Monday 6 April 2020

कोरोना के चलते देश में पहले वित्तीय आपातकाल की आहट

अगर वित्तीय आपातकाल लगा तो आम नागरिकों के पैसों एवं संपत्ति पर देश का अधिकार हो जाएगा

  • अनमोल गुप्ता

कोरोना यानी COVID-19 महामारी को फैलने से रोकने के लिए देशभर में  21 दिनों का लॉकडाउन किया गया है। इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है. याचिकाकर्ता ने माँग की है कि केंद्र सरकार इस वैश्विक महामारी के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को रोकने के लिए देश में वित्तीय आपातकाल की घोषणा करे।


सेंटर फॉर एकाउंटेबिलिटी एंड सिस्टेमिक चेंज (Centre for Accountability and Systemic Change) नामक संस्था द्वारा दायर इस याचिका में कहा गया है कि 21 दिनों के लॉकडाउन से देश की आर्थिक गतिविधियों में एक ठहराव गया है। इससे निपटने के लिए वित्तमंत्री ने 1.7 लाख करोड़ रुपये के जिस राहत पैकेज की घोषणा की है, उसके बेहतर उपयोग के लिए देश में वित्तीय आपातकाल लगना चाहिए। याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि वह संविधान के अनुच्छेद-360 के अनुसार देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का निर्देश केंद्र सरकार को दे। ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद से भारत में अब तक कभी भी वित्तीय आपातकाल लागू नहीं हुआ है।

क्या केंद्र सरकार की साख और वित्तीय स्थायित्व को खतरा है !


नोटबंदी के बाद से ही देश की आर्थिक गतिविधि बहुत धीमी हो गई है। वित्तीय वर्ष 2019-20 में भी हालात सुधरे नहीं हैं। भारत में असंगठित क्षेत्र देश की करीब 94 फ़ीसदी आबादी को रोज़गार देता है और अर्थव्यवस्था में इसका योगदान 45 फ़ीसदी है। लेकिन लॉकडाउन की वजह से रातोंरात जिस तरह लाखों लोगों का रोज़गार छिन गया है, उससे असंगठित क्षेत्र पर बुरी मार पड़ी है भारत के लिए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करने वाले संस्थान एनएसएसओ (National Sample Survey Organisation) के अनुसार साल 2018 में भारत में बेरोज़गारी दर 6.1 फीसदी थी, जो 45 वर्षों के सबसे अधिकतम स्तर पर थी। पिछले साल के अंत तक देश के आठ प्रमुख क्षेत्रों में औद्योगिक उत्पादन 5.2 फ़ीसदी तक गिर गया। बीते 14 वर्षों में यह सबसे खराब स्थिति है। 




इसके अलावा भारत में बैंकों की स्थित भी डावाँडोल दिख रही है। देश के लगभग सारे बैंकों का नॉन परफॉर्मिंग एसेट (NPA) बढ़ा है। ये वैसे क़र्ज़ होते हैं जिनके लौटने की आस बैंक छोड़ चुका होता है। इस कारण से देश के कुछ बैंक दीवालिया हो गए हैं और बाक़ी बैंकों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। हाल में हुआ यस बैंक प्रकरण इसी का नतीजा है। हालात से निपटने के लिए सरकार को कई बैंकों का विलय भी करना पड़ा है। सो मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए अगर सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए तो जल्द ही देश में वित्तीय संकट की स्थिति बन सकती है। 

कोरोना से बड़ा नुकसान


पहले से ही डगमग भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना वायरस कोढ़ में खाज साबित हो रहा है। इस वायरस के कम्युनिटी ट्रांसफ़र यानी समाज में बड़े पैमाने पर संक्रमण को रोकने के लिए सरकार ने 21 दिन की देशव्यापी घरबंदी (Lockdown) घोषित की है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस घरबंदी में देश की अर्थव्यवस्था को 100 अरब डॉलर यानी करीब 7.6 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है। ऐक्विट रेटिंग्स एंड रिसर्च (Acuite Ratings and Research) नामक संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर दिन 4.5 अरब डॉलर यानी करीब 34 हजार करोड़ रुपये की चपत लगेगी. इससे पहले से ही सुस्त अर्थव्यवस्था की विकास दर 30 साल के सबसे निचले स्तर पर जा सकती है।


इसी तरह एक अन्य एजेंसी फिच रेटिंग्स (Fitch Ratings) ने इस साल वैश्विक मंदी की आशंका जताई है और वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत की वृद्धि दर को घटाकर दो प्रतिशत कर दिया है। स्थिति कितनी नाजुक है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि मूडीज इंवेस्टर्स सर्विस (Moody’s Investors Service) नामक एक अन्य एजेंसी ने भारतीय बैंकों की स्थिति को स्टेबल यानी स्थिर से बदलकर निगेटिव कर दिया है, जिसके बाद बैंकों के शेयर 15 फीसदी तक गिर गए। मूडीज का अनुमान है कि कोरोना महामारी के चलते आर्थिक गतिविधियों में कमी आने से बैंकों की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में गिरावट आएगी। ये सभी परिस्थितियां आने वाले गंभीर आर्थिक संकट की ही आहट हैं, जो वित्तीय आपातकाल लगाए जाने के दरवाज़े खोल रही हैं।

क्या हैं संवैधानिक प्रावधान 

आज़ादी के बाद से अब तक देश में कभी भी वित्तीय आपातकाल लागू नहीं हुआ लेकिन संविधान में इसका प्रावधान है. राष्ट्रपति द्वारा संविधान के भाग-18 में अनुच्छेद-360 के तहत वित्तीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। ऐसा तब हो सकता है जब केंद्र सरकार की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति को पूर्ण विश्वास हो जाए कि देश में ऐसा आर्थिक संकट है, जिसके कारण भारत के वित्तीय स्थायित्व या इसकी वित्तीय साख को खतरा है। 



मसलन अगर भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त होने के कगार पर जाए या सरकार दीवालिया होने की कगार तक पहुँच जाए यानी सरकार के पास अपने कार्यों को अंजाम देने के लिए भी धनराशि ना बची हो, तब देश में वित्तीय आपातकाल लगाया जा सकता है।


क्या होगा वित्तीय आपातकाल में? 


1. आम नागरिकों के पैसों एवं संपत्ति पर भी देश का अधिकार हो जाएगा।

2. राष्ट्रपति किसी कर्मचारी के वेतन एवं भत्तों में कटौती कर सकता है और इसका विरोध भी नहीं हो सकता।

4. सारे आर्थिक बिल पर राष्ट्रपति की मुहर लगती है।

5. सरकार सेवा कर तथा आय कर में बढ़ोतरी कर सकती है।

6. सरकार बैंक तथा आरबीआई को कहकर ब्याज दर और रेपो रेट भी बढ़ा सकती है।

इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि वित्तीय आपातकाल में राज्य के सभी मामलों में केंद्र का नियंत्रण स्थापित हो जाता है. साथ ही वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए सरकार जो भी कदम उठाएगी, चाहे वह कितना भी कठोर क्यों ना हो, उसका विरोध नहीं किया जा सकता।

वित्तीय आपातकाल से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य


1. वित्तीय आपातकाल की घोषणा की तिथि से दो माह के भीतर इस पर संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति ज़रूरी है।


2. एक बार यदि संसद से इसे मंजूरी मिल गई तो यह अनिश्चितकाल के लिए तब तक प्रभावी रहेगाजब तक इसे वापस ना ले लिया जाए।
3. इसे मंजूरी देने वाला प्रस्ताव किसी भी सदन में लाया जा सकता हैजिसे साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता है।

4. राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय एक घोषणा द्वारा इसे वापस लिया जा सकता है और इसे संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होती।

इतिहास


संविधान सभा के सदस्य एच. एन. कुंजरू ने संविधान में वित्तीय आपातकाल के प्रावधान को राज्य की वित्तीय संप्रभुता के लिए गंभीर खतरा बताया था पर डॉ. भीमराव अंबेडकर इसके समर्थन में थे। उन्होंने इसे संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1933 में पारित 'राष्ट्रीय रिकवरी कानून' के ढांचे की तरह बताया था।

बहरहाल अब ये देखना है कि वित्तीय आपातकाल लगाने वाली जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या रुख़ अपनाता है। मेरा निजी तौर पर मानना है कि इतने महत्वपूर्ण मसले पर न्यायपालिका अपना कोई मत देने की बजाय इसे पूरी तरह विधायिका के विवेक पर छोड़ देगी। 

साथ ही उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मसले पर हड़बड़ी में कोई फ़ैसला लेने की बजाय सरकार पहले सभी दलों की बैठक करके आम राय बनाने की कोशिश करेगी।अर्थशास्त्रियों से बात करेगी। साथ ही इस मामले में बहुमत की चलाने की बजाय सर्वसम्मति बनाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाना ज़रूरी है। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इसके क्या बुरे परिणाम हो सकते हैं


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