Friday 24 April 2020

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है- लिखनेवाले दिनकर और उनका साहित्य हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे

पुण्यतिथि पर विशेष 

दिनकर कबीर, अकबर और महात्मा गाँधी को भारत के महान नेता मानते थे 
  • करिश्मा सिंह
हिन्दी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर का दर्ज़ा विशिष्ट है। राष्ट्रकवि कहे जाने वाले कवि दिनकर सही मायनों में जनकवि थे। जनकवि जैसी उपमा हर कवि को नहीं मिलती लेकिन सीधे शब्दों में बड़ी बात कह देने वाले और
लोगों की जुबान पर चढ़ जानेवाले दिनकर आज भी कविता प्रेमियों के दिलों में बसते हैं। 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया में एक किसान परिवार में दिनकर का जन्म हुआ था। दो वर्ष की आयु में ही पिता का देहांत हो गया। 

पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मुज़फ़्फ़रपुर कॉलेज में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष बने। वीर रस की कविताओं में दिनकर का कोई सानी नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी कविताएं राष्ट्रप्रेम का संचार करती रहीं। राष्ट्र भावना से ओत प्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की की प्रेरणा देने वाली कविताओं ने उन्हें असीम लोकप्रियता दिलायी। 

आश्चर्य नहीं कि 2015 में दिनकर की लिखी कुछ प्रमुख रचनाओं खासकर "संस्कृति के चार अध्याय" के 50 वर्ष पूरे होने पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि, “दिनकर जी की रचनाओं की शक्ति यही है कि वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों में ही प्रासंगिक हैं।” दिनकर अपने समय की चुनौतियों और कठिनाइयों से भली भांति परिचित थे जिसका प्रतिबिंब उनके साहित्य में भी दिखता है। 

विभाजन की त्रासदी, बढ़ती सांप्रदायिकता और महात्मा गांधी की हत्या तक को उन्होंने न सिर्फ देखा बल्कि उसके बारे में लिख कर साहित्य को और समृद्ध भी किया। 1947 में “बापू” नाम से दिनकर जी का एक काव्य संग्रह छपा लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद मई 1948 में इसका दूसरा संस्करण छपा। महात्मा गांधी के प्रति उनकी श्रद्धा और विश्वास भावना को उन्होंने शब्दश: कागज पर उतार दिया है। गांधी जी के लिए वे इस कविता में लिखते हैं- 

“तू चला, तो कुछ लोग चौंक पड़े, ‘तूफान उठा या आंधी है?’ 
ईसा की बोली रूह, अरे! यह बेचारा तो गांधी है।” 

इस कविता में उन्होनें गांधी जी को एक प्रशंसक की दृष्टि से देखा और वैसे ही लिखा भी है। उनकी हत्या के बाद “अघटन घटना, क्या समाधान” कविता में दिनकर लिखते हैं- 

“कहने में जीभ सिहरती है, मूर्छित हो जाती कलम, 
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा।” 

एक स्थान पर वे कहते हैं- 

“लिखता हूं कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर, 
बापू का हत्यारा कोई पापी था हिन्दू कठोर।” 


गांधी जी की हत्या सिर्फ किसी एक व्यक्ति ने नहीं की थी अपितु यह एक साम्प्रदायिक विचारधारा का संगठित ज़हर था जिसे दिनकर देख सके थे और यही कारण था कि उन्होंने बिना किसी झिझक के यह काव्य संग्रह लिखा था। गांधी के प्रति उनके भावों की प्रामाणिकता ही इस काव्य संग्रह को इतना लोकप्रिय बनाती है। 

कविता के अतिरिक्त दिनकर जी की दार्शनिकता और वैचारिकी ने हिन्दी गद्य साहित्य को भी सुशोभित किया है। उनकी पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” ऐसा गंभीर ग्रंथ है जो उन्हें महान दार्शनिक गद्यकार के रुप में प्रतिष्ठित
करता है। सहअस्तित्व, प्रेम, आध्यात्म, धर्म, अहिंसा, दया, करूणा को उन्होंने विशुद्ध भारतीय गुणों के रूप में स्थापित किया है। इसकी प्रस्तावना भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने लिखी है जिसमें वह भारतीय संस्कृति के “समन्वय और सामंजस्य” की परंपरा पर विस्तार से लिखते हैं। 

इसके दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं, “पहले संस्करण के बाद जो विवाद हुआ, उससे पता चलता है कि इस किताब से सबको तकलीफ पहुंची होगी। इस किताब के बारे में मंचों से जो भाषण दिए गए, उनसे यह पता चलता है कि मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुखी हैं और आर्यसमाजी और ब्रह्मसमाजी भी। उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रंथ से काफी नाराज़ हैं। मेरा विश्वास है कि मेरी कुछ मान्यताएं गलत साबित हो सकती हैं, लेकिन इस ग्रन्थ को उपयोगी माननेवाले दिनों दिन अधिक होते जाएंगे। यह ग्रन्थ भारतीय एकता का सैनिक है। सारे विरोधों के बीच यह अपना काम करता जाएगा।” 

प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए जाने पर उनके समकालीन कवि हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि दिनकर को कविता, गद्य, भाषा और हिन्दी साहित्य में योगदान के लिए एक नहीं, चार ज्ञानपीठ सम्मान मिलने चाहिए। दिनकर जी का काव्य संग्रह "रश्मिरथी" महाभारत के काव्य को अलग दृष्टि से प्रस्तुत करता है।महाभारत की कथा पर आधारित यह काव्य जीवन की समग्रता को स्वयं में समाहित किए हुए है। जाति प्रथा पर प्रहार करते हुए वे लिखते हैं- 

“ पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, 
जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।” 


कितने प्रासंगिक हैं दिनकर? 

मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी राष्ट्रकवि दिनकर पूरी तरह प्रासंगिक हैं। संस्कृति के चार अध्याय में वे लिखते हैं- “आज सारा विश्व जिस संकट से गुजर रहा है, उसका उत्तर बुद्धिवाद नहीं, अपितु धर्म और अध्यात्म है। धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है। धर्म ही कोमलता है, धर्म दया है, धर्म विश्वबंधुत्व है और शांति है।” दिनकर जी ने कबीर, अकबर और महात्मा गांधी को महान नेता माना है। कहना ना होगा कि कबीर का अक्खड़पन और निर्भीकता, अकबर की धर्म निरपेक्षता और महात्मा गांधी की अहिंसा ने भारतीय संस्कृति को एक अलग और अनोखी पहचान दी है। आज़ादी के बाद दिनकर जी राज्यसभा के सांसद रहे लेकिन इसके बावजूद सत्ता की नीतियों पर प्रश्न करने से वह कभी नहीं कतराए। अपनी कविता “समर शेष है” में वे लिखते हैं- 

"कुमकुम लेपूं किसे सुनाऊं किसको कोमल ज्ञान 
तड़प रहा आंखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान, 
सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है, 
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियारा है। "

दिनकर जिस युद्ध के शेष होने का संकेत यहां कर रहे हैं वह अभी तक खत्म नहीं हुआ है। सामाजिक कुरीतियां यहां आज भी मौजूद हैं। धर्म के नाम पर हर रोज़ किसी व्यक्ति की जान ली जा रही है। राजनीतिक भ्रष्टाचार
अपने चरम पर है। आपातकाल के दौरान यह दिनकर की कविता ही थी जिसने भारतीय जनता को लड़ने के लिए प्रेरित किया था- 

"सदियों की ठंडी राख सुगबुगा उठी, 
मिट्टी सोने का तीज पहन इठलाती हे, 
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।" 

आज उनकी पुण्यतिथि पर सिर्फ सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने के बजाय दिनकर को समझना जरुरी है। उनके साहित्य को सिर्फ किताबों में नहीं बल्कि जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिए। दिनकर जिस सांप्रदायिकता पर चोट करते रहे, आज एक बार फिर वह हमारे समाज के सामने फन फैलाए खड़ी है। साहित्य का काम सिर्फ मनोरंजन करना नहीं होता बल्कि वह ऐसा होना चाहिए कि वह आपको भीतर तक झकझोर दे। दिनकर जी का साहित्य, निश्चय ही, ऐसा करने में न सिर्फ समर्थ है बल्कि वह आगे की राह भी दिखाता है. इसीलिए सिर्फ आज ही नहीं आने वाले कई वर्षों कर दिनकर प्रासंगिक रहेंगे।

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