Wednesday 29 April 2020

फिल्म, थियेटर और स्मृतियों में इरफ़ान खान

अभिनेता इरफ़ान खान को श्रद्धांजलि 

सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है 

  • करिश्मा सिंह 

“सिर्फ इंसान गलत नहीं होते वक्त भी गलत हो सकता है।”29 अप्रैल की सुबह हजारों सिनेमा प्रेमियों को इसी गलत वक्त जैसी लगी जब पता चला कि बेहतरीन अभिनेता इरफान खान नहीं रहे। इस दुनिया में यदि कुछ शाश्वत है तो वह है मृत्यु लेकिन फिर भी सबसे ज्यादा कष्ट और भय मृत्यु से ही होता है। दो साल पहले जब इरफान को एक खास किस्म की दुर्लभ बीमारी हुई तो उन्होनें अपने सोशल मीडिया पर लिखकर इसके बारे में बताया। 

अपनी आखिरी फिल्म "अंग्रेज़ी मीडियम" के ट्रेलर इंट्रो में वे कहते हैं- “हैलो भाईयों एवं बहनों, ये फिल्म अंग्रेज़ी मीडियम मेरे लिए बहुत खास है। सच, यकीन मानिये कि मेरी दिली इच्छा थी कि इस फिल्म को उतने ही प्यार से प्रमोट करूं जितने प्यार से हम लोगों ने इसे बनाया है। लेकिन मेरे शरीर के अंदर कुछ अनवांटेड मेहमान बैठे हुए हैं, उनसे वार्तालाप चल रहा है, देखते हैं किस करवट ऊंट बैठता है। जैसा भी होगा, आपको इत्तला कर दी जाएगी।"

इरफ़ान आगे कहते हैं- "कहावत है “when life gives you lemons make lemonade”, बोलने में अच्छा लगता है, पर सच में जब जिंदगी आपके हाथ में नींबू थमाती है तो शिकंजी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन आपके पास और चॉयस भी क्या है, पॉजिटिव रहने के अलावा। फिलहाल, हाथ में नींबू की शिकंजी बना पाते हैं या नहीं बना पाते हैं. यह आप पर है।” और अंत में वे कहते हैं-“And Yes, wait for me।” यह सकारात्मकता ही इमरान को इतने बड़े अभिनेता के रूप में स्थापित करती है। 

अपने तीन दशक के करियर में उन्होनें 50 से अधिक राष्ट्रीय फिल्मों और धारावाहिकों में अभिनय किया है। अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में दि नेमसेक, स्लम डॉग मिलेनियर, लाइफ ऑफ पाई, दि अमेज़िंग स्पाइडरमैन, इनफैरनो प्रमुख हैं। सन 2011 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया। इतने कम समय में ही इरफान का नाम विशिष्ट कहे जाने वाले अभिनेताओं की श्रेणी में आ गया था। जाहिर है कि इसके पीछे जुनून और कड़ी मेहनत से इरफान का गहरा वास्ता रहा है। 

इरफ़ान ने 1988 में सलाम बॉम्बे नामक फिल्म से इस सफर की शुरुआत की थी और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2003 में आयी फिल्म "हासिल" और 2004 में आयी "मकबूल" से उन्हें विशेष पहचान मिली। लाइफ
इन ए मेट्रो, दि लंचबॉक्स, पीकू, पान सिंह तोमर, हैदर, तलवार, हिन्दी मीडियम और 2020 में आयी अंग्रेज़ी मीडियम पिछले 2 दशकों में आयी महत्तवपूर्ण फिल्में हैं। आज उनके निधन पर प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अपनी-अपनी तरह से श्रद्धांजलि दे रहा है। 

गीतकार वरूण ग्रोवर ने लिखा- “अब ये दिल दुबारा नहीं जुड़ेगा। शुक्रिया इरफान, अपनी जिंदगी माटी के घड़े में कच्ची सड़क किनारे रखने और उसमें अपनी कला का मीठा पानी भरते रहने के लिए। हम प्यासे राहगीर इसके बिना न कोई सफर पूरा कर पाते, न कर पाएंगे। जब कुछ नहीं रहता, तब भी पानी रहेगा। प्यार, नमन. जिंदाबाद। आने वाली नस्लें हमसे रश्क करेंगी कि हमने इरफान को देखा था।” 

किसी अभिनेता को पानी की उपमा देना कितना अलग और विशेष है। इरफान की फिल्में देखने पर वरूण की यह तुलना बिलकुल सटीक बैठने लगती है। सिनेमा में गीतकार, कथाकार, डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर सबकी भूमिका विशेष होती है लेकिन ऐसा क्या है कि किसी कथाकार का लिखा किरदार परदे पर उतरते ही आपके मन के किसी कोने में जाकर बैठ जाता है और कुछ घंटों के लिए पर्दे पर जागृत रहने वाला वह किरदार हमेशा के लिए हमारे दिलों में अमर हो जाता है। वो क्या है जो पान सिंह तोमर की कहानी जब पर्दे पर आयी तो सबकी जुबां पर चढ़ गया “बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में।” 

बॉलीवुड की अक्सर इस आधार पर आलोचना होती है कि यह प्रेम के सिर्फ दिखावटी रूप को ही प्रदर्शित करता है, जो कि बहुत हद तक सही भी है लेकिन इरफान जैसे अभिनेता इस बने बनाये सांचे में फिट नहीं होते। शायद इसीलिए सहज प्रेम के कुछ अलग सांचे गढ़े जाते हैं और इरफान उन्हें पर्दे पर जी कर, हमारे दिलों में फिट कर
देते हैं। स्विटज़रलैंड की वादियों से इतर बनारस के घाट पर फिल्म पीकू में इरफान और दीपिका के उस शांत बैठने वाले दृश्य को जितनी बार याद करेंगे उतनी बार आपको प्रेम करने की मन करेगा। 

मध्य प्रदेश के बीहड़ों के बागियों और परिवार के चलते एक “चैंपियन से बागी” बनने का सफर उन्होनें इतनी गहराई से निभाया कि वे हम सबके दिलों में दाखिल हो गए। "दि लंच बॉक्स" में खाने और लंच बॉक्स के माध्यम से संचार और सहज इंसानी भावों को वे दर्शकों के सामने इतनी सहजता से निभाते हैं कि आप अपने आस-पास कहीं किसी लंच बॉक्स में ऐसी ही कहानी ढूढ़ने लग जाते हैं। फिल्म "कारवां" में गमगीन परिस्थिति में वे किसी आम व्यक्ति की तरह मदद करने की कोशिश करते हैं। वहीं "करीब-करीब सिंगल" में जिंदादिल आदमी का किरदार वे इतनी शिद्दत से निभाते हैं कि आप उनके फैन हो ही जाते हैं। रोमांस की कुछ अलग धारा को पर्दे पर अमर बनाने के लिए इरफान का शुक्रिया हम सब को करना ही चाहिए। 

अपने आखिरी पत्र में वे लिखते हैं “अनिश्चितता ही निश्चित है। जब मैं दर्द में, थका हुआ अस्पताल में घुस रहा था, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा अस्पताल लार्डस स्टेडियम के ठीक सामने है। यह मेरे बचपन के सपनों के मक्का जैसा था। अपने दर्द के बीच, मुस्कुराते हुए विवियन रिचर्डस का पोस्टर देखा। इस हॉस्पिटल में मेरे वॉर्ड के ठीक ऊपर कोमा वार्ड है। मैं अपने अस्पताल की के कमरे की बालकॉनी में खड़ा था और इसने मुझे हिलाकर रख दिया। दुनिया में बस एक ही चीज़ निश्चचित है “अनिश्चितता।” मैं सिर्फ अपनी ताकत को महसूस कर सकता था और अपना खेल अच्छी तरह से खेलने की कोशिश कर सकता था। इस सबने मुझे अहसास कराया कि परिणाम के बारे में सोचे बिना ही खुद को समर्पित कर देना चाहिए और विश्वास करना चाहिए, यह सोचे बिना कि मैं कहां जा रहा हूं. आज से 8 महीने पहले या दो साल। अब चिंताओं नें बैक सीट ले ली है और धुंधली होने लगी हैं। पहली बार मैने जीवन में महसूस किया है कि ‘स्वतंत्रता’ के असली मायने क्या हैं। ” 

इरफान का लिखा यह पत्र जीवन के प्रति उनके सकारात्मक रुख की बानगी भर है। इतनी दुर्लभ बीमारी से वे संपूर्ण ताकत से लड़े। आज भले ही वे इस दुनिया को छोड़ गए लेकिन प्रत्येक कला प्रेमी के हृदय में उनकी कला और स्मृतियां हर रोज़ धड़केंगी। कलाकार बनाए नहीं जाते, वे पैदा होते हैं। निश्चित ही, इरफान की कला एक दिन या महज कुछ सालों की नहीं थी बल्कि यह एक लंबी प्रक्रिया का सहज विकास था। पर्दे पर उन्हें देखते हुए जब आप खुद को उनसे जोड़ लेते हैं तो सहृदय हो जाते हैं। 

इतना बड़ा ओहदा उन्हें विरासत में नहीं मिला बल्कि यह उनकी अथाह मेहनत और लगन से हासिल किया हुआ सम्मान है। कुछ अलग मुद्दों पर अलग से अभिनय से इरफान ने अपनी विशेष पहचान बनायी है और आने वाली पीढ़ियां इस हस्ती की ओर गर्व से देखेंगी और वरूण ग्रोवर के शब्दों में हमसे रश्क करेंगी। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, ऐसे में, रहमान फारिस साहब का एक शेर याद आता है: 

“कहानी खत्म हुयी और ऐसी खत्म हुयी
कि लोग रोने लगे तालियां बजाते हुए।” 

इरफान की तारीफ में बजने वाली तालियां कभी धीमी नहीं पड़ेंगी। उनकी कला, उनका चमकदार व्यक्तित्व हमेशा उनके प्रशंसकों के दिलों में आबाद रहेगा। ऐसे में, हैदर फिल्म में उनकी बोली पंक्तियां याद आती हैं: 

दरिया भी मैं 
दरख़्त भी मैं 
झेलम भी मैं 
चिनार भी मैं 
दैर भी हूं 
हराम भी हूं 
शिया भी हूं 
मैं हूं पण्डित 
मै था 
और मैं ही रहूँगा। 

कलाकार इरफ़ान भी हमारे साथ ही रहेंगे.  

3 comments:

  1. हरदिल अजीज इरफान 🙏🙏

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  2. Irfan ..a genuine human being.

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  3. सिनेमा, साहित्य और कलाओं की अपूरणीय क्षति। तुम मेरी ही उम्र के थे इरफ़ान तुम्हें श्रद्धांजलि देते हुए शब्द ठहर रहे हैं। एक डायलॉग "बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में।"
    करिश्मा सिंह का बहुत ही संवेदनशील लेख।
    प्रो. अजमेर सिंह काजल,भारतीय भाषा केंद्र, जे एन यू दिल्ली।

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