Thursday 2 April 2020

नयी सुबह के इंतज़ार में दिल्ली की कुली कॉलोनी

शहर झुग्गियों को पसंद नहीं करते लेकिन शहर झुग्गियों में रहनेवालों के बिना चल भी नहीं सकते हैं 

  • करिश्मा सिंह                           

तली संकरी गलियां... खुली नालियों में बहता मल-मूत्र...प्लास्टिक की खाली बाल्टियाँ... आवारा बहता सरकारी नल का पानी और 6x8 का एक कमरा जिसका एक कोना घर की महिलाओं का बाथरूम बन जाता है. इस घर, अगर इसे घर कह सकें तो इसके एक कोने में मेज पर सिमटी रसोई और शराबियों के डर से कमरे के अंदर ही खेलने को मजबूर नन्हीं बच्चियाँ.

यह एक आम नजारा है लगभग हर घर का! यह दक्षिणी दिल्ली के मुनीरका इलाके के पास बसी झुग्गी बस्ती कुली कॉलोनी है.

भारत की राजधानी दिल्ली में असमानता' का चरम देखना हो तो आप इस महानगर की किसी भी झुग्गी बस्ती का रूख कर सकते हैं. एक ओर जहां यह राजधानी विश्व स्तर की सुविधाओं से लैस होने का दावा करती है, वहीं दूसरी ओर, झुग्गियों में रहनेवाले इसके लाखों वाशिंदों के पास बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं.

भारत में 19वीं सदी में शुरू हुए औद्योगिकरण के बाद से ही तेजी से बढ़ते शहरों में  झुग्गी बस्तियां एक बड़ी और जटिल प्रक्रिया के रूप में उभर कर सामने आयी हैं. पिछले कुछ दशकों में कामकाज की तलाश में लोग अपने गांवों/कस्बों/छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर आते रहे हैं. इस प्रक्रिया को पलायन' कहा जाता है. ज्यादातर दिहाड़ी पर मजदूरी करनेवाले इन मजदूरों की हैसियत महंगे किराये के घर लेने की नहीं होती है. शहर में इनके लिए कोई जगह नहीं है लेकिन यह भी सच है कि इन मजदूरों के बिना शहर का काम नहीं चल सकता.

नतीजा, इन मजदूरों के लिए शहरों ने झुग्गियां बना दीं. वे झुग्गियां जो शहर का हिस्सा हैं भी और नहीं भी हैं. शहर को उनकी जरूरत है लेकिन शहर उन्हें देखना भी नहीं चाहता. ये झुग्गी-बस्तियां शहरों की और मजदूरों दोनों की पसंद नहीं, मजबूरी बन जाती हैं.

ऐसी ही एक झुग्गी- कुली कॉलोनी में ही पली-बढ़ी 26 वर्षीया रुबीना बताती हैं कि,” इस छोटी जगह में रहना मुश्किल है. लेकिन पिछले 5-6 सालों से पानी की दिक्कत नहीं होती. बिजली के मीटर भी लग गए हैं. बस्ती के आस-पास शराबी लोगों की वजह से बच्चों की सुरक्षा की चिंता लगी रहती है, इसलिए उन्हें कहीं बाहर नहीं जाने देते. संडे को खुद ही कहीं बाहर घुमाने ले जाना पड़ता है. बारिश में यहां रहना मुश्किल हो जाता है क्योंकि दूसरों की नाली भी हमें ही साफ करनी पड़ती है.”



                    
लेकिन दिल्ली में कुली कालोनी जैसी सैकड़ों बस्तियां हैं और रूबीना जैसी लाखों महिलाएं और मर्द जो विकास की दौड़ में न सिर्फ पीछे छूटते जा रहे हैं बल्कि उनकी जिन्दगी में कुछ बुनियादी सुविधाएँ भी धीरे-धीरे छनकर पहुँच रही हैं. सच पूछिए तो दिल्ली विकास की अंधाधुंध दौड़ में भाग तो रही है लेकिन उसका एक बड़ा तबका है जो लगातार पीछे छूटता जा रहा है. कुछ समय पहले तक कुली कालोनी में रहनेवाले लोगों के सामने पीने के पानी से लेकर बिजली तक की विकट समस्या थी.

हालाँकि पिछले कुछ सालों में स्थितियाँ कुछ बेहतर हुई हैं लेकिन अभी भी परेशानियां और अभाव इन बस्तियों का रोज का कारोबार है. इसके बावजूद उनके लिए विकास सिर्फ एक सपना है. याद रहे कि वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं बैठक में ‘2030: सतत विकास हेतु एजेंडाके तहत सदस्य देशों द्वारा 17 विकास लक्ष्य स्वीकृत किये गए हैं. पर्यावरण तथा विकास पर विश्व आयोग’ (1983) के तहत बर्टलैंड कमीशन द्वारा जारी रिपोर्ट (1987) के अनुसार–‘आने वाली पीढ़ी की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता से समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु विकास ही सतत या टिकाऊ विकास है.

सतत विकास की यह परिभाषा पर्यावरण और नागरिकों दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण है. लेकिन कुली कालोनी की कक्षा 9 में पढने वाली ज़ेबा के लिए सतत विकास बेमानी है. वे कहती हैं कि, यहां शराबियों का डर रहता है पर हम लोग छेड़खानी करने वाले लोगों को बर्दाश्त नहीं करते. कोई बुरी नजर से देखता है तो उसे उतनी ही तीखी नज़रों से पलटकर देखती हूं, जब तक वह नज़रे हटा ले. बाथरूम वगैरह की परेशानी होती है पर अब हमने आदत डाल ली है."

इस बस्ती में रहने वाले ज्यादातर लोग दिहाड़ी मजदूर हैं. लेबर, राज-मिस्त्री, रेहड़ी लगाना, घरों/दुकानों में काम करने वाले लोग यहां रहते हैं. दिन में यहाँ महिलाएं और बच्चे ही मिलते हैं. 6 साल पहले शादी के बाद इस कॉलोनी में रहने आयीं भाग्यवती बताती हैं कि, “यह जगह बहुत छोटी और संकरी है. गांव में हम खुली और बड़ी जगह में रहते थे पर वहां काम नहीं था, इसलिए यहां आना पड़ा।"
                       

बातचीत के दौरान बहुत से लोगों ने बताया कि उनके बच्चे पास के ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं. ये लोग केजरीवाल सरकार ने स्कूलों को सुधारने के लिए जो किया है, उससे खुश हैं और

सरकार के दावों के जीते-जागते प्रमाण हैं. कालोनी के ज्यादातर अभिभावक स्कूल में शिक्षकों के व्यवहार और अपने बच्चों की पढ़ाई से संतुष्ट हैं. इस सबसे इतर इन बस्तियों में सीवर और शौचालय विकट समस्या के रूप में मौजूद है.


शहर को साफ़ रखने के काम में लगे लोगों को भारत सरकार की महत्वाकांक्षी ‘स्वच्छ भारत योजना' का लाभ नहीं मिल पाया है. इन बस्तियों में हर ओर गंदगी का आलम दिखता है. यहां रहने वाले बद्री बताते हैं कि, सुबह-सुबह टॉयलेट जाना किसी मुसीबत से कम नहीं होता. औरतों के लिए तो और ज्यादा मुश्किल है. इन बस्तियों की सुध सिर्फ चुनाव के वक्त ही ली जाती है."

सितारों से आगे जहां और भी है...

किसी भी शहर के मध्यवर्गीय लोगों से पूछिए तो उन्हें ये झुग्गी-बस्तियां और उनमें रहने वाले लोग कुछ खास पसंद नहीं होते या उन्हें इन लोगों की परेशानियों से कोई खास वास्ता नहीं होता. और तो और इन बस्तियों को शहरी व्यवस्था और प्रशासन पर हमेशा ही एक अतिरिक्त भार की तरह ही देखा जाता है. शहर की सबसे मूलभूत और छोटी से छोटी ज़रूरत को पूरा करने वाले ये लोग खुद पूरा जीवन उन जरूरतों को पूरा करने को तरस जाते हैं.

इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के पास ही कोई सामाजिक सुरक्षा है और ही आर्थिक सुरक्षा. आधुनिकता के इस दौर में ये स्थितियां आमलोगों के जीवनस्तर के गिरते जाने का सबूत हैं. इनमें रहने वाले ज्यादातर लोग अस्थायी प्रवासी कामगार हैं. अर्थशास्त्री एस्थर डफ्लो और अभिजीत बनर्जी (2006) के अनुसार उत्तर भारत के ग्रामीण इलाके में किए गए एक सर्वे में 58 प्रतिशत गरीब परिवारों ने बताया कि घर का मुखिया काम की तलाश में किसी बड़े शहर चला गया है. ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर प्रवास करने वाले इन किसानों जो कि अब मजदूर बन चुके हैं, के पास रहने/खाने की कोई व्यवस्था नहीं होती. इनके लिए आखिरी ठिकाना ये झुग्गी-बस्तियां ही बनती हैं.

देश में ये बस्तियाँ सिर्फ एक दिन में नहीं बनी हैं. लेकिन उनमें से ज्यादातर कथित विकास से अछूती हैं. यही नहीं, देश में जो तेज विकास चल रहा है, उसका फायदा किन्हें मिल रहा है, यह समझने की भी जरूरत है. भारत में राष्ट्रीय स्तर के साथ ही राज्य स्तर पर बहुत सी योजनाएं चलायी गयी हैं पर उनका फायदा लोगों को नहीं मिल रहा है. इसीलिए लोग अपना घर छोड़ शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इस पलायन का एक बड़ा कारण भारतीय कृषि की मॉनसून पर निर्भरता भी है.

खेती में जोखिम ज्यादा और फायदा कम होने से ये छोटे किसान और खेतिहर मजदूर आजीविका की खोज में शहरों का रुख करते हैं. इसी प्रक्रिया में गांव का किसान' शहर का मज़दूर' बन जाता है. दिल्ली में इस तरह की झुग्गी-बस्तियों की कोई कमी नहीं है. लगभग हर बड़ी बिल्डिंग के पीछे एक छोटी या बड़ी झुग्गी-बस्ती अपनी जगह बना ही लेती है. इनमें रहने वाले लोग शहरों में बड़े फ़्लैट और अपार्टमेंट बनाते हैं, अमीर
लोगों की गाड़ियां चलाते हैं, उनके घरों में घरेलू काम करते हैं, लेकिन उनका खुद का जीवन कष्ट से बीतता है. अक्सर आग वगैरह लग जाने पर सैकड़ों परिवार एक रात में बेघर हो जाते हैं. इसके अलावा इन बस्तियों पर अवैध बताकर उजाड़े और हटाए जाने का खतरा बना रहता है.

लेकिन अब समय आ गया है जब सरकारों को अपनी दृष्टि में बदलाव करना चाहिए. सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे इन बस्तियों का जीवन स्तर लंबे समय तक के लिए बेहतर किया जा सके. सबसे पहले तो ऐसी बस्तियों की गिनती कर एक अलग डेटाबेस तैयार किया जा सकता है. इस डाटा के माध्यम से झुग्गी-बस्ती की ओर उन्मुख नीतियों को कार्यान्वित किया जा सकेगा. मियादी/मौसमी पलायन के कारण शहर में आने वाले लोगों के लिए विशेष व्यवस्था की जा सकती है.

गैर सरकारी संस्थानों के साथ मिलकर यहां रहने वाले बच्चों और महिलाओं के लिए कौशल विकास के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं. बदलते वक्त में विकास की परिभाषाएं भी बदलनी चाहिए. बंद कमरों में बैठकर पुनर्वास और विकास की योजनाएं नहीं बनायी जा सकतीं. इन बस्तियों का विकास करने के लिए यहां के लोगों और उनकी जरूरतों को समझना जरूरी है. असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों की पहचान और गिनती कर, उन्हें चिन्हित किया जाना चाहिए. योजनाओं को उन लोगों को तक ले जाना होगा, जिनके लिए उन्हें बनाया जाता है. उन्हें “शहर पर बोझ” समझने की सोच में बदलाव लाने से ही समाज में इनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है.  


2 comments:

  1. एक उम्दा लेख। इस लेख के माध्यम से झुग्गी मे रहने वालों विशेषकर बालिकाओं और स्त्रियों की वेदना काफी हद तक उभर कर सामने आ रही है। सतत विकास लक्ष्य 3, 6, 11 के अनुपालन कि सुगमता हेतु ऐसे लेख निश्चित ही अपेक्षित हैं और ये नीति निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन मे एक महत्वपूर्ण स्तम्भ कि भूमिका निभा सकते हैं

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  2. दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में बसी कुली कॉलोनी और नगरीय जीवन की आवश्यकताओं को पेश करता एक बेहतरीन विश्लेषण। आलेख में वैश्विक और भारतीय विकास संबंधी मानकों के आधार पर कुली कॉलोनी जैसी लाखों बस्तियों का मूल्यांकन हुआ है। साथ ही विकास समस्या केंद्रित क्यों होना चाहिए इसको भी व्याख्यायित किया गया है। नगर और इनकी सुंदरता वही नहीं हैं जो दिखती हैं बल्कि झुग्गी-झोपड़ियों और अस्वच्छ इलाकों में रहने वालों की जिंदगी इसमें लगी है। यदि ऐसे कामगार जीवन की आवास, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, लैंगिक भेदभाव से मुक्ति और रोजगार जैसे मानवीय जरूरतें पूरी हो जाएं तो दिल्ली सहित अन्य नगरों का जीवन भी अच्छा हो जाएगा। सीवर में घुसकर दिल्ली को साफ करने वालों की जिंदगी भी जब जिंदगी मानी जाने लगेगी तो निश्चित रूप से देश आगे जाएगा। लेकिन यह तय है कि दिन रात विज्ञापन चलाने और भारत माता और बजरंग बली की नारेबाजी से समाज साम्प्रदायिकता, जातिवाद जैसी राष्ट्रीय समस्याओं और नगर केंद्रित समस्याओं से मुक्त नहीं हो पायेगा। इसलिए संविधान केंद्रित समझ और विकास पर बल दिया जाना लाज़िमी है लेकिन उसकी तरफ शायद ही कोई जाना चाहता है।

    अजमेर सिंह काजल

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