Monday 13 April 2020

गाँव में डर कोरोना का नहीं, भूख का है

वो ग़रीब पिस गए हैं, जो हर दिन कमाते और खाते हैं

ग़रीबी ऐसी कि सैनिटाइजेशन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शब्द उन्हें समझ ही नहीं आते

  • ऋतिक कुमार
शहरी 'इंडिया' और ग्रामीण 'भारत' में बहुत फ़र्क़ है। आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस 'इंडिया' में कोरोना रविवार जैसा है, जहाँ मनोरंजन के लिए 'रामायण', 'महाभारत' है। पास में ही अस्पताल है, जहाँ कब्ज होने पर डॉक्टर को दिखा भी सकते हैं। उधर 'भारत' में लोगों के लिए हर दिन सोमवार है, हर दिन काम है और हर दिन दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्ष है। 'इंडिया' में कोरोना से लड़ने के लिए जहां बार-बार हाथ धोया जा रहा है, वहीं 'भारत' में कई ऐसे गाँव हैं, जहां पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं है। हाथ धोना तो बहुत दूर की बात है। यहाँ रोटी के लिए पैसे का बंदोबस्त हो जाए काफ़ी है। 

इस 'भारत' के लोगों को सैनिटाइजर बोलने में कई साल लग जाएंगे, उसे ख़रीदकर हाथ सैनिटाइज करना तो बहुत बड़ी बात है। 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे शब्द अंग्रेजी में बढ़िया लगते हैं क्योंकि भीड़भाड़ में रहने वाले 'इंडिया' के लोगों को यह आराम दे रहा है। लेकिन 'भारत' में इसका पालन करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये वो शब्द है जो उन्हें भुखमरी की तरफ़ ले जा रहा है।

भारत में अभी भी अमेरिका और इटली की तुलना में कोरोना के कम मामले हैं, लेकिन इसके बढ़ने की रफ़्तार अब भी कम नहीं है। 130 करोड़ की घनी आबादी वाले देश में पहले से ही दुनियाभर की समस्याएं हैं यहाँ लड़ने के लिए एक अकेला कोरोना ही नहीं है। दूर देहात में रहने वाले उन लोगों को कोरोना से सबसे ज़्यादा ख़तरा है, जिन्हें यह भी नहीं पता है कि कोरोना का नाम 'करुणा' नहीं है, जिसको भगाने के लिए वो चौखट पर दीया जलाते हैं। 

लॉकडाउन में जहां दुनिया सामाजिक दूरी का पालन कर रही है, वहीं गाँव का नाई घर-घर जाकर सबके दाढ़ी-बाल बना रहा है। आख़िर वो क्या करें? या तो पूरा गाँव दाढ़ी बढ़ाकर साधु बन जाएगा या फिर गाँव वाले उसकी मरम्मत कर देंगे. यहाँ 'सोशल डिस्टेंसिंग' को कौन पूछ रहा है?

गाँव में किसान रोज़ सबेरे उठकर खेत जाता है और सिर पर हाथ रखकर सोचता है कि फ़सल का सही मूल्य तो मिल जाएगा ! 'इंडिया' के नज़रिए से देखें तो संक्रमण रोकने के लिए उसे खेत नहीं जाना चाहिए, लेकिन 'भारत' के नज़रिए से कर्ज का बोझ कोरोना देखकर कम नहीं होगा। बहुत से लोगों को घर बैठे पैसे मिल जाएंगे। हो सकता है कुछ कम मिले। एक-दो महीने के लिए जमापूंजी भी होगी। लेकिन उस किसान का क्या, जिसने फसल को बच्चे की तरह पाला। आज क्या उसे खेतों में यूँ अकेला छोड़ देगा?

गाँव में समस्या ही समस्या


पवन चौधरी बिहार के खगड़िया जिला के परबत्ता थाना के भरतखण्ड गाँव के रहने वाले हैं। पेशे से बंटाईदार किसान हैं। पिछले कई सालों से खेती कर रहे हैं, खेती करने के हर अच्छे-बुरे अनुभव को उन्होंने महसूस किया है। लॉकडाउन से उपजी परेशानी के बारे में बताते हैं कि फ़सल बोने से लेकर बड़ा होने तक मेहनत ही मेहनत है। आज जब कटनी का समय आया है, तब मज़दूर नहीं मिल रहे हैं। सारे मजदूर जहां-तहां फंसे हुए हैं। जो भी गए हैं, वो गाँव के स्कूल में आइसोलेशन में हैं। मशीन से कटनी में ज़्यादा पैसे लग रहे हैं जिसकी मार उन पर ही पड़ रही है। एक दिक्कत यह भी है कि मशीन फ़सल को जड़ से नहीं काटती है जिस कारण भूसा के काम आने वाला कुछ हिस्सा खेतों में ही रह जाएगा। इससे आने वाले समय में मवेशियों के लिए भूसे की कमी हो जाएगी।

लेकिन वो क्या करें? इससे पहले की फ़सल झड़ जाए, आंधी-तूफान जाए, बारिश जाए, महंगे में ही सही, फ़सल कटवा लेना समझदारी है। लेकिन फ़सल यदि कट भी गई, तो उसका सही मूल्य मिलना एक बड़ी समस्या है। बाज़ार बन्द हैं और सरकार कितना खरीदेगी, यह तो देखने वाली बात होगी।

उधर, सरकार कहती है कि मज़दूर सामाजिक दूरी का पालन करें. लेकिन ये सम्भव है क्या? एक बोरे को एक मज़दूर के सिर से दूसरे के सिर पर रखने में कितनी दूरी रखी जा सकती है? बोझा बांधने में मज़दूर कितनी दूरी का पालन कर सकता है! मजदूरों को घर बैठे खाना मिल जाए, भारत इतनी भी बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं बना है अभी। असल में, खेती-किसानी का काम सहकारिता और मिल-जुलकर ही किया जाता है। ऐसे में, कोरोना काल के 'इंडिया' और 'भारत' के सिद्धांत आमने-सामने जाते हैं। 

जिस मीडिया ने मुसलमानों को कोरोना का वाहक मान लिया, वो कल को यह भी कह सकता है कि गाँव के लोगों ने लॉकडाउन का पालन नहीं किया, इसलिए भुगत रहे हैं। लेकिन इन किसानों और मज़दूरों के पास और भी कोई चारा है क्या ? गाँव में कई ऐसे परिवार हैं, जिनको दूसरे प्रदेशों से पैसे आते थे वो अब बंद हो गया है। उन्हें नहीं पता है, ये लॉकडाउन कैसे कटेगा।

मार रही है महंगाई 


मंटू यादव एक मज़दूर किसान हैं। वह भरतखण्ड गाँव के ही एक किराना दुकान पर 70 रुपया लेकर गए। एक किलो चावल, 250 ग्राम दाल, एक किलो आलू, बच्चे के लिए पाँच रुपया की कॉपी और क़लम खरीदी।  दुकानदार ने 69 रुपया का हिसाब जोड़वा दिया। 70 में एक रुपया लौटते हुए दुकानदार ने पूछा "और कुछ लेना है," तो मंटू ने मना कर दिया। बहुत देर खड़े रहने के बाद अपने गमछे से एक डिब्बा निकाला और धीमी आवाज़ में कहा "पैसा नैय छैय, लेकिन तेल लेबै के रहैय, मिलतैय की”?  मतलब कि उसके पास पैसे तो नहीं हैं लेकिन सरसो तेल लेना था, उसे मिलेगा क्या? 

उसने दुकानदार को विश्वास दिलाया कि उसके पास जैसे ही पैसा आएगा, वह दे देगा। दुकानदार ने उसे तेल दे दिया। बाद में मंटू ने बताया कि उसके पास जोड़े हुए पैसे ही थे, लेकिन सामान की क़ीमतों में इतनी वृद्धि हो गई है कि नमक रोटी पर भी आफ़त है।

ग्रामीण दुकानदारों का कहना है कि उनका ज़्यादातर पैसा उधारी में है। एक व्यक्ति जब उधार ले लेता है, तो अगले कई दिन दुबारा दुकान नहीं आता। बाज़ार में सामान की कमी है, जिस कारण उसे भी सामान बहुत महंगे मिल रहे हैं। उनके पास पूंजी का अभाव है, ऐसे में उनके लिए काफ़ी परेशानी है। दुकानदार बताते हैं कि यदि किसी सामान की क़ीमत एक रुपया भी बढ़ गई, तो लोग नहीं लेते हैं, या कम मात्रा में लेते हैं। जो लेते भी हैं, उधार देने का ही दबाव बनाते हैं। ऐसे में वो दोतरफा मार झेल रहे हैं। लेकिन लॉकडाउन की परिधि से खाद्य सामग्री को बाहर रखने से उन्हें राहत है। उन्हें उस समस्या का सामना नहीं करना पड़ रहा है, जो किसान और मज़दूर कर रहे हैं।

असल में, इस लॉकडाउन ने बिचौलियों को अच्छा मौका दे दिया है। अमीरों ने तो अपने घर में दो हफ़्ते का राशन रख लिया, लेकिन वो ग़रीब पिस गए हैं जो हर दिन सामान खरीदते और खाते हैं। आज खाद्य सामग्री के दाम आसमान छूने लगे हैं जो सब्जी कल तक 10 रुपये किलो थी, अब 30-35 रुपये हो गई है। ग़रीबों के लिए बस आलू ही एक सहारा है। वो भी धीरे-धीरे उनसे दूरी बना रहा है।

गाँव के ही एक टैम्पू चालक शेखर हैं, जो गांव के यदुवंश नगर में रहते हैं।  लॉकडाउन से पहले नारायणपुर रेलवे स्टेशन से गनौल ( भागलपुर का क्षेत्र) होते हुए अपने गाँव भरतखण्ड ( जो खगड़िया में आता हैतक टैम्पू चलाते थे। वह बताते हैं कि हर रोज़ इस 10 किलोमीटर की दूरी के पाँच चक्कर लगा देते थे, कभी-कभी बन्देहरा, पसराहा (खगड़िया) तक सवारी लेकर जाते थे। लेकिन लॉकडाउन के बाद टैम्पू दरवाज़े पर धूल फांक रहा है। यदि उनके पास मवेशी नहीं होते, तो भुखमरी का हाल हो जाता। अभी दूध बेचकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। लेकिन जो दूध कल तक 30 रुपये लीटर बिकता था, अभी डेयरी वाले उनसे 20 रुपये लीटर में ले रहे हैं। मवेशी भी खल्ली-घास के अभाव में दूध कम दे रहे हैं। उन्हें इस बात की आशा है कि जल्द ही लॉकडाउन ख़त्म होगा और उनका टैम्पू दुबारा चलेगा। 

स्वास्थ्य पर बहुत कम खर्च


वैसे देश में वो कौन सा चुनाव था, जो अस्पताल और शिक्षा जैसे मुद्दे पर लड़ा गया था? साल 2020 का दिल्ली विधानसभा याद है। राजनीति से भले ही स्वास्थ्य का मुद्दा ग़ायब हो गया हो, लेकिन उन समस्याओं पर बात करना ज़रूरी है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण का एक आंकड़ा बताता है कि भारत सरकार देश के एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रति वर्ष 1,108 रुपये खर्च करती है। कुछ लोगों को जनसंख्या की तुलना में ये रक़म बड़ी लग सकती है, कुछ को ये लग सकता है कि ग़रीबी का इससे अच्छा मज़ाक नहीं उड़ाया जा सकता है पर वास्तविकता ये है कि हज़ार करोड़ रुपये की मूर्ति बनाने वाला देश अपने देश के एक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रति दिन मात्र तीन रुपये खर्च करता है। 


'डाउन टू अर्थ' मैगज़ीन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने जेब से व्यय के कारण देश की सात फ़ीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे चली जाती है। 23 फीसदी बीमार लोग पैसे के अभाव में स्वास्थ्य देखभाल से वंचित हैं। अब आप समझ सकते हैं कि ग़रीब और ग़रीब क्यों होते जा रहे हैं? 

इस वक़्त जहां सैनिटाइजर, मास्क और दस्ताने का मुफ़्त वितरण होना था, वहां अब 100-200 ख़र्च करके नकली सैनेटाइजर खरीदने की होड़ है। तो जरा सोचिये ! जिस देश में 49 करोड़ लोग भूमिहीन हैं, 17 लाख 70 हजार लोग बेघर हैं, उस देश में कोरोना से लड़ने की मुहिम कितनी कारगर हो सकती है? जब भूखे पेट धर्म की बातें नहीं हो सकतीं, तब भूखे पेट ज्ञान की बात कैसे हो सकती है? हाल ही में बीएचयू में एक गर्भवती महिला को अस्पताल में एडमिट करने से मना कर दिया गया। उन्हें कहा गया कि जब तक कोरोना रिपोर्ट नहीं जाती, तब तक डॉक्टर उसे हाथ तक नहीं लगाएंगे। आज ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है कि लोगों कोअच्छी’ मौत भी नसीब नहीं है।

स्कूली शिक्षा पर बड़ी मार


दुनिया को शिक्षक एक्सपोर्ट करने का सपने देखने वाले देश के स्कूल में मुफ्तखोर बैठे हैं जिस विद्यालय के शिक्षक एक पत्र नहीं लिख सकते, वो बच्चों को कहानी लेखन कितना सिखाएंगे? गाँव की शिक्षा पहले से ही चौपट थी, लेकिन लॉकडाउन में स्कूल बंद होने के बाद स्थिति और ख़राब हो गयी है। 'इंडिया' के बच्चों की तरह 'भारत' के बच्चों के पास ना तो टीवी है और ना ही स्मार्टफोन, जहां वो मन लगा सकें। 

इंटरनेट का प्रयोग करने वाला भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश भले हो, लेकिन ग़रीब बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा की व्यवस्था यहाँ नहीं है। अफसोस ! किसी को याद भी नहीं रहा है कि डिजिटल इंडिया के माध्यम से ग्रामीण बच्चों को भी शिक्षा दी जा सकती है। बस आधार लिंक कराने तक भारत डिजिटल है। सरकार के पास ऐसी कोई प्लानिंग नहीं है, जिसके जरिये ग्रामीण बच्चों को रेडियो, टीवी, इंटरनेट आदि माध्यमों से सिलेबस पूरा कराया जा सके। गाँव के बच्चे पढ़ें, नहीं पढ़ें, किसे फ़र्क़ पड़ता है

आपको पता होना चाहिए कि इस लॉकडाउन में भी सिर पर घास ढोना, गाय और भैंस चराना इन बच्चों का शौक नहीं, मजबूरी है।


ये बच्चे दिनभर सड़कों पर खेलते रहते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि कोरोना से देश और राज्य और उनके जिले में क्या हो रहा है। लेकिन वे 'चमकी' बुख़ार से बीमार ज़रूर हो सकते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि शाम को 5 बजे, 5 मिनट के लिए थाली क्यों बजाना है? बस उनके लिए एक मौका था, थाली पीटने का, जो फिर नहीं मिलता। 

इन बच्चों को नहीं पता कि विज्ञान क्या है, अंधविश्वास क्या है और पढ़ना क्यों जरूरी है? कोरोना क्या है, यह जानना तो बहुत दूर की बात है। असल में, दोष उस व्यवस्था का है, जो इन ग़रीब बच्चों को पढ़ने से दूर कर रहा है। बहुत पहले बिहार में रेडियो के जरिये अंग्रेजी सिखाई जाती थी। इस वक़्त भी वैसा कुछ किया जा सकता है। रेडियो के और भी बेहतर प्रयोग हो सकते हैं हमें बच्चों की शिक्षा के लिए बड़े कदम उठाने चाहिए, जो कोरोना के बाद भी काम आएंगे।

गोरे कुमार 16 वर्ष के हैं। उन्होंने दो साल पहले ही पढ़ाई छोड़ दी थी। अपने चाचा के साथ खेत में काम करते हैं। उनके चाचा ने बताया कि सरकारी स्कूल में पढ़े ना पढ़े, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है, इसलिए नाम कटवा दिया। उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि निजी स्कूल में पढ़ा सकें।  कोरोना के बारे में पूछने पर गोरे ने बताया कि उसे कुछ नहीं होगा। वो इतना दूध पीता है कि कोरोना उसे छू भी नहीं पाएगा।

सरकार जहां महामारी से लड़ने का पूरा दावा कर रही है, वहाँ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें यह भी नहीं पता कि कोरोना कितना ख़तरनाक हो सकता है। लेकिन सरकार इस बात पर खुश है कि भारत में सामुदायिक संक्रमण नहीं हो रहा है। ज़मीन पर क्या बयार है, किसी को पता ही नहीं यहाँ। 

मीडिया ने गाँव तक पहुँचा दिया साम्प्रदायीकरण


अभी के समय में अफ़वाह तो गाँव की फ़िज़ाओं में तैर रहे हैं। स्थिति ऐसी हो गयी है कि यदि किसी को मामूली बुखार जाए, तो गाँव के डॉक्टर देखने को तैयार नहीं हैं। उसे दर-दर भटकना पड़ रहा है। कोरोना और अफ़वाह तो जैसे पर्यायवाची बन गए हैं। अलग-अलग तरह के पाखंड और अंधविश्वास पूरी तरह हावी हैं। बाकी रही-सही कसर मीडिया पूरा कर रहा है। मीडिया में दिनभर कोरोना का ऐसा बखान किया जाता है, जैसे मुस्लिम ही कोरोना की जड़ हैं। ऐसी ख़बरों और प्रोपेगेंडा का असर गाँवों पर बहुत गहरा पड़ रहा है।

कुछ दिन पहले भागलपुर के नारायणपुर बाज़ार के सब्जी मंडी को बंद करवा दिया गया। पुलिस को इस बात का शक था कि सब्जी बेचने वाले ( मुस्लिम समुदाय के लोग ) कोरोना फैला सकते हैं। हालाँकि जाँच किसी की नहीं हुई। अपनी रोजी-रोटी के लिए वे सब्जी वाले अब आसपास के गाँव में साइकिल से घूमकर सब्जी बेच रहे हैं। फिर अफ़वाह फैली कि मुसलमान थूक लगाकर सब्जी बेच
रहे हैं। 

इसके बाद किसी ने एक मुसलमान सब्जी वाले की पिटाई कर दी। अफ़वाहों के आधार पर ही कुछ लोगों ने ग्रामीणों को हिदायत दी कि मुस्लिम फेरी वाले को गाँव नहीं आने दिया जाए। और यदि वे भी जाएं तो उनसे फल सब्जी नहीं खरीदा जाए। 

अफ़वाहों का बाज़ार गर्म


अफ़वाहों का असर बाहर से रहे मज़दूरों पर भी पड़ा है। उन्हें एक अलग ही तिरस्कार के भाव का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में बिहार में एक मजदूर को पीट-पीटकर इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसपर कोरोना का शक था। अफ़सोस इस बात का है कि इस अफ़वाह को रोकने वाला कोई नहीं है। मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया में ऐसी ही अफ़वाहों और झूठी ख़बरों का व्यापार हो रहा है। लोगों तक सही सूचना पहुँचाना एक बड़ी चुनौती बन गई है।

कोरोना काल में भी सरकारी राहत के नाम पर बड़े घोटाले हो रहे हैं। ग़रीबों को जितना राशन मिलना चाहिए, नहीं मिल रहा। गाँव के कुछ लोग मिलीभगत और फ़र्ज़ीवाड़ा करके गरीबों का राशन अपने नाम पर ही उठा रहे हैं। आइसोलेशन में मजदूरों के रहने के लिए जो व्यवस्था है, वो भी काफ़ी दयनीय है। 

हाल में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जब मजदूर सरकारी भवनों और स्कूलों से भाग गए। गांव के लोगों को यह बात पहले से पता है कि उनके पास संसाधनों का अभाव है, जिस कारण वो सचेत और सतर्क हैं। लेकिन सरकारी लापरवाही और अव्यवस्था बदस्तूर जारी है। डर तो इस बात का है कि यदि सामुदायिक संक्रमण तेजी से फैलता है तो पूरा का पूरा गांव कोरोना की चपेट में होगा। इसके लिए ना तो अस्पताल होंगे और ना ही डॉक्टर।

( लेखक भारतीय जन संचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं इन्हें ग्रामीण जीवन, पर्यावरण, विकास जैसे मुद्दों पर लिखने का शौक़ है। इतिहास और साहित्य की किताबें पढ़ने में ज़्यादा रुचि है। बिहार और देश की राजनीति में भी काफ़ी दिलचस्पी है।)

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