Friday 17 April 2020

सरकार चाहे तो लॉकडाउन से उपजी बेरोज़गारी और भूख का समाधान निकाल सकती है

ज़रूरतमंदों तक जल्द सहायता पहुँचाने के लिए जन आरोग्य, उज्ज्वला और आधार डाटा का इस्तेमाल हो सकता है लेकिन साथ में मदद की रक़म भी बढ़ाए जाने की ज़रूरत

  • सज्जन कुमार

बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने का अहम फैसला लिया। इसके बाद सभी राज्य सरकारों ने ना सिर्फ इसका स्वागत किया बल्कि इसे आगे लागू करने में मुस्तैदी भी दिखाई है। कुछ राज्य सरकारों ने तो प्रधानमंत्री के संबोधन से पहले ही लॉकडाउन को दो सप्ताह आगे तक बढ़ाने का निर्णय ले लिया था। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने में लॉकडाउन का अहम योगदान रहा है। लेकिन इस लॉकडाउन के कुछ गंभीर परिणाम भी सामने आए हैं। मुख्य चुनौती बेरोज़गारी और भूख है।


कोरोना संक्रमण के शुरुआती फेज़ में कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान था कि मुख्यत: आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग, किसान और मजदूर इसकी चपेट में आ सकता है। अब लॉकडाउन के दौर में अर्थशास्त्रियों की आशंका सच साबित हो रही है। अभी इससे सबसे ज्यादा प्रभावित मज़दूर, छोटा किसान और ठेला लगाकर गुजारा करने वाले लोग हो रहे हैं। लॉकडाउन के चलते कारखाना फैक्टरी में काम ठप्प होने की वजह से मजदूरों के लिए रोजगार ख़त्म हो गए हैं। उनकी छोटी-मोटी जमा पूंजी भी लगातार खत्म हो रही है। 

अब परिणाम ये है कि लोगों को खाने-पीने की मूलभूत चीजों जैसे गेंहूँ, दाल, चावल आदि खरीदने में भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। यही कारण है कि बीते दिनों प्रवासी मज़दूर महानगरों से अपने गाँव सैकड़ों मील पैदल चलने में भी नहीं झिझके। 


केंद्र सरकार को खर्च करनी होगी बड़ी रक़म 


इससे पहले कि लॉकडाउन की वजह से पैदा हुई बेरोजगारी देश में भूखमरी का बड़ा रूप धारण कर ले, हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू ढंग से चलाने की ज़रूरत है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने समाचार पत्र 'द हिंदू' में छपे अपने लेख में सरकार को सलाह दी है कि सरकार ये सुनिश्चित करे कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सही से चलाया जाएगा। 

गरीब तबके तक मदद पहुँचाने के लिए मिड-डे-मील, पेंशन और मनरेगा जैसी योजनाओं का सहारा लेना चाहिए। साथ ही पेंशन राशि का भुगतान एडवांस में हो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनाज की मात्रा बढ़े और मनरेगा भुगतान में देरी ना हो, इसके उपाय किए जाने चाहिए। इसके लिए बड़ी धनराशि की जरूरत होगी, जिसके लिए केंद्र सरकार को आगे आना चाहिए। फ़िलहाल, केंद्र  सरकार को किसी भी तरह की फिजूलखर्ची से बचना चाहिए लेकिन गरीबों, प्रवासी मजदूरों, किसानों और हाशिये पर पड़े लोगों की मदद में खजाना खोलने में कोई परहेज नहीं करना चाहिए। 

गोदाम में पड़े अनाज ग़रीबों में बाँटने की ज़रूरत

लॉकडाउन के बाद भी कुछ महीनों तक लोगों को रोजगार की समस्या रहने वाली है क्योंकि जो लोग लॉकडाउन में अपने घर जा चुके हैं, वे तुरंत शहरों नहीं लौटेंगे। इसलिए यह जरूरी है कि इन योजनाओं का लाभ लॉकडाउन के बाद भी कुछ महीनों तक जारी रखा जाए ताकि उनके पास जीवनयापन के पर्याप्त साधन हों। इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी जैसे अर्थशास्त्रियों ने एक संयुक्त लेख लिखा है जिसमें कुछ जरूरी सुझाव दिए गए हैं । 


इस लेख में कहा गया है कि यह समय चुनौतीपूर्ण है, इसलिए समाधान रचनात्मक तरीके से निकाला जाना चाहिए। आने वाले महीनों में हमें बहुत होशियारी से ख़र्च करना होगा क्योंकि देश की ज़रूरतों का आर्थिक दबाव काफ़ी ज़्यादा होने वाला है। लेकिन ज़रूरतमंद लोगों की मदद से आँख नहीं चुराया जा सकता। ये चिंता सही है कि इस राहत अभियान के दौरान कुछ भ्रष्ट लोगों को इसका अनुचित फायदा मिल जाए, लेकिन अभी उसे नज़रअंदाज़ करना होगा। इस समय संकट यह है कि लोगों को भुखमरी जैसी समस्या से कैसे बचाया जाए? हमारे पास साधन हैं। भारतीय खाद्य निगम के भंडार में 7.5 करोड़ टन अनाज है। इतना अनाज पहले कभी नहीं रहा। यह बफ़र स्टॉक के नियमों से तीन गुना अधिक है। जब अगले कुछ हफ़्तों में रबी की फसल कट जाएगी तो यह स्टॉक और भी ज्यादा बढ़ जाएगा। इसकी मदद से भूखमरी जैसी समस्या से निपटा जा सकता है। 

भूमिहीन किसान और मनरेगा मज़दूरों को भी मदद चाहिए


इस संयुक्त लेख में कहा गया है कि अगर खाने का प्रबंध हो भी जाता है, फिर भी किसानों को अगली फ़सल के लिए बीज और खाद खरीदने के लिए पैसे चाहिए होंगे। दुकानदार की चिंता ये होगी कि वह अपने शेल्फ़ पर सामान दोबारा कैसे भरे? बहुत लोग इस बात से परेशान होंगे कि उनका कर्ज़ कैसे चुकता होगा? एक समाज के तौर पर ऐसी कोई वजह नहीं है कि हम इन चिंताओं को नज़रअंदाज़ करें। सरकार ने इन चिंताओं को कुछ हद तक समझा है और कुछ समूहों को कैश ट्रांसफ़र का वादा किया गया है। लेकिन रकम बहुत कम है और बहुत कम लोगों को मिलेगी। केवल किसानों को यह सहायता क्यों मिले, भूमिहीन किसानों को क्यों नहीं? मनरेगा मज़दूर और शहरी गरीबों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

जमीनी स्तर पर देखें तो एक बड़ा तबका है, जो सरकार की सहायता से अभी भी वंचित है। भूमिहीन किसान, प्रवासी मजदूर और ऐसे लोग जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं, उनकी सहायता के लिए अभी तक कोई सुविधा नहीं दी गई है। जगह-जगह जुट रही लोगों की भीड़ इसी का परिणाम है। 

सहायता राशि बढ़ाने की ज़रूरत


फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस अख़बार में 12 अप्रैल को पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने भी एक लेख लिखकर इस संकट से निपटने के लिए सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री को घोषणा करनी चाहिए कि मदद की पहली किस्त के रूप में प्रत्येक गरीब परिवार के बैंक खाते में कम से कम पाँच हज़ार रुपये डाले जाएंगे। लाभार्थी-परिवार के पास बैंक खाता नहीं होने पर यह राशि उनके दरवाजे पर वितरित की जाएगी। इसमें अधिकतम 65 हज़ार करोड़ रुपये की जरूरत होगी।

पूर्व वित्तमंत्री ने सुझाव दिया कि गरीब लोगों की पहचान के लिए साल 2019 के मनरेगा, जन आरोग्य और उज्ज्वला के रिकॉर्ड का इस्तेमाल करना चाहिए। किस्त हस्तांतरण के दौरान आधार कार्ड का इस्तेमाल भी किया जा सकता है ताकि लाभ सही लोगों तक पहुंचाया जा सके। 

ज़ाहिर है कोरोना काल में जरूरतमंद लोगों को सहायता पहुँचाने के क्रम में गड़बड़ी होने की आशंकाएँ भी हैं। लेकिन जब ये महामारी पूरी दुनिया में फैली है और वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट में है, तब ग़रीबों को मदद पहुँचाने के ठोस इंतज़ाम तो करने ही होंगे। 

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भारत में जितने लोग कोरोना बीमारी से नहीं मरेंगे, उससे ज़्यादा भूख से मर सकते हैं। सो, सरकार को तुरंत चेतना होगा और ज़रूरतमंदों तक अनाज और आर्थिक मदद पहुँचानी होगी। कोरोना संकट भारत की नौकरशाही के लिए भी एक चैलेंज है कि किस तरह वह अपने सिस्टम का उपयोग करके हर ज़रूरतमंद तक सरकारी मदद पहुँचा पाता है।

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