बाबा साहेब मानना था कि विवाह संस्था ही स्त्रियों के शोषण की जड़ है। यह संस्था सामाजिक सुरक्षा और समानता के नाम पर स्त्रियों के अधिकारों का हनन करती है
- देवेश मिश्र
हमारे देश के जिन महान मनुष्यों की दुनियाभर में ख्याति है, उनमें डॉ. भीमराव अंबेडकर एक हैं। हमारे देश में उन्हें दलित पहचान के साथ अधिक जोड़ा जाता है लेकिन शेष विश्व में उन्हें लोकतंत्र के गम्भीर चिंतकों की श्रेणी में देखा-परखा जाता है।
डॉ. अम्बेडकर को पूरी दुनिया में एक ऐसे योद्धा के तौर पर देखा जाता है, जिसकी लड़ाई सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिये नहीं, बल्कि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की रही है। पूरी दुनिया में असमानता, अस्पृश्यता और ग़ैरबराबरी पर आधारित शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने और आन्दोलन करने वालों में डॉ. अम्बेडकर का नाम अग्रणी है।
बचपन से देखा भेदभाव
गरीबी, बहिष्कार और लांछन से भरा बचपन मन के एक कोने में दबाये हुए डॉ. अम्बेडकर ने देखा था कि उनके जैसे करोड़ों लोग भारत में किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं। उनके जीवन और आत्मा में शिक्षा ही प्रकाश ला सकती है। यही उन्हें उस दासता से मुक्त करेगी, जिसे समाज, धर्म और दर्शन ने उनकी नस-नस में स्थापित कर दिया है। तब तक हाल ये था कि इस दासता को दलितों को अपनी नियति मान लेने को कहा गया था। आंबेडकर इसे तोड़ देना चाहते थे। वह देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे, जो धार्मिक तो हो लेकिन गैर-बराबरी का बर्ताव उसके साथ ना हो।
वह आधुनिक विश्व की वैज्ञानिक चेतना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के भारत का निर्माण चाहते थे। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और विश्वास जैसे आधुनिक सामाजिक मूल्यों के डॉ. अम्बेडकर पक्षधर रहे। वह बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वह प्रशिक्षित अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ राजनीति विज्ञान के सैद्धांतिक और व्यावहारिक धुरंधर भी थे। वर्ण व्यवस्था द्वारा संचालित समाज की हिंसा को उस आंबेडकर ने बहुत शिद्दत से सहा था, जिसके पास देश और दुनिया का, अर्थव्यवस्था और राजनीति का गहन ज्ञान था, जिसके पास अपने समय के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की सबसे ऊंची उपाधियां थीं। डॉ. अम्बेडकर आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की संतान थे। वह पेशे से वकील भी थे। मनुष्य की गरिमा को बराबरी दिए बिना वह आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
उनकी सोच बहुत आगे की थी। वह भारत को सच्चे अर्थों में समतामूलक आधुनिक लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए जाति और लिंग आधारित विषमता के समाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूपों को समाप्त कर देना चाहते थे। इनमें जाति व्यवस्था और स्त्री असमानता दो प्रमुख सवाल थे। इसके लिए संगठित होकर प्रयास करने की उन्होंने प्रेरणा दी। आमूलचूल सामाजिक बदलाव के भगत सिंह या
प्रेमचंद जैसे समर्थकों की तरह अंबेडकर भी राष्ट्र निर्माण के लिए जाति और लिंग आधारित विषमता को समाप्त करने के पक्ष में थे। उनका कहना था कि राजनीतिक तौर पर आज़ादी हमारी पहली प्राथमिकता नहीं है, बल्कि सामाजिक गैर-बराबरी और जाति व्यवस्था का समूल उन्मूलन पहला लक्ष्य है। स्वतंत्र भारत में कोई भी नागरिक जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव का शिकार ना हो, ऐसी चेतना पैदा करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
प्रेमचंद जैसे समर्थकों की तरह अंबेडकर भी राष्ट्र निर्माण के लिए जाति और लिंग आधारित विषमता को समाप्त करने के पक्ष में थे। उनका कहना था कि राजनीतिक तौर पर आज़ादी हमारी पहली प्राथमिकता नहीं है, बल्कि सामाजिक गैर-बराबरी और जाति व्यवस्था का समूल उन्मूलन पहला लक्ष्य है। स्वतंत्र भारत में कोई भी नागरिक जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव का शिकार ना हो, ऐसी चेतना पैदा करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
नारी मुक्ति के पक्षधर थे अम्बेडकर
भारत में जाति प्रथा की उत्पत्ति और विकास पर डॉ. अम्बेडकर ने काफ़ी गहनता से विस्तारपूर्वक चर्चा की है। जाति प्रथा के विनाश के लिए वह स्त्री की मुक्ति को अनिवार्य मानते थे । उन्होंने ‘‘सजातीय विवाह का निषेध या ऐसे विवाह का न पाया जाना ही जाति प्रथा का मूल माना है। साथ ही सती प्रथा, बालिका विवाह तथा आजीवन विधवा का नारकीय जीवन जीने जैसी सामाजिक कुरीतियों की भी पड़ताल की है। सजातीय विवाह जो जाति प्रथा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, का कड़ाई से पालन हो, इसके लिए कुछ विशेष व्यवस्थाएं की गई थीं। डॉ. अम्बेडकर इन सारी कुरीतियों को उसी का फल मानते थे।
पिछले दिनों स्त्री स्वाधीनता के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा-497 को असंवैधानिक घोषित करते हुए जो फैसला सुनाया, उससे क़ानूनी तौर पर भी ये साफ हो जाता है की स्त्री, पुरुष की संपत्ति नहीं। पुरुष की तरह उसकी भी अपनी सत्ता और स्वतंत्र अस्तित्व है।
इससे पहले भी समय-समय पर क़ानूनी तौर पर स्त्री को कई अधिकार प्राप्त हुए हैं, लेकिन स्त्री को लेकर पुरुष के रवैये में ज्यादा तब्दीली नही हुई है। सार्वजनिक जगहों में स्त्रियों की आवाजाही बढ़ी है। शिक्षा तथा नौकरियों में उसने नए मुकाम हासिल किये हैं, लेकिन इसके साथ ही शारीरिक और मानसिक शोषण की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। बलात्कार की क्रूरतम घटनाएं सारी सीमाओं को पार कर गयी हैं। जाति, धर्म और स्थान से परे स्त्री के वजूद को पितृसत्तात्मक समाज एक गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं समझता। वह स्त्री को आजादी भी अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से देना चाहता है। ये स्थितियां आज भी बनी हुई हैं।
इससे पहले भी समय-समय पर क़ानूनी तौर पर स्त्री को कई अधिकार प्राप्त हुए हैं, लेकिन स्त्री को लेकर पुरुष के रवैये में ज्यादा तब्दीली नही हुई है। सार्वजनिक जगहों में स्त्रियों की आवाजाही बढ़ी है। शिक्षा तथा नौकरियों में उसने नए मुकाम हासिल किये हैं, लेकिन इसके साथ ही शारीरिक और मानसिक शोषण की घटनाएं भी तेजी से बढ़ी हैं। बलात्कार की क्रूरतम घटनाएं सारी सीमाओं को पार कर गयी हैं। जाति, धर्म और स्थान से परे स्त्री के वजूद को पितृसत्तात्मक समाज एक गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं समझता। वह स्त्री को आजादी भी अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से देना चाहता है। ये स्थितियां आज भी बनी हुई हैं।
स्त्री अधिकारों के लिए जिन विद्वानों ने संघर्ष किया उनमें डॉ. अम्बेडकर का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। डॉ. अम्बेडकर के स्त्री सम्बन्धी विचार कई जगहों पर हैं।‘भारत में जातिप्रथा’ शीर्षक लेख में उन्होंने जातिप्रथा की सरंचना, उत्पत्ति और विकास पर बात की है। दूसरा ‘महाबोधि’ नामक पत्रिका के मार्च, 1950 ई. के अंक में प्रकाशित लामा गोविन्द के लेख ‘हिन्दू तथा बौद्ध-धर्मां में नारियों की स्थिति’ की प्रशंसा करते हुए उन्होंने ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ नामतः लेख लिखा।
तीसरा डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को प्राप्त हुई लेख की वह प्रति, जिस पर ‘दि वूमेन एंड दि काउंटर-रिवोल्यूशन’ शीर्षक दिया हुआ है। इसे ‘ नारी और प्रतिक्रांति ’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है और चौथा इसी कमेटी को ‘ दि रिडिल आफ दि वूमेन’
शीर्षक से प्राप्त हुई प्रति जिसे ‘ रिडिल्स इन हिन्दूइज्म’ अर्थात् ‘हिन्दू धर्म की पहेलियां’ नाम से प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू कोड बिल व कई अन्य स्थानों पर भी उनके स्त्री सम्बन्धी विचार देखे जा सकते हैं।
तीसरा डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को प्राप्त हुई लेख की वह प्रति, जिस पर ‘दि वूमेन एंड दि काउंटर-रिवोल्यूशन’ शीर्षक दिया हुआ है। इसे ‘ नारी और प्रतिक्रांति ’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है और चौथा इसी कमेटी को ‘ दि रिडिल आफ दि वूमेन’
शीर्षक से प्राप्त हुई प्रति जिसे ‘ रिडिल्स इन हिन्दूइज्म’ अर्थात् ‘हिन्दू धर्म की पहेलियां’ नाम से प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू कोड बिल व कई अन्य स्थानों पर भी उनके स्त्री सम्बन्धी विचार देखे जा सकते हैं।
वर्ण व्यवस्था की आलोचना
‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’ में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू नारियों के उत्थान और पतन का इतिहास दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें स्त्रियों के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और बौद्धिक पतन का कारण ब्राह्मणी व्यवस्था को माना गया है, जो मनु महाराज द्वारा लिखी ‘मनुस्मृति’ के नियमों के आधार पर चलती है। इसके साथ ही यह भी दिखाने का प्रयत्न किया गया है कि भगवान बुद्ध ने स्त्रियों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव किये बिना उनको ज्ञानार्जन और आत्मज्ञान का अधिकार दिया।
डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म, वेदशास्त्र और मनुस्मृति का बहुत गहराई से अध्ययन कर इसकी पोल खोल दी। इन धर्मग्रन्थों के माध्यम से स्त्री और शूद्रों के लिए जो नियम बनाए गए या आज्ञाएं दी गई हैं, वह कितनी अमानवीय तथा निन्दनीय हैं, वह इसकी पड़ताल करते हैं। स्त्रियों की वर्तमान दशा के जिम्मेदार कौन हैं? उसे एक गुलाम से भी बदतर जिन्दगी देने के पीछे कौन सी व्यवस्था उत्तरदायी है? इसका खुलासा ‘नारी और प्रतिक्रांति’ शीर्षक लेख बखूबी करता है। इस लेख में डॉ. अम्बेडकर मनु की उन घोषणाओं का उल्लेख करते हैं. जो स्त्री के प्रति उसकी अनुदारता या घृणा को साबित करने के लिए पर्याप्त है। उन घोषणाओं में से कुछ का जिक्र यहाँ भी है।
मनु पर सवाल
मनु कहते हैं ‘कोई किसी की माता, बहन या पुत्री के साथ एकांत में न बैठे क्योंकि इंद्रियां शक्तिशाली होती हैं और विद्वान को भी अपने वश में कर लेती हैं। स्त्रियां रूप की अपेक्षा नहीं करतीं, न उनका ध्यान आयु पर रहता है, यह सोचकर कि वह पुरुष है, सुंदर या कुरुप के साथ संभोग कर बैठती हैं। स्त्रियां उनके परिवारों के पुरुषों के द्वारा दिन-रात अधीन रखनी चाहिए। स्त्री कभी स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। लड़की को, नवयुवती को या वृद्धा को भी अपने घर में कोई काम स्वतंत्रतापूर्वक नहीं करना चाहिए। स्त्री को अपने पति को छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता। बेचने और त्याग देने से कोई स्त्री अपने पति से मुक्त नहीं होती।’ अर्थात् पति द्वारा त्यागी गई या बेची गई स्त्री भी स्वतंत्र न होकर अपने पूर्व पति के ही अधीन है।
पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की क्या दशा थी इस पर डॉ. अम्बेडकर ने लिखा कि ‘‘एक हिंदू या तो अकेला खाना खाता है, या फिर अपनी बिरादरी के लोगों के साथ खाता है। स्त्रियां पुरूषों के साथ खाना नहीं खा सकतीं। वह तब तक इंतजार करती हैं, जब तक कि उनके पति खाना समाप्त नहीं कर लेते।’’
ये कोई बीते दिनों की बातें नहीं हैं। आज भी भारत की बहुसंख्यक आबादी में स्त्रियों की यही दशा है। समाज में पितृसत्ता का स्वरूप ऐसा जटिल और मज़बूत है कि डॉ. अम्बेडकर की बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। महिलाओं को भोग की वस्तु समझने की दूषित मानसिकता आज भी समाज में उतनी ही जीवंत है, जितनी पहले थी। डॉ. अम्बेडकर असमानता वाली हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था को इसका ज़िम्मेदार मानते हैं।
ये कोई बीते दिनों की बातें नहीं हैं। आज भी भारत की बहुसंख्यक आबादी में स्त्रियों की यही दशा है। समाज में पितृसत्ता का स्वरूप ऐसा जटिल और मज़बूत है कि डॉ. अम्बेडकर की बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। महिलाओं को भोग की वस्तु समझने की दूषित मानसिकता आज भी समाज में उतनी ही जीवंत है, जितनी पहले थी। डॉ. अम्बेडकर असमानता वाली हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था को इसका ज़िम्मेदार मानते हैं।
विवाह संस्था को नारी विरोधी कहा
डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि विवाह संस्था ही स्त्रियों के शोषण की संस्था है। जो सामाजिक सुरक्षा और समानता के नाम पर स्त्रियों के अधिकारों का हनन करती है। यह पति को स्वामी के उच्च स्थान पर बिठा कर स्त्रियों को दासी या गुलाम बना देती है। पुरुष कितना भी अच्छा आदमी क्यों न हो, विवाह संस्था उसे पति अर्थात् मालिक बना ही देती है। ‘‘एक गुलाम के लिए उसका मालिक बेहतर या बदतर हो सकता है। लेकिन मालिक अच्छा नहीं हो सकता।"
आज इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां खाना कब, कैसे और किसके साथ खाएं, यह मुद्दा बना हुआ है। पति से पहले खाना खा लेने वाली स्त्री आज भी अलग से चिह्नित की जाती हैं। हमारे समाज की विडम्बना है कि इन सामाजिक कुरीतियों की प्रशंसा करने और उनका पालन करने वाले लोगों की कमी भी नहीं है।
रीति-रिवाजों के बारे में डॉ. अम्बेडकर स्पष्ट लिखते हैं कि जहां तक वे समझते हैं, आज तक इन प्रथाओं के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं आई है। लेकिन इन प्रथाओं को सम्मान देने, प्रशंसा करने और इनका पालन करने वाले मिल जाएंगे। उन्होंने लिखा- ‘’मेरा मानना है कि इनको सम्मान देने का कारण ही यह है कि इन्हें अपनाया गया। जिस किसी को भी 18वीं शताब्दी के व्यक्तिवाद का थोड़ा सा भी ज्ञान होगा, वह मेरे कथन का सार समझ जाएगा। सदा से यह प्रथा रही है कि आंदोलनों का सर्वोपरि महत्व होना है। बाद में उन्हें न्याय-संगत बनाने के लिए और उन्हें नैतिक बल देने के लिए उन्हें दार्शनिक सिद्धान्तों का संबल दे दिया जाता है। इसी कारण इन रिवाजों की प्रशंसा की गई, क्योंकि इनके चलन को प्रोत्साहन देने के लिए प्रशंसा की जरूरत थी। हम जानते हैं कि रिवाज कितने क्रूर, कष्टकारी और घातक हैं।’’
डॉ. अम्बेडकर अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये हमेशा भूमि के बराबर बँटवारे की बात भी करते थे। उन्हें पता था कि खेती में ही सामंती उत्पीड़न सबसे अधिक होता है, इसलिए उसकी रीढ़ तोड़ने के लिए जमीन के राष्ट्रीकरण की मांग उठाते हैं । जमींदारी का नाश उन्हें इसी तरह से होता सम्भव लग रहा था । अपनी इस प्रस्तावित योजना को उन्होंने ‘राजकीय समाजवाद’ कहा था । निजी
पूंजी पर लगाम लगाने के लिए समाजवाद की क्षमता को वह जानते थे । राजकीय नियंत्रण से अर्थतंत्र को आजाद करने को वह जमींदारों को लगान बढ़ाने और पूंजीपतियों को मजदूरी घटाने की आजादी मानते थे।
पूंजी पर लगाम लगाने के लिए समाजवाद की क्षमता को वह जानते थे । राजकीय नियंत्रण से अर्थतंत्र को आजाद करने को वह जमींदारों को लगान बढ़ाने और पूंजीपतियों को मजदूरी घटाने की आजादी मानते थे।
लोकतंत्र को विस्तार देने और साकार करने की बात तो दूर, उसकी कब्र खोदने की जोरदार मुहिम के इस दौर में डॉ. अम्बेडकर एक प्रकाश स्तम्भ हैं। वह आज हमारे सबसे बड़े मार्गदर्शक हैं।
Bde bhaiya aapne ekdum reality likhi h
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