Monday 6 April 2020

दो सांसद से दो प्रधानमंत्री देने वाली पार्टी की कहानी

भाजपा के राजनीतिक सफ़र की कहानी 

इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि भाजपा के अंदर गांधीवादी समाजवाद के विचार को लेकर टकराव था। सो पार्टी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर एक नई राह पकड़ी

  • ओमप्रकाश मंडल
भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।
तारीख थी 30 दिसम्बर, साल 1980 और मौका था नई नवेली भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन का। मंच से बोल रहे थे अटल बिहारी वाजपेयी।



खुद को दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी बताने वाली भाजपा आज अपना 40वां स्थापना दिवस मना रही है। लेकिन इन 40 वर्षों में पार्टी ने कई पड़ाव देखे हैं। कई ऐसे मौक़े आए, जब पार्टी फिसली, गिरी और फिर दुबारा उठकर खड़ी हो गई। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भाजपा के सबसे बड़े चेहरे हैं और उनकी एक आवाज़ पर देश थाली बजाने मोमबत्ती जलाने घर के बरामदे में जाता है। सो आइए नज़र डालते हैं कैसे बनी भाजपा और इतने लम्बे सफ़र में पार्टी ने कैसे-कैसे मुक़ाम पार किए-

तारीख़ थी 6 अप्रैल 1980 दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला मैदान में जनता पार्टी से निकाले गए जनसंघ गुट के नेताओं ने एक नई पार्टी का निर्माण किया। नाम रखा- भारतीय जनता पार्टी। जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री रहे और जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी बाजपेयी भाजपा के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। इस मौक़े पर वहाँ देशभर से आए 3500 प्रतिनिधि मौजूद थे।

जनता पार्टी का विघटन और भारतीय जनता पार्टी का उदय


जनता पार्टी में हो रही लगातार उपेक्षा से नाराज़ जनसंघ के नेता वहां असहज महसूस कर रहे थे। दोहरी सदस्यता का मुद्दा पार्टी के भीतर जोरशोर से उठाया जा रहा था।समाजवादी धड़े के नेता मधु दंडवते और कांग्रेस से निकले जगजीवन राम जैसे नेता संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले अटल-आडवाणी जैसे नेताओं के साथ चलने में असहज महसूस कर रहे थे। 25 फरवरी 1980 को जगजीवन राम ने जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को पत्र लिखकर  'दोहरी सदस्यता' के मुद्दे पर चर्चा की मांग की। उनका कहना था कि जनसंघ के नेता संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपना संबंध पूरी तरह खत्म कर लें तभी वो जनता पार्टी में रह सकते हैं। लेकिन जनसंघ के नेताओं को यह मंजूर नहीं था। काफ़ी खींचतान के बाद वे पार्टी से निष्कासित हुए। इस बीच जगजीवन राम भी जनता पार्टी छोड़कर चले गए। उधर चौधरी चरण सिंह पहले ही पार्टी से अलग हो चुके थे और जनता पार्टी टुकड़ों में बंट चुकी थी। सो देश में एक नई पार्टी बनाने का मार्ग प्रशस्त था।


भारतीय जनता पार्टीनाम क्यों रखा

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब 'मेरा जीवन मेरा देश' में इसका जिक्र किया है। पार्टी के नेताओं ने स्थापना के दिन ही यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने नई पार्टी का नाम भारतीय जनता पार्टी इसलिए रखा कि यह भारतीय जनसंघ और जनता पार्टी, दोनों के साथ उनके गौरवपूर्ण संबंधों को दर्शाता है। साथ ही वे पुराने को छोड़े बिना नए पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं। पार्टी की स्थापना कार्यक्रम में कोटला मैदान में मंच पर जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और विचारक दीनदयाल उपाध्याय के साथ-साथ जनता पार्टी के मार्गदर्शक जयप्रकाश नारायण का भी चित्र था।

शुरुआत में पार्टी खुद को जनसंघ और आरएसएस से अलग दिखाने का प्रयास करती रही। इसके पीछे सोच यह थी संघ की विचारधारा से सहमत नहीं होने वाले लोग भी पार्टी से जुड़ें। इसमें समाज के उस तबके को ध्यान में रखा गया जो दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ झुकाव रखता था और कांग्रेस से खुश नहीं था। 

सैद्धान्तिक द्वंद्व में फँसी भाजपा


भाजपा ने अपनी स्थापना के समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त घोषित किया। स्वयं अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने मुम्बई अधिवेशन में इसकी चर्चा की। हालांकि पार्टी के भीतर कई नेता इससे सहमत नहीं थे। पार्टी की संस्थापक सदस्य राजमाता विजयाराजे सिंधिया उनमें प्रमुख थी। लेकिन पार्टी ने बहुमत के आधार पर इसी मार्ग पर चलने का फैसला लिया।

अप्रैल में कोटला में स्थापना से लेकर उस साल दिसम्बर में मुम्बई अधिवेशन तक पार्टी ने राज्यों में अपनी इकाइयां स्थापित कर लीं। तब मुम्बई के इस ऐतिहासिक अधिवेशन में वाजपेयी ने कहा कि भाजपा 'पार्टी विद डिफरेंस' यानी एक अलग तरह की पार्टी होगी। 



भाजपा के संविधान और सोच में परिवर्तन


भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव साल 1984 में लड़ा। उस वक़्त देश में इंदिरा गांधी की हत्या के प्रति शोक की लहर थी। इंदिरा के पुत्र राजीव गांधी रिकॉर्ड सीटों के साथ देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने। तब भाजपा केवल 2 सीटें ही जीत पाई। आलम ये था कि धुरंधर अटल बिहारी वाजपेयी भी ग्वालियर से चुनाव हार गए। इसके बाद से पार्टी के भीतर वाजपेयी के खिलाफ स्वर उठने शुरू हो गए। उनके उदारवादी व्यक्तित्व पर सवाल उठने लगे। संघ को लगा की वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी कभी शीर्ष पर नहीं पहुंच पाएगी। प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि पार्टी में एक बार फिर से गांधीवादी समाजवाद के प्रति विरोध के स्वर उठने लगे। जनसंघ से आए ज्यादातर नेता खुद को गांधीवादी समाजवाद से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। यह राजनैतिक दर्शन उनको पच नहीं रहा था। इसका परिणाम ये हुआ कि काफ़ी सोचने-विचारने के बाद पार्टी ने एकात्म मानववाद को भाजपा के संविधान में शामिल कर लिया और गांधीवादी समाजवाद की विचारधारा को तिलांजलि दे दी। अटल का दौर ख़त्म मान लिया गया। अब आडवाणी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे।

हिन्दू राष्ट्रवाद को गले लगाया


आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने आक्रामकता से हिन्दुत्व की विचारधारा का प्रचार किया। पार्टी ने राष्ट्रवाद के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया। पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में तिरंगा यात्रा निकाली गई। श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी 1992 को तिरंगा फहराया गया। तब विश्व हिंदू परिषद के राम मंदिर आंदोलन को पार्टी ने खुलकर समर्थन दिया। स्वयं आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाली। नतीजा ये रहा कि पार्टी की नई प्रखर हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा ने उसे वर्ष 1989 और फिर वर्ष 1991 के चुनाव में क्रमशः 85 और 120 सीटें दिलवाईं। अब तक आडवाणी संघ और संगठन दोनों के पसंदीदा बन चुके थे। केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिराने के बाद चुनाव हुए और आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता बने। तब तक भाजपा अपने सांसदों की बदौलत दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी।

90 के दशक का भाजपा राज


अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस पार्टी के साथ जुड़ा हुआ एक काला सच है। हालांकि भाजपा के कई नेता उसको गौरव का विषय मानते हैं और चुनावों में उसका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। आडवाणी को यह पता था कि अगर केंद्र में सरकार बनानी है तो सहयोगियों के बिना यह संभव नहीं है और पार्टी की हिंदुत्ववादी छवि के कारण सहयोगी उनके साथ आने से कतराते हैं। सो आडवाणी ने साल 1995 में मुम्बई में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अटल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके पीछे रणनीति यह थी कि अटल के उदारवादी होने का फायदा पार्टी को सहयोगी जुटाने में मिलेगा। ऐसा हुआ भी। भाजपा ने सहयोगियों के बल पर सरकार बनाई और पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और फिर पांच साल अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार चलाई। तब पार्टी ने अपने कोर एजेंडों जैसे अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता और राम मंदिर निर्माण जैसे मुद्दों को सरकार के एजेंडे से अलग रखा। 

ये वो दौर था जब वाजपेयी के व्यक्तित्व और कार्यप्रणाली से संघ खुश नहीं था। कारण यह था कि संघ अपने एजेंडों को वाजपेयी सरकार में लागू नहीं करा पा रहा था। सरकार और संगठन के बीच भी दूरियां बढ़ रही थीं। तमाम बड़े नेता सरकार का हिस्सा बन चुके थे और संगठन चला रहे नेता बंगारू लक्ष्मण जनाकृष्णमूर्ति की पार्टी पर पकड़ मजबूत नहीं थी। फिर साल 2004 का चुनाव आया जिसमें वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी हार गई। कहा जाता है कि इस चुनाव में भाजपा को संघ का समर्थन नहीं मिला। पार्टी का संगठन भी पूरी शक्ति के साथ चुनाव मैदान में नहीं दिखाई दिया। 

पूरी नहीं हो पाई आडवाणी की मुराद


2004 के चुनाव के बाद ये वो दौर था जब अटल बिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से बाहर हो चुके थे। पार्टी की कमान अब नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह जैसे नेताओं के पास रही। लेकिन सब पर नियंत्रण आडवाणी का ही चलता रहा। कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए शासन काल में भाजपा 10 साल के लिए सता से बाहर रही। वर्ष 2009 के चुनाव में पार्टी ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया लेकिन सफलता नहीं मिली।आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए। उनके बाद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ने लगी, जिससे दिल्ली में पार्टी के कई बड़े नेता असहज होने लगे। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और पार्टी में फ़ायर ब्रांड नेता के रूप में अपनी धाक जमा चुके थे। 


मोदी के दिल्ली आने की ख़बरों पर आडवाणी खेमे के नेता ख़तरा महसूस कर रहे थे। लेकिन गुजरात से ही आने वाले संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का समर्थन नरेंद्र मोदी को प्राप्त था। नतीजा ये रहा कि पार्टी ने प्रत्यक्ष रूप से आडवाणी और सुषमा स्वराज के विरोध के बाद भी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। तब राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। आम चुनाव हुए और मोदी के नेतृत्व में पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 
40 साल पहले बनी भाजपा 303 लोकसभा सदस्यों के साथ आज देश की सरकार चला रही है। पार्टी यह दावा करती है कि 11 करोड़ से ज्यादा सदस्यों के साथ वह विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी है। वाजपेयी सरकार के समय हुई गलतियों से सबक़ लेते हुए मोदी सरकार ने पार्टी और संघ के बीच समन्वय के लिए एक समिति बना दी है। 

No comments:

Post a Comment

कोरोना वायरस के साथ ही डालनी पड़ेगी जीने की आदत

कोरोना का सबसे बड़ा सबक है कि अब हमें जीवन जीने के तरीके बदलने होंगे  संजय दुबे  भारत में कोरोना वायरस के चलते लगा देशव्यापी लाकडाउन...