Tuesday 14 April 2020

चरैवेति, चरैवेति के सिद्धांत में विश्वास करते थे राहुल सांकृत्यायन

गंगा से वोल्गा नाप आनेवाले राहुल आधुनिक दौर के फाहियान और हुएनसांग थे  

  • शिवम भारद्वाज  


"बेड़े की तरह पार उतरने के लिए मैंने विचारों को स्वीकार किया,
न कि सिर पर उठाये-उठाये फिरने के लिये।"
बुद्ध का यह कथन राहुल सांकृत्यायन के जीवन का आदर्श वाक्य था। यह वाक्य राहुल जी के जीवन और व्यक्तित्व को समझाने में भी महत्वपूर्ण है। आज राहुल सांकृत्यायन की 57 वीं
पुण्यतिथि है। राहुल जी का जन्मदिन और पुण्यतिथि- दोनों संयोगवश अप्रैल माह में ही पड़ते हैं। राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा ग्राम में 9 अप्रैल 1893 को हुआ था। उनका मूल नाम केदारनाथ पांडेय था। मधुमेह की बीमारी और स्मृतिलोप के बाद 70 वर्ष की आयु में 14 अप्रैल 1963 में दार्जिलिंग में उनका देहान्त हो गया।

राहुल सांकृत्यायन के व्यक्तित्व और कार्यक्षेत्र के बारे में जब आप लिखने की कोशिश करते हैं तो आप दुविधा में पड़ जाते हैं कि इतने विस्तृत सागर जैसे व्यक्तित्व को किस तरह से लिखना शुरू करें। राहुल सांकृत्यायन बहुभाषाविद्, अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युग परिवर्तनकारी साहित्यकार थे। उनकी विद्वता और धार्मिक शोध से सम्बन्धित कार्यों के चलते उन्हें काशी पण्डित सभा द्वारा 1930 में महापंडित की उपाधि प्रदान की गयी। राहुल जी ने 8वीं तक ही स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी। लेकिन राहुल जी 30 से अधिक भाषाओं के जानकार थे जिनमे हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पालि, तमिल, कन्नड़, अरबी, फ्रेंच, रशियन प्रमुख हैं।

राहुल जी ने 140 साहित्यिक कृतियों की रचना अपने साहित्यिक जीवन के दौरान की जिनमें से कुछ अभी तक प्रकाशित नहीं हो पायी हैं। राहुल जी को भारत सरकार द्वारा साहित्य व इतिहास के क्षेत्र में योगदान के लिए पदम् भूषण व साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सोवियत संघ के लेनिनग्राद में उन्होंने सँस्कृत के अध्यापन का कार्य किया। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में उन्होंने दर्शन विभागाध्यक्ष के रूप में सेवा दी। विद्यालंकार विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गयी थी।

लेकिन इस सबसे अलग राहुल सांकृत्यायन मूलतः एक प्रबल जिज्ञासु प्रवृत्ति के घुमक्कड़ और खोजी थे। एक तरह से वे आधुनिक दौर के फाहियान और हुएनसांग की तरह थे. उनकी यही विशेष प्रवृत्ति और घुमक्कड़ी उनके विशाल अर्जित ज्ञान का आधार बनी। कम उम्र में ही वैराग्य उत्पन्न होने और एक हिन्दू साधु से कर्मकांडी- वेदांती- आर्यसमाजी- बौद्ध भिक्षु और एक साम्यवादी विचारक तक का उनका जीवन सफ़र बहुत दिलचस्प और उतार-चढाव से भरा रहा है।


*धार्मिक यात्रा*

राहुल सांकृत्यायन की धार्मिक यात्रा की शुरुआत उनके संस्कृत अध्ययन में रुचि से शुरू होती है। उनका मूल नाम केदारनाथ पांडेय था। पूजा-पाठ में केदारनाथ की बड़ी रुचि थी तो वे पुजारी कहलाये। काशी में उन्होंने सँस्कृत का अध्ययन शुरू किया। 19 वर्ष की अवस्था मे केदारनाथ पांडेय परसा मठ के उत्तराधिकारी बने और उनका नाम बदल कर रखा गया रामउदार दास। अब
वे एक वैरागी साधु थे। आगे की यात्रा में 22 वर्ष की अवस्था में उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। राहुल जी ने आर्य समाज की ओर से शास्त्रार्थ में भाग लेना शुरू कर दिया और दयानन्द के भिक्षु कहलाए। वेदों में उनकी अपार निष्ठा हो गयी थी।

लेकिन इसी बीच घुमक्कड़ी के दौरान उनका बुद्ध की तरफ ध्यान आकर्षित हुआ। बौद्ध धर्म को जानने की उनमें प्रबल इच्छा प्रकट हुई। बौद्ध धर्म से संबंधित साहित्य और ज्ञान की खोज में उन्होंने भारत के सम्पूर्ण बौद्ध स्थलों की यात्रा के बाद श्री लंका, नेपाल, तिब्बत , हिमालय, ल्हासा की दुर्गम यात्राएँ की और बौद्ध दर्शन सम्बन्धी अनुसन्धानों और अध्ययन में लगे रहे। श्री लंका में त्रिपिटकाओं के अध्ययन के बाद वे त्रिपिटकाचार्य कहलाए।

बौद्ध धर्म के अध्ययन के दौरान उनका ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया और वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर अग्रसर हुए. उन्होंने लिखा है-- "ईश्वर और बुद्ध साथ-साथ नहीं रह सकते यह साफ हो गया है और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा है कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है। लंका ने मेरे लिए बची-बचाई ईश्वर की टांग को ही नहीं तोड़ दिया बल्कि खाने की आजादी भी दे दी थी और साथ ही मनुष्यता के संकीर्ण दायरे को तोड़ दिया था। अब मुझे डार्विन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी. अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पैठती जान पड़ने लगी।"

37 वर्ष की आयु में वे बौद्ध भिक्षु बन गए और उनका नाम साधु रामोदर सांकृत्यायन से राहुल सांकृत्यायन हो गया।

तिब्बत से वे 21 खच्चरों पर बौद्ध तालपोथिया और राशिग्रँथ लेकर आये। भारत मे बौद्ध दर्शन का प्रचार-प्रसार उनकी साहित्यिक सेवा का मुख्य अंग बन गया। इन्होंने ईश्वरवादी धर्मों, सामाजिक बुराइयों, अंधविश्वासों और धार्मिक विद्वेष के खिलाफ बोलना और लिखना शुरू कर दिया। तुम्हारे भगवान की क्षय में वे लिखते हैं- "अज्ञान का दूसरा नाम ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को साफ स्वीकार करने में शर्माते हैं । अतः उसके लिए ईश्वर ढूंढ निकाला गया है। ईश्वर विश्वास का दूसरा कारण मनुष्य की असमर्थता और बेबसी है।"

जाति व्यवस्था पर वे लिखते है- "जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे। ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं
लोगों की तरफ से फैलाई गयी हैं, जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे ख्याल है धन बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर जो ख्याल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।"

"तुम्हारी जात-पात की क्षय’ में वे आगे लिखते हैं- “पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिंदुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद है, जो न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बांट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन से ऊंच-नीच का भाव पैदा करता हैं। ब्राह्मण समझता है, हम बड़े हैं, राजपूत छोटे हैं।राजपूत समझता है, हम बड़े हैं, कहार छोटे हैं। कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं। चमार सोचता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटे हैं और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को अपने से छोटा कह ही लेता है। हिंदुस्तान में हजारों जातियां हैं और सब में यह भाव है।”

वे सांप्रदायिक दंगों के लिए भी मूल रूप से धर्म को ही जिम्मेदार ठहराते हुए लिखते हैं- "धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये. आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों से गोबर खाने वालों को लड़ा रहा है। असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।"

★राजनैतिक यात्रा★ सबके राहुल बाबा

राहुल जी ने अपनी राजनीतिक कर्मभूमि बिहार के छपरा जिले को बनाया। असहयोग आंदोलन के दौरान 1921 में वे  आर्यसमाजी साधु के रूप में ही कांग्रेस के साथ जुड़े। इसी दौरान छपरा में भयंकर बाढ़ आयी। राहुल जी तत्काल राहत-कार्य और बाढ़-पीड़ित जनता की सेवा में लग गए। लोग उन्हें बाबा कहकर बुलाते थे। पूरे बिहार और पूर्वी उ.प्र. के किसानों के वे अपने 'राहुल बाबा'
थे । 1922 में ब्रिटिश दमन के दौरान जिला कांग्रेस की बैठक के दौरान उनकी गिरफ्तारी हो गयी और 6 माह की जेल हुई। 1923 में देश-द्रोह का मुकदमा चला और 2 साल की जेल हुई। राहुल जी को स्वतंत्रता-संघर्ष और किसानों के आंदोलन के दौरान कई बार जेल हुई, जेल होने पर वे पुलिस का धन्यवाद करते और साहित्य साधना में लग जाते।

कई सारी पुस्तकें उन्होंने जेल में रहने के दौरान लिखीं और पढ़ीं। गाँधीवाद से निराश कई नेताओं के साथ मिलकर 1931 में बिहार सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की. राहुल जी को इसमें मंत्री बनाया गया। गाँधी जी को लेकर अपने सम्बन्धों के बारे में वे लिखते है-- "गांधी जी से मिलने का मुझे एक से अधिक बार अवसर मिला। लेकिन मुझे कभी भी कोई अधिक बात जानने की इच्छा नहीं हुई। उनके आदर्शवाद का सम्मान करते हुए भी मैं बौद्धिक तौर से उनसे बहुत दूर था इसलिए मैं कभी उनके यहां गया भी तो कुछ मिनटों से अधिक नहीं ठहरा।"

1938 में राहुल जी ने पुनः सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया जिसके बारे में उन्होंने लिखा-- "मैं पहले भी राजनीति में अपने ह्रदय की पीड़ा को दूर करने आया था। गरीबी और अपमान को मैं भारी अभिशाप समझता था। असहयोग के समय में जिस स्वराज की कल्पना करता था, वह काली सेठ और बाबू का राज नहीं था। वह राज था किसानों और मजदूरों का क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी। अब तो देश विदेश को देखने के बाद और भी पीड़ा का अनुभव करता था।" 1938 में बिहार में कांग्रेस मंत्रिमंडल का शासन था। किसान और मजदूरों के नाम पर कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई और सरकार बनने के बाद कांग्रेस के अधिकतर जमीदार नेताओं ने किसानों का शोषण शुरू कर दिया. किसानों की दशा में कोई भी बदलाव ना हुआ। जमीदार लोग किसानों की जमीन छीन लेते थे, शोषण करते थे और हरी-बेगारी के लिए मजबूर करते थे तब अंग्रेजी प्रशासन और कांग्रेस की सरकार दोनों ही जमीदारों का पक्ष लेते थे।

राहुल जी ने किसान और मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया और जमीदारों, अंग्रेजी पुलिस प्रशासन व कांग्रेस सरकार की मजबूत तिकड़ी के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। आम्बारी सत्याग्रह के दौरान राहुल सांकृत्यायन पर जमीदार द्वारा लाठी  से हमला करवा दिया गया. इसमें राहुल जी का सर फट गया। पहले सत्याग्रहियों को सीवान जेल में रखा गया उसके बाद उन्हें छपरा जेल में स्थानांतरित किया गया। जब सत्याग्रही युवकों छपरा जेल में ले जाया जा रहा था तब जनता नारे लगा रही थी "इंकलाब जिंदाबाद", "किसान राज कायम हो", "जमीदारी प्रथा का नाश हो"। अखबार में कविता छपी, जिसकी कुछ लाइनें --  "राहुल के सर से खून गिरे, फिर क्यों वह खून उबल ना उठे? साधु के शोणित से फिर क्यों, सोने की लंका जल ना उठे?"

जेल में ही राहुल जी  ने भूख हड़ताल शुरू कर दी और अपना लेखन-पठन कार्य तेजी से आगे बढ़ाया। छितौली सत्याग्रह के दौरान फिर राहुल समेत सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी हुई और दो वर्ष की सख्त सजा सुनाई गयी। राहुल जी के अनशन और उनके पक्ष में भारी जन-समर्थन के कारण सरकार उनकी रिहाई को मजबूर हो गयी। 19 अक्टूबर 1939 को बिहार के मुंगेर में बिहार की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई । उस दिन को राहुल जी ने ने स्मरणीय दिवस के रूप में अंकित किया है। भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उनका भाषण जिसमें उनकी भाषाई नीति अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत थी।

कम्युनिस्ट पार्टी की नीति से मेल न खाने के कारण उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी भी छोड़ दी। राहुल जी की भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार आदि पर असहमतियां और आलोचनाएं भी होती रहीं हैं।

गाँधी जी की हत्या की खबर पर उन्होंने लिखा-- "भला यह विश्वास करने वाली बात थी? गांधीजी अजातशत्रु थे। वह किसी का अनिष्ट नहीं चाहते थे। बुद्ध के बाद क्या भारत में कोई इतना महान व्यक्ति पैदा हुआ?" 1952 में जनवरी के दूसरे सप्ताह में देश में हुए आम चुनाव के नतीजे आए जिसमें उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों राज्यों में कांग्रेस पार्टी को बड़ी जीत मिली और कम्युनिस्ट पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। राहुल जी ने सक्रिय राजनीति में भाग लिया था, उनके पास
जमीनी संघर्षों का अनुभव था, वामपंथियों की इस हार पर उन्होंने पूछा- "कम्युनिस्टों की निष्क्रियता कैसे हटेगी? वस्तुतः उनमें एक तरह की पंथाई संकीर्णता दिखलाई पड़ती है । वे अपने विचारों और मित्र मंडली की एक खोल बनाकर उसी के भीतर रहने में संतोष कर लेते हैं। उन्हें जनसाधारण और गांवों में घुसना है-जिस तरह हड्डियां मास के भीतर अपने को छिपाकर अभिन्न हो जाती हैं उसी तरह। अभी जनता की अपनी भाषाओं के सहारे लोगों के भीतर घुसने का प्रयत्न नहीं किया गया, उन्होंने इन लोक भाषाओं में अपना साहित्य नहीं तैयार किया।"

वामपंथ पर उनकी ये आलोचनात्मक टिप्पणी आज के समय मे भी उतनी ही प्रासंगिक प्रतीत होती है जितनी 1950 के दशक में थी।
1956 में भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में नागपुर में लाखों लोगों ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया. उसी वर्ष नेपाल के काठमांडू में विश्व बौद्ध धर्म सम्मेलन हुआ जिसमें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन दोनों ने ही भाग लिया था।
  
★घुमक्कड़ खोजी★

तीसरे दर्जे की उर्दू की पाठ्य पुस्तक में विद्यार्थी केदारनाथ (राहुल) ने एक शेर पढ़ा था --
"सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां?"

राहुल जी लिखते हैं - "इस शेर ने मेरे मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला। " केदार ने 14 वर्ष की आयु में अपनी पहली यात्रा की बनारस की। दूसरे प्रयास में यह लड़का पहुँचा सीधे कलकत्ता के हाबड़ा स्टेशन और फिर यात्राओं का सिलसिला चालू हो गया था। राहुल सांकृत्यायन ने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल यात्राओं में बिताया। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सम्पूर्ण देश की यात्राएं कीं।  

राहुल जी के द्वारा की गई यात्राओं में भारत भृमण के अलावा उत्तर भारत का पर्वतीय क्षेत्र, नेपाल, हिमालय क्षेत्र, श्री लंका, तिब्बत, ल्हासा, यूरोप यात्रा एशिया की महायात्रा, सोवियत यात्रा, चीन यात्रा आदि प्रमुख हैं। बौद्ध धर्म सम्बन्धी अध्य्यन, खोज, शोध के कार्य के लिए राहुल जी ने श्री लंका, नेपाल, तिब्बत की कई बार यात्राएँ की।

घुमक्कड़ी के ऊपर राहुल जी ने पूरा "घुमक्कड़ शास्त्र" ही लिख डाला है। स्त्रियों के लिए घुमक्कड़ी के सवाल पर वे लिखते हैं -- "कोई-कोई महिलाएँ पूछती हैं - क्या स्त्रियाँ भी घुमक्कड़ी कर सकती हैं, क्या उनको भी इस महाव्रत की दीक्षा लेनी चाहिए? इसके बारे में तो अलग अध्‍याय ही लिखा जाने वाला है, किंतु यहाँ इतना कह देना है, कि घुमक्कड़-धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्‍‍थान नहीं हो। स्त्रियाँ इसमें उतना ही अधिकार रखती हैं, जितना पुरुष। यदि वह जन्‍म सफल करके व्‍यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उन्‍हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए। घुमक्कड़ी-धर्म छुड़ाने के लिए ही पुरुष ने बहुत से बंधन नारी के रास्‍ते में लगाये हैं। बुद्ध ने सिर्फ पुरुषों के लिए घुमक्कड़ी करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका वही उपदेश था।"

घुमक्कड़ी का नए ज्ञान और खोज से सीधा सम्बन्ध है, इसके बारे में राहुल जी लिखते हैं-- "आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्‍यकता है, क्‍योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुराके उन्‍हें गला फाड़-फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया, जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्‍तुत: तेली के कोल्‍हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्‍थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्‍पत्ति और मानव-वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि सारे ही विज्ञानों को उससे सहायता मिली। कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन क्या डारविन अपने महान आविष्‍कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत नहीं लिया होता ?"

यही वजह थी कि राहुल जी एक पूरी संस्था और चलता-फिरता  शब्दकोश थे। अपनी इसी घुमक्कड़ी के कारण वे बहुभाषाविद, इतिहासकार, पुरातत्वेत्ता, दार्शनिक, साहित्यकार के रूप में स्थापित हुए।

★पारिवारिक और ग्रहस्थ जीवन★

राहुल जी का पालन-पोषण उनके नाना-नानी के घर हुआ था। उनका का विवाह 11 वर्ष की छोटी आयु में ही हो गया था, यही वह पहली घटना थी जिसके कारण उनमें समाज के प्रति विद्रोह का भाव पैदा हुआ। राहुल जी लिखते हैं-- "उस वक्त 11 वर्ष की अवस्था में मेरे लिए यह तमाशा था। जब मैं सारे जीवन पर विचारता हूं तो मालूम होता है कि समाज के प्रति विद्रोह का प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने ही पहला काम किया। जब मैं 15 साल का था तभी से मैं उसे शंका की नजर से देखने लगा था। 11 वर्ष की अवस्था में मेरी जिंदगी को बेचने का घरवालों को अधिकार नहीं। यह उत्तर इस वक्त भी मैं अपने  बुजुर्गों को दिया करता। मैंने उसे ना कभी अपना ब्याह समझा ना उसकी जिम्मेदारी अपने ऊपर मानी"।

14 वर्ष की आयु के बाद वे घर पर न के बराबर ही रुके। राहुल जी की दूसरी सोवियत यात्रा के दौरान सोवियत विज्ञान अकादमी के इंडो-तिब्बती विभाग में बौद्ध न्याय ग्रन्थों पर काम के दौरान उनकी मुलाकात एलेना (लोला) कोजेरोवस्काया { सचिव- इंडो-तिब्बती विभाग} से हुई। लोला फ्रेंच, रूसी, अंग्रेजी, मंगोल भाषा की जानकार थी। दोनों के बीच तय हुआ कि लोला राहुल को
रूसी भाषा सिखाएगी और राहुल लोला को सँस्कृत। इस दौरान दोनों एक-दूसरे के नजदीक आते गए और प्रेम करने लगे। सोवियत अकादमी में उनके काम पर के फैसले में हो रही देरी और तिब्बत अभियान के कारण वे जल्दी ही भारत लौट आये।

इसके बाद वे लोला से 7 वर्ष बाद और पुत्र ईगोर से पहली बार 1945 में मिले जब द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान जर्मनी ने आत्म-समर्पण कर दिया था। द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान वे लोला और पुत्र ईगोर को लेकर चिंतित थे. काफी परेशानी के बाद वे रूस पहुँच कर उनसे मिले और साथ मे लगभग 25 मास तक रहे जिस पर उन्होंने "रूस में 25 मास" नामक पुस्तक लिखी है। इसी समय उन्होंने मध्य एशिया के इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनकी पुस्तक "मध्य एशिया का इतिहास" के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। 1950 में उन्होंने मसूरी में साथी कमला के साथ विवाह कर लिया। उनको दो बच्चे हुए- बेटी जया और बेटा जैत। इस बार उन्होंने अपनी पारिवारिक ग्रहस्थ जिम्मेदारियों का निर्वहन करने का पूरा प्रयास किया लेकिन अपनी घुमक्कड़ प्रवत्ति और लेखन के जुनून के कारण वे टिककर परिवार के साथ न रह सके।

★साहित्यिक यात्रा★

राहुल जी ने अनेक विषयों पर पुस्तके लिखी। उन्होंने इतिहास और पुरातत्व, राजनीति और समाजशास्त्र धर्म और संस्कृति , दर्शन और विज्ञान, जीवनी और यात्रा वृतांत आलोचना और साहित्य इतिहास, शब्द कोश, अनुवाद और संपादन कार्य भी किया।

वह हिंदी यात्रा-साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है। जीवनपर्यंत राहुल जी ने 140 के करीब पुस्तकें लिखीं। उनकी कहानियां, यात्रा वृतांत, बौद्ध दर्शन, साम्यवाद तथा विज्ञान पर आधारित पुस्तकें सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। राहुल जी ने स्टालिन, कार्ल मार्क्स, लेनिन और माओत्से की जीवनियाँ भी लिखीं । 'मध्य एशिया का इतिहास' की रचना के लिए राहुल सांकृत्यायन जिस तरह से 200 से अधिक किलो वजन की किताबें सोवियत संघ से साथ ढोकर भारत लाए थे। इससे उनके रचना और इतिहास व साहित्य के प्रति जुनून को समझा जा सकता है।

१९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। वे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के निदेशक भी रहे। उन्होंने सरल हिंदी जन-भाषा मे आम लोगों के लिए जरूरी शिक्षा-प्रद पुस्तकें लिखीं।

5 comments:

  1. बहुत बेहतरीन शिवम जी । आपको उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं 💐

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  2. Bahut hi achche shabdo me aapne Rahul ji k jivan ko darshaya h .

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