Friday 3 April 2020

मानवजाति को चेतावनी देती आई है कोरोना महामारी


असीमित लालच में प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा है यह महामारी

  • नम्रता वर्मा

पूरी दुनिया कोरोना वायरस (कोविड-19) की विभीषिका से जूझ रही है. इसने रोजमर्रा की गतिविधियों में ऐसा ठहराव ला दिया है जिसने मानव जाति को स्तब्ध सा कर दिया है. बीते कुछ सालों में मानव समाज ने इस पृथ्वी को खासा नुकसान पहुंचाया है.  ऐसा लगता है कि अपनी असीमित भौतिक और आर्थिक प्रगति की लालसा को पूरा करने के लिए मानव ने "प्रकृति की आत्मा" तक को बेचने से परहेज नहीं किया है.

लेकिन अपने को अजेय समझनेवाले मनुष्यों को कोरोना महामारी जैसी त्रासदियां उसकी हैसियत दिखा देती हैं. कोरोना की वैश्विक आपदा को लेकर एक नजरिया यह भी बन रहा है कि चूंकि सरकारों से लेकर आम समाज तक ने वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की चेतावनियों पर ध्यान देना बंद कर दिया है, इसलिए प्रकृति अपने हिसाब से बदला ले रही है. यह प्रकृति की मनुष्य को चेतावनी है, ऐसा मान लेने के बावजूद सवाल यह है कि अत्याधुनिक तकनीक और हर मोर्चे पर उन्नति कर लेने वाला मानव समाज इस तरह की चुनौतियों के सामने असहाय नजर क्यों आता है?

सच कहें तो महामारी के बढ़ते रफ्तार से विश्व भर में उपजी अव्यवस्थाओं ने देश-दुनिया की तमाम सरकारों के खोखले दावों से पर्दा हटा दिया है. वायरस जनित त्रासदी ने यह बता दिया है कि इस तरह की आपदाओं को लेकर मनुष्य अभी भी सजग नहीं है और उसकी तैयारी इन त्रासदियों के सामने कुछ भी नहीं हैं. दुनिया के सबसे संपन्न, विकसित और सैन्यशक्ति के आधार पर सबसे ताकतवर मुल्क- अमरीका, इटली, स्पेन, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन, ईरान आदि इसके आगे लाचार दिख रहे हैं. 
  
जार्ज मोनबियाव 
पर्यावरण और राजनीति संबंधी विषयों के जानेमाने लेखक  और ब्रिटिश अखबार “द गार्डियन” के नियमित स्तम्भकार जॉर्ज मोनबियाव लिखते हैं कि- "हमने वास्तविकता को नकारते हुए खुद को झूठे बुलबुले में छुपा लिया है. दुनिया के विकसित और अमीर देश यह मान चुके हैं कि उन्होंने वह सबकुछ पा लिया है जिसे दुनिया में विकास और सफलता का मानक माना जाता है. प्राकृतिक खतरों पर विजय के जिस बिंदु को सभ्यताएं कई सालों से तलाश रही थीं, उसे पा लेने का झूठा विश्वास मानवजाति में आ गया था. लेकिन जब वास्तविकता सामने आती है तो पूरे मानवसमाज को झटका लगता है. कोविड-19 की यह महामारी सचेत करने के लिए पर्याप्त है. जिन वास्तविकताओं को हम नकारते रहे हैं, यह समय उन्हें स्वीकार करने का है."

यह महामारी हमें स्वयं से यह सवाल करने के लिए विवश कर रही है कि क्या औद्योगिक, तकनीकी प्रगति और उसके आंकड़ो को ही विकास मानकर चलते रहें या फिर प्राकृतिक व्यवस्थाओं से संतुलन बनाकर विकास की राह तय करें? जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग जैसी कई चुनौतियों की ओर दुनियाभर के पर्यावरणशास्त्रियों ने बार-बार ध्यान दिलाया है और हमें लगातार आगाह करते रहे हैं कि इस समस्या को लेकर समय रहते सचेत हो जाना चाहिए.

इसके बाद भी दुनिया के विकसित देश इस पर सतर्क नहीं हो सके. पेरिस जलवायु समझौते पर देश हित थोपने की प्रवृत्ति मानवता के लिए बड़े और गंभीर संकट का कारण बन सकती है. बीते 50 वर्षों में ही सार्स, इबोला, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, डेंगू, एड्स जैसी बीमारियों के फैलने के अलावा ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी समस्याओं ने इस धरती और मानव जीवन की मुश्किलें बढ़ायी हैं. बाढ़, सूखे, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ी है और उनकी ताकत में भी इजाफा हुआ है.

तापमान बढ़ने से दोनों ध्रुवों के अलावा ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया तेज हुई है. कार्बन डाईऑक्साइड जैसे ग्रीनहाउस गैसों के लगातार उत्सर्जन से ग्लोबल वॉर्मिंग का असर और बढ़ेगा, सूखे-बाढ़-तूफान की बारंबारता में तेजी आएगी, ग्लेशियर पिघलेंगे तो समुद्र का जलस्तर उठेगा और ऊष्ण कटिबंधीय बीमारियों में और इजाफा होगा. तापमान में यह उतार-चढ़ाव खेती पर भी असर डालेगा, जिससे दुनिया में 40 करोड़ लोग भूखमरी के कगार पर पहुंच सकते हैं.

इस संबंध में जार्ज मोनबियाव लिखते हैं कि, "धरती पर कई समस्याएं हैं जिनसे तुलना करें तो कोरोना वायरस से निपटना आसान लगेगा. बाकी सारी समस्याओं को छोड़कर यदि एक की चर्चा करूँ तो वह होगा- सभी के लिए खाद्यान्न की उपलब्धता. यह उम्मीद ही की जा सकती है कि आनेवाले समय में हमें भोजन के लिए झगड़े का गवाह नहीं बनना पड़े. हालाँकि ऐसे पर्याप्त प्रमाण हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन खाद्य आपूर्ति को प्रभावित करता है. दुनिया के कई देश आज सूखे, बाढ़, आग से खेती को होने वाले नुकसानों से दो-चार हो रहे हैं.”

मोनबियाव आगे लिखते हैं, “पृथ्वी के गर्म होने से खाद्य उत्पादन में क्या समस्याएं आने वाली है, इसका वर्णन मार्क लेनस अपनी आगामी किताब "अवर फाइनल वार्निंग" में विस्तार से करते हैं. उन्होंने पाया कि पृथ्वी के तापमान बढ़ने की दर 3*C से 4*C के मध्य होने लगेगी, तब खाद्य उत्पादन, संबंधित उद्योग को सर्वाधिक खतरा होगा. वातावरण के इस ताप को सहने की क्षमता मनुष्यों में नही होगी. यह अफ्रीका और दक्षिण एशिया में कृषि संबंधी कार्यो को लगभग असंभव बना सकता है. सीमित संसाधनों की उपलब्धता के बीच तीव्र गति से हो रही जनसंख्या वृद्धि विश्व को अकाल की विभीषिका में झोंक सकती है. आज जब विश्व के पास पर्याप्त खाद्यान्न है, तब भी धन और शक्ति के असमान वितरण के कारण हजारों लोग कुपोषित हैं, भुखमरी के शिकार हैं. जमाखोरी होती ही रहेगी क्योंकि अमीर वर्ग गरीबों के मुख से निवाला छीन लेता है."

विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री निकोलस स्टेन कहते हैं कि "यदि इन समस्याओं से निपटने में और देरी की गई तो आगे चलकर हमें इस विलंब की 20 गुना ज्यादा कीमत चुकानी होगी. बेकाबू होते हालात से साफ है कि प्रकृति के संकेतों को लेकर और ज्यादा ढिलाई नहीं बरती जा सकती. इस पूरे अंधकार में रोशनी की एक किरण इस रूप में बाकी है कि दुनिया के पास ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने की टेक्नोलॉजी है, लेकिन इसके इस्तेमाल और उत्सर्जन में कटौती के समझौतों से बाहर रहने की जिद के चलते जीवन हर वक्त संकट में पड़ा रहता है."

यही वजह है कि कई बार छोटी सी बीमारी महामारी के रूप में बदल जाती है. कोरोना की इस स्थिति को देखकर उम्मीद की जा रही है कि विज्ञान और प्रकृति की चेतावनियों को पूरा विश्व गंभीरता से लेगा. महानगरीय संस्कृति और वैश्वीकरण इस महामारी से सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं. देश-दुनिया भर के तमाम आकंड़े यह बताते हैं कि कोरोना से संक्रमित अधिकांश शहरी हैं. विदेश यात्राओं से अपने नगर लौटे लोगों के संपर्क में आकर बाकी लोगों तक यह संक्रमण पहुंचा है.

भारत में लॉकडाउन की घोषणा के बाद अपने गांव-घर लौटने वालों में से ज्यादातर शहरों का कामगार तबका है जो जान बचाने के लिए अपने मूल स्थान पर लौट जाना चाहता है. यह कितनी चौंकानेवाली बात है कि जो शहर अब तक रोजगार, प्रगति और सुख-सुविधाओं का केंद्र माने जाते हैं, वे आज जान के लिए खतरा बन चुके हैं.  सिर्फ चीन का वुहान शहर ही नहीं दुनिया का हर शहर आज असुरक्षित लग रहा है.

आप मानें या न मानें लेकिन कहीं न कहीं यह कोरोना वैश्वीकरण की प्रवृत्ति को जरूर प्रभावित करेगा. विश्व में बड़े पैमाने पर होनेवाली आवाजाही से ही यह वायरस चीन से विभिन्न देशों में पहुंचा है. उन्नति का प्रतीक माने जाने वाले शहर जो आज इस संक्रमण की चपेट में हैं, उनकी ऐसी दशा देखकर योजनाकार नए सिरे से सोचने पर विवश होंगे. इन शहरों की बसावट में सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ-साथ ऐसे उपाय भी सुनिश्चित करने होंगे जिससे एकाएक लोग इस संक्रमण की चपेट में न आएं.

इस महामारी का सामना दुनिया भर के देश अपने-अपने तरीकों से कर रहे हैं. चीन के बाद सर्वाधिक जनसंख्या वाला भारत भी इससे दो-चार हो रहा है. जब हम कोरोना से मिलने वाले सबक की बात कर रहे हैं तो हमारी सरकारों की अव्यवस्थाओं और अपूर्ण तैयारियों की ओर भी ध्यान दिलाना जरूरी है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के पास न तो पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं हैं और न ही सरकारें नागरिकों की सेहत पर ज्यादा खर्च करती हैं.

सच यह है कि कोरोना से पैदा मुश्किलें बढीं तो यह पता चला कि देश के 1.3 अरब आबादी के लिए हमारे पास सिर्फ 40 हजार वेंटिलेटर हैं, जबकि हमसे बहुत कम आबादी वाले देश अमेरिका में वेंटिलेटर की संख्या एक लाख 70 हजार है. यह फर्क ही साफ करता है कि क्यों हमारे देश को 21 दिनों तक लॉकडाउन करने की जरूरत पड़ रही है. यदि लॉकडाउन का उपाय नहीं आजमाया जाता और लोगों की सामान्य दिनचर्या जारी रहती तो ऐसे में संक्रमित होने वाली भारी आबादी के इलाज की व्यवस्था हमारे पास नहीं है.

यही नहीं, पिछले 10-12 सालों में इलाज की लागत 300 फीसद तक बढ़ गई है और ज्यादातर परिवार इलाज के कुल खर्च का 60 से 80 फीसद हिस्सा बीमा से बाहर अपनी आय से देते हैं. इस कारण कई बार उनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो जाती है. अभी तक देश के हेल्थ सेक्टर में सरकारें कोई ज्यादा योगदान नहीं करती रही हैं. साथ ही, देश में जरूरी दवाओं की कीमत पर समुचित नियंत्रण नहीं है. सरकारी अस्पतालों में भर्ती आम मरीजों को लिखी जाने वाली दवाओं के बारे में आंकड़ा यह है कि फिलहाल, सिर्फ 9 फीसद दवाएं ही अस्पतालों से दी जाती हैं, बाकी सारी दवाएं उन्हें बाहर से खरीदनी पड़ती हैं.

ये सारे तथ्य और आंकड़े साबित कर रहे हैं कि अगर कोरोना मामले से हमारी सरकारों ने कोई ठोस सबक नहीं लिया और स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त सुधार और सरकारी निवेश नहीं किया तो कोई भी संक्रमण बदहवासी का ऐसा ही आलम पैदा करेगा, जैसा कि आज कोरोना के मामले में दिखाई दे रहा है.

आज हम जो त्रासदी झेल रहे हैं, वह हमें एक बार फिर स्मरण करा रही है कि वैश्विक चुनौतियों की कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं होती. पूरी दुनिया इस तरह की आपदाओं से प्रभावित होती है. कोविड-19 की भीषण महामारी का यही सबक है कि अगर मानवजाति ने अपने जीने के तौर-तरीके नहीं बदले और प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का  स्वार्थवश अपरिमित दोहन करना बंद नहीं किया तो उसे ऐसे संकट का सामना बार-बार करना पड़ेगा.

कोरोना संकट ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि मनुष्य का अस्तित्व तभी रहेगा जब वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर जीवनयापन करे.  

6 comments:

  1. bhut hi acha likhti ho..🙏 aage bhi tum esi trh likhte rhna📝.mujhe umid hai ki tum kabhi apne Priy jano Ko niraash Nahi Karogi😇

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  2. “जब हम कोरोना से मिलने वाले सबक की बात कर रहे हैं तो हमारी सरकारों की अव्यवस्थाओं और अपूर्ण तैयारियों की ओर भी ध्यान दिलाना जरूरी है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के पास न तो पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं हैं और न ही सरकारें नागरिकों की सेहत पर ज्यादा खर्च करती हैं...“
    अच्छा लेख...

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  3. बहुत बढिया आलेख
    प्रकृति अपना संतुलन स्वयं कर लेती है इसलिए प्रकृति की सर्वोत्तम कृति मानव अपनी विकास की दिशा पुनः निर्धारित करे आध्यमिक उन्नति के साथ सतत विकास न कि भौतिक
    उन्नति के साथ क्षणिक विकास ़...

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  4. U factually penned down your thoughts Neeti... content is useful for me as well ...

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  5. सटीक एवं विश्लेषणात्मक आलेख नम्रता। ऐसे ही लिखते रहना।

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  6. Ye tathya bilkul satik hai..
    Aur results bhi...
    Bahut achha likha h Namrata

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