Friday 17 April 2020

अल्बर्ट आइंस्टीन: वह जुनूनी वैज्ञानिक जिसने एक नए और समाजवादी समाज का सपना देखा था

पुण्यतिथि पर विशेष


बचपन में डिस्लेक्सिया से पीड़ित होने के बावजूद आइंस्टीन ने बीसवीं सदी की वैज्ञानिक प्रगति को एक नई दिशा दी

  • जीतेन्द्र सिंह सियाग

जब दुनिया अपने अतीत के बारे में स्मरण करेगी और अपनी वैज्ञानिक प्रगति की राहों के पदचिन्ह निहारेगी तो उसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के अक्स जरूर दिखेंगे कि कैसे उन्होंने अपने मस्तिष्क को प्रयोगशाला

बनाकर विज्ञान की कितनी ही जटिलताओं को सुलझा दिया था. पेटेंट कार्यालय में तीसरी श्रेणी के क्लर्क से लेकर नोबेल विजेता के सफर में एक ऐसे जुनूनी व्यक्ति की छवि देखने को मिलती है जिसने अपना पूरा जीवन विज्ञान की तरक्की में न्योछावर कर दिया था और जिसे अपनी प्रयोगशाला और पुस्तकालयों के अलावा और कुछ नहीं दिखता था. 

14 मार्च 1879 को आइन्स्टीन दंपति के यहां प्रथम सन्तान ने जन्म लिया था जिसका नाम अल्बर्ट आइंस्टीन रखा गया था. अल्बर्ट ने काफ़ी देर बाद बोलना सीखा था वो बचपन में डिस्लेक्सिया ( सामान्य पढ़ने और लिखने में कठिनाई ) से पीड़ित थे जिसकी वजह से उनके माता-पिता चिंतित रहते थे. एक बार जन्मदिन के मौके पर उनके पिता हरमन ने उन्हें एक चुम्बकीय कम्पास लाकर दिया था, वो उसे बार-बार घुमाते और देखते की कम्पास की सुई हर बार एक ही दिशा में क्यों है? अल्बर्ट के जीवन में विज्ञान और आसपास की दुनिया को अलग नजर से देखने की प्रवृत्ति यहाँ से विकसित होने लगी थी और वे विज्ञान की गुत्थियों में उलझने लगे थे. 


1889 में स्कूल में दाखिले होने के बाद अल्बर्ट के लिए वो नई दुनिया थी जहां अनेक प्रकार के विषयों का अध्ययन होता था जैसे गणित, दर्शन शास्त्र, चिकित्सा आदि. कांट उनके पसंदीदा दार्शनिक थे. उन्होंने डार्विन को भी पढ़ा. वह जीव विज्ञान को भी गणित के सिद्धांतों की तर्ज पर रखकर उसका अध्ययन करना चाहते थे, लेकिन जैव विज्ञान में गणितीय सूत्र लागू नहीं किये जा सकते यह उन्हें उसी वक्त पता चला. 


जिज्ञासु प्रवृत्ति के होने के नाते अल्बर्ट ने कई विषयों में रुचि ली थी लेकिन गणित उनका पसंदीदा विषय रहा. उनके पिता उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बनाना चाहते थे ताकि वे आगे चलकर उनके व्ययसाय में मदद कर सके और उसके चलते उन्होंने स्विश फेडरल पॉलीटेकनिकल स्कूल भेजने का निर्णय लिया गया. चयन की पहली परीक्षा में अल्बर्ट पास नहीं हो सके और दूसरी बार 1896 में फिर से परीक्षा दी और फिर प्रवेश हासिल कर लिया. इस चार साल के डिप्लोमा ने अल्बर्ट के जीवन में काफ़ी बदलाव ला दिया और उन्होंने जीवन के नए-नए आयामों की खोज की. 

मजे की बात यह है कि उनकी रुचि प्रकृति को निहारने में भी थी. आइंस्टीन बहुत अच्छा वायलिन बजाते थे. वे अक्सर वायलिन बजाते-बजाते खो जाते थे. डिप्लोमा के वर्ष के दौरान अल्बर्ट की इच्छा गणितीय भौतिकी के शिक्षक बनने की हुई और वो अपना काफ़ी वक्त भौतिकी प्रयोगशाला में व्यतीत करने लगे. स्नातक के तृतीय वर्ष में अल्बर्ट ने स्विश नागरिकता के लिए भी आवेदन किया था जोकि स्वीकार भी कर लिया गया. वहाँ के नियम
अनुसार हर व्यक्ति को दो वर्ष सेना में सेवा देनी होती है लेकिन शारीरिक कारणों की वजह से अल्बर्ट को वहाँ प्रवेश नहीं दिया गया था. वह अपने स्कूल में भौतिकी गणीतिय के शिक्षक बनना चाहते थे लेकिन उन्हें वहाँ कामयाबी नहीं मिली .

स्नातक के बाद अल्बर्ट ने कई विद्यालय में अस्थायी शिक्षक के रूप में कार्य किया और उसके बाद एक दिन उन्हें स्विश पेटेंट कार्यालय के लिए आवेदन किया था. असल में, वो पद द्वितीय श्रेणी के कर्मचारी का था लेकिन तकनीक में कम ज्ञान होने की वजह से उनको तीसरी श्रेणी के कर्मचारी के रूप में नियुक्त कर लिया गया. इसी दौरान अल्बर्ट ने ज्यूरिख विश्वविद्यालय से अपने पीएच.डी. कर ली थी. सन 1905 तक अल्बर्ट ने चार शोध पत्र प्रकाशित किये जोकि विज्ञान की दुनिया में मील के पत्थर साबित हुए.

वर्ष 1905 आइंस्टीन के लिए एक जादुई वर्ष था. इस वर्ष उनके निम्न चार शोध प्रकाशित हुए थे:


1.प्रकाश वैद्युत प्रभाव

2. ब्रोव्नियन मोशन

3. द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E=mc² 

4. सापेक्षता का सिद्धांत 

भौतिक विज्ञान के जितने भी जाने माने लोग थे उन सब ने आइंस्टीन के 1905 में लिखे शोध पत्रों को नकार दिया था। तब मैक्स प्लैंक ही एक ऐसे भौतिक वैज्ञानिक थे जो उस वक्त विश्व प्रसिद्ध भी थे और उन्होंने आइंस्टीन के लेखों की पढ़ा तो एक भिन्न राय दी. उन्होंने आइंस्टीन के लेखों की सत्यता को न केवल स्वीकार किया बल्कि तारीफ़ का हकदार भी बताया. 

धीरे-धीरे उनके प्रयोगों और जांच-पड़ताल के आधार पर उनके सिद्धान्त स्वीकार भी कर लिया गया. अब उनकी ख्याति बढ़ने लगी थी. उस वक्त आइन्स्टीन को कई विश्वविद्यालयों से नियुक्ति के निमंत्रण पत्र भी आने लगे. जैसे कि यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज़्यूरिख, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ प्राग, द स्विस फेडरल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी और अंतत: बर्लिन यूनिवर्सिटी जहाँ पर उन्होंने 1913 से 1933 तक कैसर विल्हेल्म इंस्टिट्यूट में निदेशक के रूप में कार्य किया.

1905 से लेकर 1915 तक आइन्स्टीन ने यह जाना कि सापेक्षता के सिद्धांत में गुरुत्वाकर्षण और गति का कोई उल्लेख नहीं है जिसकी वजह से इसका कोई गणितीय विवरण नहीं है. इसी बीच, उन्हें पता चला कि गणितज्ञ
डेविड हिल्बर्ट ने सापेक्षता के सिद्धांत का शोध पत्र उनसे पाँच दिन पहले जमा करा दिया था. बाद में दोनों के बीच पत्र व्यवहार के बाद सुलह हुई और सापेक्षता का सिद्धांत अल्बर्ट आइंस्टीन का ही माना गया. उनके सिद्धान्त को आगे प्रमाणित करने के लिए सूर्य ग्रहण के दौरान तारों के प्रकाश के विक्षेपण को मापा गया तो यह सिद्धान्त ज्यादा वास्तविक मालूम हुआ. 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद अल्बर्ट आइंस्टीन ने सूर्यग्रहण के दिन तारों के विक्षेपण की जांच की तैयारी शुरु कर दी थी. इसका परिणाम लंदन की रॉयल सोसाइटी और खगोलीय सोसाइटी ने संयुक्त रूप से घोषित किया था जिसमें यह पाया गया था कि आइन्स्टीन की व्याख्या सही थी और आखिरकार सापेक्षता के सिद्धांत जो कि लगभग दो दशक पहले शोध पत्र के रूप में जर्नल में प्रकाशित हुआ था वो बिल्कुल सटीक है. 


अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन से जुड़े कुछ रोचक किस्से


आइंस्टीन के जीवन के अनेकों किस्से हैं जो बताते हैं कि वे अपने काम और सोच में किस कदर दूबे रहते थे कि अक्सर चीजों को भूल जाते थे. उनकी भुलक्कड़ी के किस्से मशहूर हैं. यही नहीं, कहते हैं कि वे बहुत हाजिरजवाब और मजाकिया किस्म के व्यक्ति भी थे. 

कहते हैं कि एक बार अल्बर्ट आइंस्टाइन ट्रेन में सफर कर रहे थे। जब टिकट चेकर उनके पास आया तो उन्होंने अपना टिकट दिखाने के लिए हाथ जेब में डाला। जेब में टिकट ना मिलने पर उन्होंने अपने सूटकेस को चेक किया वहां भी टिकट को ना पाकर वह टिकट को अपनी सीट के आसपास खोजने लगे। यह देख कर टिकट चेकर ने अलबर्ट आइंस्टाइन से कहा कि आपका टिकट गुम हो गया हो तो कोई बात नहीं, मैं आपको अच्छी तरह से पहचानता हूँ. मुझे पूरा यकीन है कि आपने टिकट जरूर खरीदा होगा। टीटी जब बाकी के लोगों का टिकट
चेक करके वापस जा रहा था तो उसने देखा कि अल्बर्ट आइंस्टाइन अभी भी अपनी सीट के नीचे अपना टिकट ढूंढ रहे हैं। टीटी ने फिर से कहा कि आपको टिकट के लिए परेशान होने के जरूरत नहीं, आपसे टिकट नहीं मांगा जाएगा। यह सुनकर अल्बर्ट आइंस्टाइन ने कहा कि वो तो ठीक है पर टिकट के बिना मुझे पता कैसे चलेगा कि मैं कहां जा रहा हूं ?”

इसी तरह एक दिन अल्बर्ट आइंस्टीन भाषण देने जा रहे थे तो रास्ते में उनके ड्राइवर ने कहा कि आप का भाषण मैं इतनी बार सुन चुका हूं कि लोगों के सामने मैं ही आपका भाषण दे सकता हूं. यह सुनकर आइंस्टीन ने कहा कि ठीक है, आज तुम ही भाषण देना. आइंस्टीन ने ड्राइवर की पोशाक पहनकर उसका स्थान ले लिया और अपना स्थान ड्राइवर को दे दिया.

जब भाषण की शुरुआत हुई तो ड्राइवर ने भाषण देना शुरु किया. ड्राइवर का भाषण बिल्कुल आइंस्टीन के जैसे ही था. ड्राइवर ने धुआंधार और आत्मविश्वास पूर्ण भाषण दिया. भाषण देने के बाद जब लोगों ने प्रश्न पूछने शुरू किए तो ड्राइवर पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब देने लगा. लेकिन किसी एक कठिन प्रश्न पर ड्राइवर उलझ गया. इस पर ड्राइवर ने चतुर दिमाग लगाया और कहा कि इस प्रश्न का जवाब तो इतना सरल है कि मेरा ड्राइवर ही बता देगा. ऐसा कहकर उसने ड्राइवर वाली पोशाक पहने आइंस्टीन को जवाब देने के लिए खड़ा कर दिया. 

कम क्रांतिकारी नहीं हैं आइन्स्टीन के सामाजिक विचार 

आइंस्टीन बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिकों में से एक थे. लेकिन अपने सामाजिक विचारों में भी वह अपने समय के अधिकांश वैज्ञानिकों से बहुत आगे थे. उन्होंने साहस के साथ अपने विचार प्रकट किए. उनके सापेक्षता के सिद्धांत और गणितीय फार्मूले E=mc² को आणविक उर्जा और एटम बम का जनक माना जाता है. हालाँकि वे खुद कभी इस बम निर्माण के प्रोजेक्ट में शामिल नहीं थे. लेकिन कहा जाता है कि उनकी एक चिट्ठी पर ही अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने अमेरिकी वैज्ञानिकों को बम पर अनुसन्धान करने और बम बनाने की इजाजत दी थी. 

असल में, आइन्स्टीन को खबर थी कि हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी में जर्मन वैज्ञानिक यूरेनियम से एटम बम बनाने में जुटे हैं. वे इससे बहुत चिंतित थे. याद रहे कि उन्हें खुद यहूदी होने के कारण जर्मनी छोड़कर भागना पड़ा था. वे नहीं चाहते थे कि हिटलर के हाथ में एटम बम आये. इसलिए अपने साथी वैज्ञानिकों के समझाने पर उन्होंने राष्ट्रपति रूजवेल्ट को चिट्ठी लिखी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि जब अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के
प्रधानमंत्री नेहरु के साथ आइंस्टीन 
दौरान जापान पर एटम बम गिराया और उसमें भयानक बर्बादी हुई, हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग विकिरण के शिकार हुए तो उन्हें न सिर्फ बहुत दुःख और पछतावा हुआ. उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि दुनिया इसके लिए तैयार नहीं है. उन्होंने कहा कि अगर उन्हें पता होता कि जर्मन वैज्ञानिक एटम बम नहीं बना पायेंगे तो मैं यहाँ भी बम के लिए कभी नहीं कहता. 

यही नहीं, इसके बाद आइंस्टीन खुलेआम एटम बम का विरोध करने लगे और उन्होंने उन वैज्ञानिकों का नेतृत्व किया जो बम के प्रभावों को लेकर चिंतित थे. उन्होंने लिखा है कि, "हमारी सुरक्षा हथियारों से या विज्ञान से या फिर भूमिगत होने में नहीं है बल्कि हमारी सुरक्षा कानून और व्यवस्था में है." 

आइंस्टीन पूंजीवादी व्यवस्था के भी आलोचक थे. वे एक बेहतर समाज का सपना देखते थे और मानते थे कि यहसमाजवाद के तहत ही संभव है. उन्होंने 1949 में मशहूर समाजवादी पत्रिका- "मंथली रिव्यू" के प्रारंभिक अंक में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था: "समाजवाद क्यों". इस छोटे और संक्षिप्त लेख में आइंस्टीन के सामाजिक-राजनीतिक विचार साफ़ देखे जा सकते हैं. 

ऐसा क्यों नहीं करते हैं कि इस लाकडाउन के दौरान आप वह लेख पढ़ जाइए:



भारत से भी था उनका संबंध 

आइंस्टीन का भारत से भी संबंध था. वे गाँधी जी और उनके अहिंसक आन्दोलन के प्रशंसक थे. उन्होंने गाँधी जी को चिट्ठी भी लिखी थी. गाँधी जी ने भी उन्हें अपने जवाब में आभार प्रकट करते हुए लिखा था कि उन्हें उम्मीद है कि कभी उनके आश्रम पर आइंस्टीन आयेंगे और उनकी मुलाकात होगी. हालाँकि वह मौका कभी नहीं आया लेकिन गाँधी जी की हत्या के बाद अपनी श्रद्धांजलि में आइंस्टीन ने कहा था कि दुनिया को कभी विश्वास भी नहीं होगा कि कोई हाड-मांस का ऐसा व्यक्ति भी पैदा हुआ था. 

लेकिन आइंस्टीन की सबसे करीबी रही नोबल पुरस्कार विजेता कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ. वे 14 जुलाई 1930 को बर्लिन में अपने घर पर भारत से गए कविगुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर से मिले थे. दोनों के बीच इस मुलाकात
में बहुत दिलचस्प लेकिन बहुत गंभीर दार्शनिक बातें हुईं. इसका पूरा ब्यौरा आप मारिया पोपोव की वेबसाईट पर पढ़ सकते हैं:

ऐसे ही प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु जब अमेरिका के दौरे पर गए तो उन्होंने आइंस्टीन से मिलने की इच्छा जाहिर की. उन दोनों की मुलाकात प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में हुई थी.  





(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं. उनकी रूचि रंगकर्म, संगीत, साहित्य और राजनीति में है.) 

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