2 अप्रैल 2011 का वह दिन जब पूरा देश मिलकर झूमा था
- तरुण प्रताप सिंह
वह 2 अप्रैल का दिन
था...वर्ष 2011..माहौल में एक अजीब तरह का उत्साह, बेचैनी और उत्सुकता थी. मुंबई
में उस दिन सिर्फ समुद्र की लहरें नहीं उठ रही थी बल्कि भावनाएं भी ज्वार मार रही
थी.
उस दिन मंदिरों की घंटियों से लेकर
मस्जिदों की अजान में बस एक ही दुआ सुनाई पड़ रही थी कि भारत विश्वकप जीत जाए. उस दिन
यह एहसास हुआ कि भारत में लोगों के लिए क्रिकेट केवल एक खेल नहीं है बल्कि उससे
कहीं कुछ ज्यादा है.
यह भावनाएं इसलिए भी उमड़ रही थीं क्योंकि
आखिरी बार जब 1983 भारत ने कपिलदेव के नेतृत्व में वन-डे क्रिकेट विश्व कप
जीता था तब भारत की एक बड़ी आबादी का जन्म भी नहीं हुआ था. विश्व कप फाइनल में भारत का मुकाबला श्रीलंका से होना था जो
न्यूजीलैंड को हराकर फाइनल में पहुंचा था. वहीं भारत क्वार्टर फाइनल में
आस्ट्रेलिया और मोहाली में खेले गए सेमीफाइनल में अपने चिर प्रतिद्वंदी पाकिस्तान
को हराकर फाइनल में पहुंचा था.
यह आसान मैच नहीं था. एक तरफ जहाँ
श्रीलंका 2007 के विश्वकप फाइनल में आस्ट्रेलिया से हार को नहीं भूला था तो वहीं
भारत के लिए 2007 का विश्वकप एक भयानक दु:स्वप्न जैसा था जिसे वह याद भी नहीं करना
चाहता था. आखिर कौन याद करना चाहेगा कि उस विश्वकप में बांग्लादेश से हारने के
कारण भारत शुरुआती चरण में ही टूर्नामेंट से बाहर हो गया था.
*टीमों की स्थिति*
भारत में जहाँ सचिन तेंदुलकर और वीरेन्द्र सहवाग के रूप में मजबूत ओपनिंग जोड़ी थी, वहीं गौतम
गंभीर, विराट कोहली, युवराज सिंह और महेंद्र सिंह धोनी की मौजूदगी बैंटिंग लाइन-अप की गहराई
बताने के लिए काफी थी. युवराज सिंह के लिए यह विश्वकप कुछ खास था जिसमें उन्होंने बल्ले
और गेंद दोनों का जौहर दिखाया था. हालांकि पाकिस्तान के खिलाफ खेले गए सेमीफाइनल
में वह कुछ
खास नहीं कर पाए थे लेकिन उनके लिए यह मौका था, इस विश्वकप पर अपनी छाप
छोड़ने का. बॉलिंग का जिम्मा जहीर खान, मुनाफ पटेल और हरभजन सिंह पर था. सेमीफाइनल में चोट लगने के कारण
आशीष नेहरा विश्वकप फाइनल से बाहर हो गए थे.
वहीं श्रीलंका कितना स्कोर बनाएगी, यह
इस बात पर निर्भर करता था कि तिलकरत्ने दिलशान, कप्तान कुमार संगाकारा और महेला जयवर्धने
किस तरह से बैंटिंग करते हैं. मैथ्यूज के चोटिल होने के कारण श्रीलंका का मध्यक्रम
भारत की तुलना में कमजोर दिखाई दे रहा था. बॉलिंग का जिम्मा आक्रामक लसिथ मलिंगा, नुवान कुलशेखरा और फिरकी
के जादूगर मुरलीधरन के कंधों
था.
*पल - पल बदलते मैच के हालात*
मुंबई का वानखेड़े स्टेडियम, विश्व कप
के लिए ही कई वर्षों से तैयार किया जा रहा था. फाइनल मैच के दिन हर भारतवासी वहीँ
स्टेडियम में बैठकर मैच देखना और भारतीय टीम की हौसला-आफज़ाई करना चाहता था. आज जिनके
पास भी फ़ाइनल मैच का टिकट था, वो खुद को सौभाग्यशाली समझ रहे थे. वे जो स्टेडियम
नहीं पहुंच पाए थे, वो टेलीविजन के सामने टुकटुकी लगाए बैठे थे.
भारत ने टास जीतकर पहले गेंदबाजी का
फैसला लिया. भारत की बैटिंग लाइन-अप को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था. जहीर खान ने
भारत को अच्छी शुरुआत दिल्ली. उनके शुरुआती ओवरों में ही श्रीलंकाई ओपनर उपुल
थरंगा जल्दी आउट कर पेवेलियन पहुँच गए. यह श्रीलंका को बड़ा झटका था. लेकिन दूसरे
छोर पर आशीष नेहरा की जगह फाइनल खेल रहे एस. श्रीसंत कुछ खास असर नहीं छोड़ पा रहे
थे जिसके कारण धोनी उनकी जगह हरभजन सिंह को लेकर आये.
हरभजन ने धोनी को निराश नहीं किया. उन्होने
तिलकरत्ने दिलशान को आउट कर भारत को दूसरी सफलता दिलाई. उस दिन महेला जयवर्धने मानों
सोचकर आए थे कि आज अंत तक खेलना है और हुआ भी यही. एक तरफ श्रीलंका के विकेट गिरते
रहे लेकिन जयवर्धने चट्टान की तरह टिके हुए थे और धीरे-धीरे स्कोर बोर्ड को आगे बढ़ाते
रहे.
हालाँकि मैच भारत की पकड़ में लग रहा
था लेकिन सब जानते थे कि जबतक जयवर्धने हैं श्रीलंका का स्कोर कहीं भी पहुंच सकता
है. एक बार फिर श्रीलंका का मध्यक्रम फेल हो चुका था. लेकिन जयवर्धने का संघर्ष
जारी था. उनका साथ दिया नुवान कुलाशेखरा का जो रन-आउट होने से पहले 32 गेंद पर 30 रन बना चुके थे.
यही नहीं, तिसारा परेरा की 9
गेदों पर 22 रनों की तूफानी पारी
ने श्रीलंकाई टीम का स्कोर निर्धारित 50 ओवरों में 6 विकेट पर 274 रनों तक पहुंचा
दिया.
महेला जयवर्धने ने 104 रनों की शानदार पारी
खेली. इस विश्वकप में यह उनका दूसरा शतक था. इसके पहले वो कनाडा के खिलाफ शतक लग
चुके थे.
*भारत का जवाब*
वैसे
वानखेड़े की पिच पर 274 रन किसी भी मायने में छोटा और लक्ष्य नहीं था. इसके पहले विश्व कप
में इतना बड़े स्कोर का पीछा करके कोई भी टीम मैच नहीं जीत पाई थी. मैच शुरू होने
से पहले ही पिच क्यूरेटर ने कह भी दिया था कि 270 से अधिक रन बनने की स्थिति में पहले
बल्लेबाजी करने वाली टीम के जीतने की संभावना अधिक रहेगी.
लेकिन जब भावनाएं उबालें मार रही हों
तो तथ्य और आंकड़े सब बेकार हो जाते हैं. इस मैच में भी यही हुआ.
सहवाग और सचिन की ओपनिंग जोड़ी के
सामने थे- अपने यार्कर और तेजी के कारण आतंक बन चुके लासित मलिंगा और जिसका डर था,
वही हुआ. मलिंगा की दूसरी ही गेंद पर भारत की उम्मीदों को पहला झटका लगा. सहवाग ने
रिव्यू लिया लेकिन वो रिव्यू असफल रहा और वो आउट करार दिए गए.
लेकिन उम्मीदें कहाँ टूटती हैं. अब भी
लोगों की उम्मीद सचिन तेंदुलकर से थी. वे मैदान पर थे और अच्छा खेल रहे थे. लगा कि
आज वे बड़ी पारी खेलेंगे पर लासित मलिंगा की बाहर जाती गेंद पर वो विकेट के पीछे
संगाकारा को कैच थमा बैठे. एक मिनट तक किसी को समझ ही नहीं आया कि यह
क्या हो गया!
पूरे मैदान पर सिर्फ़ श्रीलंकाई खिलाडियों की आवाज सुनाई पड़ रही थी. स्टेडियम में
सन्नाटा छा गया था. सचिन धीरे-धीरे मैदान से बाहर जा रहे थे. लोगों को लगा कि
विश्व-कप जीतने का सपना एक बार फिर सपना ही रह जाएगा.
सचिन की जगह बल्लेबाजी करने आए कोहली
उस समय बिलकुल नए थे. बांग्लादेश के खिलाफ लीग मैच में उन्होंने शतक जरूर बनाया था,
उसके बावजूद उनकी बल्लेबाजी को लेकर लोगों के मन में सवाल थे. लेकिन गंभीर और
कोहली ने धीरे-धीरे स्कोर बोर्ड को बढ़ाना शुरू किया. एक फिर लगने लगा कि ये दोनों
बल्लेबाज भारत को जीत दिला देंगे, तभी तिलकरत्ने दिलशान की गेंद पर कोहली आउट हो
गए. आउट होने से पहले उन्होंने 49
गेदों पर 35 रन बनाए.
कोहली के आउट होने के बाद युवराज सिंह
को बैटिंग करने आना था पर उनकी जगह धोनी आ गए. ऐसा इसलिए था क्योंकि युवराज सिंह
के आने पर दोनों बाएं हाथ के बल्लेबाज हो जाते. ऐसी स्थिति में मुरलीधरन को रोकना
आसान नही होता. धोनी और गंभीर ने मिलकर न सिर्फ भारत के स्कोर को आगे बढ़ाना शुरू
किया बल्कि रनों के औसत को भी बेहतर कर दिया. रन गति बढ़ रही थी.
लेकिन गंभीर जब 97 रनों पर बैटिंग कर
रहे थे, तब तिसारा परेरा की गेंद पर आफ साइड में चौका मारने के चक्कर में आउट हो
गए. गंभीर जब आउट हुए तब भारत का स्कोर 223 रन था और उसे अगले 50 गेंदों पर 51 रन बनाने थे. धोनी
और युवराज के बाद रैना को बल्लेबाजी करने आना था जो सेमीफाइनल में पाकिस्तान के
खिलाफ अच्छी पारी खेल चुके थे और हरभजन सिंह भी ठीक-ठाक ही बल्लेबाजी कर लेते थे.
ऐसे लोगों में लोगों को लग रहा था कि
मैच भारत आसानी से जीत जाएगा. हुआ भी यही. जब 48 वें ओवर में धोनी
ने नुवान कुलाशेखरा की गेंद को लांग-आन पर उठाकर मारा तो पूरे देश की धड़कनें जैसे
रूक गई. लेकिन उस छक्के ने भारत में क्रिकेट प्रेमियों के आंखों में आंसू ला दिए.
पूरा स्टेडियम झूम रहा था. भारतीय
ड्रेसिंग रूम में कुछ खिलाड़ी एक-दूसरे के गले लग रहे थे तो कुछ
खिलाड़ी मैदान में दौड़ते हुए धोनी और युवराज की तरफ भाग रहे थे. आधी रात को देश
में जश्न का माहौल था. लोग सड़कों पर उतरकर खुशी मना रहे थे. चारों ओर तिरंगे लहरा
रहे थे. सभी अपने-अपने हिस्से का क्रिकेट जी रहे थे.
उस दिन लगा कि भारत को अगर संविधान के
बाद अगर कोई चीज जोड़कर रखती है तो वह है क्रिकेट.
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