहिए, वहां धर्म पर चर्चा हो रही है। इस घटना के बाद जानेमाने लेखक और शायर जावेद अख्तर ने एक ट्वीट कर कहा है- 'स्कॉलर और अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष ताहिर महमूद साहेब ने दारूल उलूम देवबंद से मस्जिदों को बंद करने का फतवा जारी करने के लिए कहा है, जब तक कि कोरोना का ये समय खत्म नहीं हो जाता। मैं पूरी तरह से उनकी इस मांग का समर्थन करता हूं। अगर काबा और मदीना की मस्जिदें बंद हो सकती हैं तो भारत की मस्जिदों को क्यों बंद नहीं किया जा सकता?'

जब इन दिनों ‘हेल्थ’ नहीं ‘रिलीजन’ चर्चा में है, उन दिनों भोपाल के पीरगेट इलाके का एक दृश्य रख रहा हूं, यहां कर्फ्यू वाली माता का मंदिर है, यह दुर्गा मंदिर इलाके में अतीत में कर्फ्यू लगे होने के दौरान ही बना था, इसीलिए मंदिर का नाम ही कर्फ्यू वाली माता मंदिर है। वहां चारों तरफ जामा
मस्जिद, मोती मस्जिद, ताजुल मस्जिद और हुसैनी मस्जिद है।

यहाँ जब सुबह मस्जिद की अजान नमाज करने वालों को सुबह बुला रही होती हैं, ठीक उसी समय मंदिर में पंडित शंख और घंटा बजाकर देवी के भक्तों को जगा रहा होता है। खुशवंत सिंह का मनो माजरा आज भी देश के ऐसे कई इलाकों में जिंदा है, जहां गंगा-जमुनी तहजीब एक दूसरे के धर्म को सम्मान देकर फल-फूल रही है। इसीलिए जब भी धर्म के हिसाब पर बांटने का काम होता है, ऐसे इलाकों की संस्कृति को सबसे ज्यादा नुकसान होता है।


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