Saturday 16 May 2020

कोरोना वायरस के साथ ही डालनी पड़ेगी जीने की आदत

कोरोना का सबसे बड़ा सबक है कि अब हमें जीवन जीने के तरीके बदलने होंगे 
  • संजय दुबे 

भारत में कोरोना वायरस के चलते लगा देशव्यापी लाकडाउन का तीसरा चरण खत्म होने जा रहा है और चौथे चरण की घोषणा होने वाली है लेकिन अब लोगों के मन में ये सवाल है कि आखिर कब तक इसी तरह चरण दर
चरण लाकडाउन बढ़ता रहेगा? उनकी चिंता और सवाल जायज है लेकिन उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि यह महामारी जल्दी खत्म होने वाली नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत अधिकांश विशेषज्ञों का मानना है कि यह वायरस जल्दी से जाने वाला नहीं है. इसका आखिरी इलाज वैक्सीन की खोज और उसे सभी लोगों तक पहुंचाना है. 

अब जब यह बात लगभग तय हो चुकी है कि कोरोना वायरस के खतरे के साथ ही हमें जीना है तो हमें अपनी जीवन शैली को बदलना होगा. लंबे समय तक हमें सामाजिक दूरी यानी सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन करना पड़ेगा, मास्क और सैनिटाइजर अब हमारे वस्त्र और आभूषण की तरह हमारे साथ चिपके रहेंगे. सार्वजनिक जगहों पर जाने, भीड़भाड़ से और गैरजरूरी चीजों के प्रयोग से बचना पड़ेगा.

यही नहीं, इन सब चीजों के बावजूद आप देख ही रहे हैं कि संक्रमण किस तेजी से बढ़ रहा है. लेकिन घबराए नहीं, यह लगातार बढ़ेगा क्योंकि जितनी ज्यादा टेस्टिंग होगी, संक्रमितों संख्या उतनी ज्यादा बढ़ती चली जाएगी लेकिन इसके अलावा कोई तरीका भी नहीं है. कोरोना से बचने के लिए जरूरी है कि संक्रमण के चेन को तोडा जाए और उसके लिए सभी संक्रमित लोगों की पहचान और उन्हें बाकी आबादी से अलग करना सबसे ज्यादा जरूरी है. हालाँकि सबसे बड़ी राहत की बात यह है कि दुनिया में संक्रमण की वजह से मृत्यु दर भारत में सबसे कम है.

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस संकट केबीच हमारे जीवन की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? आइए समझते हैं.

स्वास्थ्य: कोरोना संकट के दौर में ही नहीं बल्कि हमेशा के लिए किसी ने ठीक ही कहा है कि “पहला सुख निरोगी काया”. यह बात जितनी जल्दी हमारी समझ में आ जाए, उतना ही ठीक है क्योंकि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र यानी इम्यून-सिस्टम ही है जो इस महामारी से लड़ने में हमारी मदद करेगा. इसलिए जरूरी है कि इम्यून सिस्टम को
मजबूत करने के लिए पारंपरिक से लेकर डाक्टरों द्वारा सुझाए गए सभी उपायों का पालन करें जैसे तुलसी,सोंठ और काली मिर्च आदि से बना काढ़ा, च्यवनप्राश का सेवन, हल्के गर्म दूध में हल्दी के साथ सेवन आदि. तला-भुना और प्रोसेस्ड खाना खाने से बचें.

इसके साथ ही योग शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक अहम क्रिया है जिससे शरीर को आंतरिक और बाह्य दोनों तरह से मजबूती मिलती है. इसलिए योग को अपनी दिनचर्या में जरुर शामिल करें. एक्सपर्ट द्वारा सुझाए गए सभी खान-पान के नियमों का पालन करते हुए अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना और उसको बेहतर बनाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.

रोजगार/पढ़ाई: कोरोना वायरस से उत्पन्न इस भयानक मंदी के दौर में नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं और जो हैं, उन पर भी संकट मंडरा रहा है, इसलिए जो नौकरियां बचेगीं, वो सिर्फ अति योग्य उम्मीदवारों को ही मिलेंगी. इसलिए आप जिस भी क्षेत्र से जुड़े हैं उसके लिए ख़ुद को तराशते रहें, नई स्किल्स, नए कोर्सेज करके अपने आप को बेहतर बनाते रहें, आपको अवसर जरूर मिलेगा.

जो लोग पढ़ाई कर रहे हैं, खुद को ज्यादा समय देकर बेहतर ढंग से पढ़ाई कर सकते हैं. साथ ही, पर्याप्त समय होने के नाते अपनी पसंद का कोई नया काम कर सकते हैं मसलन पेंटिंग बनाना, नई भाषा सीखना, संगीत सीखना आदि. अगर आप खुद को बेहतर बनाएंगे तो रास्ते आपके लिए जरूर खुलेंगे.

जीने की कला: रोजमर्रा की जिंदगी की आपाधापी में हमें पीछे पलट कर देखने का मौका ही नहीं मिलता था. इस
संकट ने हमें जीवन जीने की कला सीखने का मौका दिया है, कम से कम वस्तुओं का इस्तेमाल, पैसे बचाना यानी कॉस्ट कटिंग जैसी चीजें अब हमें सीख लेना चाहिए. आर्थिक योजना यानी फाइनेंसियल प्लानिंग आपके जीवन का अहम हिस्सा होना चाहिए, ऐसे संकट के दौर में यही तरीके आपके जीवन को आसान कर सकते हैं. इससे हम अपनी और दूसरों की मदद कर सकते हैं.

इस महामारी का अभी तक जो इलाज है वो सावधानी ही है. अपने आस-पास के माहौल को सकारात्मक रखें. जितनी हो सके, लोगों की मदद करें. आप इस कोरोना नामक चुनौती से लड़ने के लिए पहले खुद को सक्षम बनाए, फिर अपने परिवार को और इसी तैयारी के साथ आप अपने समाज, अपने देश की मदद कर पाएंगे.

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रसारण पत्रकारिता के छात्र हैं.)

Wednesday 13 May 2020

'लेडी विद लैंप' फ़्लोरेंस ने ही दुनिया को बीमारों की सेवा करना सिखाया

अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस पर विशेष 


'लैम्प वाली महिलाफ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ऐसी नर्स थीं, जिन्होंने घायलों और मानवता की सेवा में पूरी ज़िंदगी लगा दी


गौरव तिवारी


आज विश्व कोरोना वायरस की महामारी से लड़ रहा है। मुश्किल की इस घड़ी में स्वास्थ्यकर्मियों और डॉक्टर्स के अलावा उन नर्सेस को भी हीरो के रूप में देखा जा रहा है, जो अपनी जान की परवाह किये बगैर लोगों की जान बचाने में लगी हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस विशेष महत्व रखता है, जो कल मनाया गया। इस खास मौके पर आइये जानते हैं उस लड़की की कहानी, जिसने 16 साल की उम्र में अपने सामंती परिवार वालों से निर्भय होकर कहा कि मुझे शादी नहीं करनी है, मुझे नर्स बनकर असहाय लोगों की सेवा करनी है। वो लड़की थी फ्लोरेंस नाइटिंगेल, जिन्हें आधुनिक नर्सिंग की जनक के तौर पर जाना जाता है और उनके जन्मदिवस यानी 12 मई को अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दफा दुनिया ने उनका 200वां जन्मदिवस मनाया।

फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल (Florence Nightingale) का जन्म 12 मई 1880 को इटली के फ्लोरेंस शहर में एक समृद्ध और उच्चवर्गीय परिवार में हुआ था। फ्लोरेंस शहर में जन्म होने के कारण इनका नाम फ्लोरेंस पड़ा। सन 1840 में इंग्लैंड में भयंकर अकाल पड़ा और अकाल पीड़ितों की दयनीय स्थिति देखकर वह बेचैन हो गयीं। अपने एक पारिवारिक मित्र डा. फोउलेर से उन्होंने नर्स बनने की इच्छा प्रकट की। उनका यह निर्णय सुनकर उनके परिजनों और मित्रो में खलबली मच गयी। परिवार के प्रबल विरोध के बावजूद फ्लोरेंस नाईटेंगल ने अपना इरादा नही बदला। विभिन्न देशों में अस्पतालों की स्थिति के बारे में उन्होंने जानकारी जुटाई और शयनकक्ष में मोमबत्ती जलाकर उसका अध्ययन करना शुरू कर दिया।
फ्लोरेंस के पिता चाहते थे कि वह एक धनी व्यक्ति से शादी करें और आराम की ज़िंदगी बिताएं लेकिन फ्लोरेंस ने नर्स बनने की ठान ली थी। उन दिनों नर्स बनना काफी मुश्किल था क्योंकि उस समय अच्छे परिवार की महिलाएं नर्स नहीं बनती थीं। इसके अलावा उन दिनों इस पेशे में बहुत कम पैसा था। कोई उनका आदर भी नहीं करता था। फ्लोरेंस ने इन सब की परवाह किये बगैर चुपचाप नर्स बनने की योजना बना ली। उन्हें पहला मौका तब मिला, जब उनकी दादी बीमार हो गईं। फ्लोरेंस उसके साथ ही रहीं और उनकी देखभाल की, लेकिन वह धीरे-धीरे जान गई थीं कि वह ठीक तरह से काम नहीं कर पा रही हैं इसलिए उन्हें नर्सिंग की ट्रेनिंग लेनी होगी।

फ्लोरेंस नाइटिंगेल एक पढ़ी-लिखी, काबिल, समझदार और ख़ूबसूरत युवती होने के साथ-साथ एक अमीर परिवार से भी थीं। ऐसे में शादी के रिश्ते आने ही थे लेकिन फ्लोरेंस की दिलचस्पी ऐसे किसी भी रिश्ते में नहीं थी। साल 1844 में फ्लोरेंस ने परिवार के तमाम विरोधों के बावजूद तय किया कि उन्हें नर्सिंग के पेशे में जाना है और लोगों की सेवा करनी है। 19वीं सदी की परंपरा के मुताबिक़ बच्चों की शिक्षा के लिए साल 1837 में नाइटिंगेल परिवार अपनी बेटियों को यूरोप के सफ़र पर ले गया। किस शहर में कितने अस्पताल और दान-कल्याण की कितनी संस्थाएं हैं , कितनी आबादी है, ऐसे आंकड़े फ्लोरेंस सफ़र के दौरान नोट करती थीं। सफ़र के आख़िर में फ्लोरेंस ने ऐलान किया कि ईश्वर ने उन्हें मानवता की सेवा का आदेश दिया है। लेकिन फ्लोरेंस के माँ-बाप इस फैसले के खिलाफ हो गए।
फ्लोरेंस नर्सिंग की ट्रेनिंग लेना चाहती थीं लेकिन मां-बाप ने इसकी इजाज़त नहीं दी। अंततः मां-बाप की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर फ्लोरेंस ने लंदन, रोम और पेरिस के अस्पतालों का दौरा किया। साल 1850 में जब नाइटिंगेल दंपति को ये एहसास हो गया कि उनकी बेटी शादी नहीं करेगी, तब उन्होंने फ्लोरेंस को नर्सिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए जर्मनी के कैम्सवर्थ संस्थान जाने की इजाज़त दे दी। साल 1853 में फ्लोरेंस को लंदन के हार्ले स्ट्रीट अस्पताल में चीफ ऑफ नर्सिंग बनने का मौक़ा मिला और आख़िरकार असहायों की सेवा करने का उनका ख़्वाब पूरा हुआ।

क्रीमिया के युद्ध ने दिलाई दुनियाभर में शोहरत


साल 1854 में क्रीमिया का युद्ध चल रहा था। ब्रिटिश सैनिकों को रूस के दक्षिण में स्थित क्रीमिया में लड़ने भेजा गया, जहां वे जख्मी होने, ठंड, भूख लगने और बीमारी आदि से मर रहे हैं। उनकी देखभाल के लिए वहां तो कोई व्यवस्था थी और ही कोई स्वास्थ्य कर्मचारी उपलब्ध था। अख़बारों में रही ख़बरों ने ब्रिटिश सैनिक अस्पतालों की दुर्दशा की दास्तानें बतानी शुरू कर दी थीं। ब्रिटेन के युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट ने फ्लोरेंस को 38 नर्सों के साथ तुर्की के स्कुतरी स्थित मिलिट्री अस्पताल जाने को कहा। ब्रिटेन के इतिहास में ये पहला मौक़ा था, जब महिलाओं को सेना में शामिल किया गया था। जब फ्लोरेंस नर्सों को लेकर वहां पहुंचीं, तो अस्पताल की हालत देखकर दंग रह गईं।  

अस्पताल मरीजों से खचाखच भरे हुए और गंदे थे। नालियां बंद हो चुकी थीं, शौचालय टूटे पड़े थे और हर तरफ चूहे दौड़ रहे थे। इतनी दुर्गंध रही थी कि खड़ा होना मुश्किल था। तो दवाएं थीं और ही चिकित्सीय उपकरण पर्याप्त संख्या में मौजूद थे। जख्मी सैनिकों को गंदे फर्श पर सोना पड़ता था। उनके पास ओढ़ने के लिए कंबल थे और ही पीने के लिए साफ पानी और ताजा भोजन। इन वजहों से बीमारी तेजी से फैल रही थी और अधिकतर सैनिक संक्रमण से मर रहे थे।

फ्लोरेंस ने तुरंत ही अपनी साथी नर्सों को काम पर लगा सबसे पहले अस्पताल को साफ़ करने को कहा। इसके बाद फ्लोरेंस ने सभी सैनिकों के उचित खान-पान और कपड़े का इंतज़ाम किया। ये विश्व इतिहास में पहली बार था, जब सैनिकों को इतने सम्मान के साथ रखा जा रहा था। फ्लोरेंस को पता था कि अस्पताल की सही हालत होने पर ही सैनिकों को बचाया जा सकता है। उन्होंने बेहतर चिकित्सीय उपकरण खरीदे और मरीजों के लिए अच्छे खाने का बंदोबस्त किया। नालियों और वार्डों की सफाई करवाई। इसके अलावा अस्पताल में एक किचन का बंदोबस्त किया। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने मरीजों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया। रात के समय में जब सब सो रहे होते थे, तब वह सैनिकों के पास उन्हें देखने जाती कि किसी सैनिक को कोई तकलीफ तो नहीं। अगर कोई तकलीफ होती तो फौरन उसको दूर करती ताकि सैनिक आराम से सो सके। इसके अलावा लिखने में असफल सैनिकों की ओर से वह उनके घरों पर पत्र भी लिखकर भेजती थीं। रात के समय जब वह मरीजों को देखने जातीं तो लालटेन हाथ में लेकर जाती थीं।

इसी कारण सैनिकों ने उनको 'लेडी विद लैंप' कहना शुरू कर दिया। इसके बाद आधुनिक नर्सिंग आंदोलन की जन्मदाता और दया-सेवा की प्रतिमूर्ति फ्लोरेंस ' लेडी विद लैम्प' (लैम्प वाली देवी) के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर हुईं। फ्लोरेंस नाइटिंगेल की हाथ में मशाल लिए हुए रात में घायल मरीज़ों की सेवा करने वाली तस्वीरें जब अख़बारों में छपीं, तो रातोंरात उनके हज़ारों फ़ैन बन गए। इससे पहले कभी भी बीमार और घायल सैनिकों के उपचार पर ध्यान नहीं दिया जाता था किन्तु इस महिला ने पुरानी तस्वीर को सदा के लिये बदल दिया। 
सन 1854 में क्रीमिया युद्ध में फ्लोरेंस नाईटेंगल की अतुलनीय सेवा को देखकरटाइम्स’ अखबार ने लेडी विद लैम्प नामक शीर्षक से छापी खबर में लिखा- वह तो साक्षात देवदूत हैं। दुर्गन्ध और चीख पुकार से भरे अस्थायी अस्पतालों में वह एक दालान से दूसरे दालान में जाती हैं और हर मरीज की भावमुद्रा उनके प्रति आभार और स्नेह के कारण द्रवित हो जाती है। रात में जब सभी चिकित्सक और कर्मचारी अपने-अपने कमरों में सो रहे होते हैं, तब वह अपने हाथों में लैंप लेकर हर बिस्तर तक जाती है और मरीजों की जरूरतो का ध्यान रखती है ।”

युद्ध के बाद जब फ्लोरेंस साल 1856 में ब्रिटेन लौटीं, तब तक उनका नाम ब्रिटेन की महान हस्तियों में गिना जाने लगा था। अखबारों में उनकी कहानियां छपने लगी थीं और लोग उनको हीरोइन समझने लगे थे। रानी विक्टोरिया ने खुद पत्र लिखकर उनका शुक्रिया अदा किया। सितंबर 1856 में रानी विक्टोरिया से जब फ्लोरेंस की भेंट हुई तब फ्लोरेंस ने महारानी को सैनिकों की बुरी हालत और मौत के सिलसिले का विवरण सुनाया। फ्लोरेंस ने महारानी से गुज़ारिश की कि वो सेना की सेहत की पड़ताल के लिए एक जांच आयोग बनाएं। महारानी ने फ्लोरेंस के कहने पर विलियम फार और जॉन सदरलैंड को उनकी मदद के लिए लगाया। इन तीनों की जांच में पता चला कि मारे गए 18 हज़ार सैनिकों में से 16 हज़ार की मौत जंग के ज़ख़्मों की वजह से नहीं, बल्कि गंदगी और संक्रामक बीमारियों से हुई थी। यानी इन सभी सैनिकों की जान बचाई जा सकती थी, यदि अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई के बेहतर इंतज़ाम होते। फ्लोरेंस ने महारानी से सैन्य चिकित्सा प्रणाली में सुधार पर भी चर्चा की, जिसके बाद बड़े पैमाने पर सुधार हुए। सेना ने डॉक्टरों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। अस्पताल साफ हो गए और सैनिकों को बेहतर कपड़ा, खाना और देखभाल की सुविधा मुहैया कराई गई।

गणित के सहारे नर्सिंग को आगे बढ़ाया


दरअसल फ्लोरेंस नाइटिंगेल की गणित में शानदार पकड़ थी। अपनी इसी क़ाबिलियत की वजह से फ्लोरेंस ने इतने लोगों की जान बचाने में कामयाबी हासिल की थी। सन 1857 में जब रॉयल सैनिटरी कमीशन की रिपोर्ट तैयार हुई, तो फ्लोरेंस को अंदाज़ा था कि सिर्फ़ आंकड़ों की मदद से उसकी बात लोग नहीं समझ पाएंगे। तब फ्लोरेंस ने 'रोज़ डायग्राम' के ज़रिए लोगों को समझाया कि जब सैनिटरी कमीशन (साफ़-सफ़ाई आयोग) ने काम करना शुरू किया, तो किस तरह सैनिकों की मौत का आंकड़ा तेज़ी से गिरा। ये पैमाना इतना कामयाब हुआ कि बहुत जल्द तमाम अख़बारों ने इसे छापा और दूर-दूर तक फ्लोरेंस का संदेश पहुंचाया। फ्लोरेंस की कोशिशों से ब्रिटिश फौज में मेडिकल, सैनिटरी साइंस और सांख्यिकी के विभाग बनाए गए।

भारत से भी जुड़ी रहीं फ़्लोरेंस


फ्लोरेंस नाइटिंगेल भारत में भी ब्रिटिश सैनिकों की सेहत को बेहतर करने के मिशन से जुड़ी थीं। साल 1880 का दशक आते-आते विज्ञान ने और भी तरक़्क़ी कर ली थी। तमाम डॉक्टरों की तरह फ्लोरेंस ने कीटाणुओं से बीमारी फैलने की बात पर यक़ीन करना शुरू कर दिया था। इसके बाद फ्लोरेंस का ज़ोर भारत में साफ़ पानी की सप्लाई बढ़ाने पर हो गया। वह उस वक़्त भी आंकड़े जुटा रही थीं और इस दौरान फ्लोरेंस ने भारत में अकाल के शिकार लोगों की मदद के लिए मुहिम छेड़ दी। 

फ्लोरेंस का मक़सद ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की जान बचाना और उन्हें साफ़-सुथरा माहौल देना था। फ्लोरेंस को लगता था कि भारत में अकाल के हालात उसी तरह हैं, जैसे उसने तुर्की के स्कुतारी में देखे थे। फ्लोरेंस ने भारतीय सैनिकों में स्वच्छता को लेकर काफी काम किया इससे 1873 के दौरान सैनिकों की मृत्यु दर प्रति हज़ार 69 से घटकर 18 पर गई। फ्लोरेंस को भारत के हालात के बारे में साल 1906 तक रिपोर्ट भेजी जाती रही। यही कारण है कि हर साल भारत में शानदार काम करने वाली नर्सों को राष्ट्रपतिनेशनल फ्लोरेंस नाइटिंगेल अवॉर्ड’ से नवाज़ते हैं।

योगदान और सम्मान


फ्लोरेंस ने 1860 में नर्सिंग शिक्षा को नई ऊँचाई देने के लिए नाइटिंगेल ने लन्दन में सेंट थॉमस हॉस्पिटल की स्थापना कर प्रोफेशनल नर्सिंग की नीव रखी थी। दुनिया का यह पहला धर्मनिरपेक्ष नर्सिंग स्कूल था, जो आज लन्दन के किंग्स कॉलेज का ही एक भाग है। नर्सिंग में उनके अद्वितीय कार्य के लिए उन्हें सम्मान देते हुए उनके नाम का एक मेडल भी जारी किया गया, जिसे नर्सिंग की दुनिया का सबसे बड़ा अवार्ड भी माना जाता है। सन 1869 में महारानी विक्टोरिया ने फ्लोरेंस को 'रॉयल रेड क्रॉस' से सम्मानित किया। 

सन् 1859 में फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अपनी सबसे मशहूर किताब, 'नोट्स ऑन नर्सिंग ऐंड नोट्स ऑन हॉस्पिटल्स' प्रकाशित की। इसके अगले ही साल फ्लोरेंस के नाम पर ब्रिटेन में नर्सिंग स्कूल की स्थापना हुई। अगले कुछ दशकों मे फ्लोरेंस के काम की वजह से नर्सिंग के पेशे को काफ़ी सम्मान की नज़र से देखा जाने लगा और अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई पर ज़ोर दिया जाने लगा। उनके द्वारा किये गए सामाजिक सुधारो में उन्होंने ब्रिटिश सोसाइटी के सभी भागो में हेल्थकेयर को काफी हद तक विकसित किया। उन्होंने भारत में बेहतर हंगर मैनेजमेंट की वकालत की जहाँ महिलाओं पर अत्याचार हुए, वहाँ उनके हक में लड़ीं। इसके अलावा देश में महिला कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

ख़ुद बीमार रहकर भी करती रहीं सेवा


इंसान की फितरत है खुद के लिए जीना लेकिन फ्लोरेंस नाइटिंगेल एक ऐसी महिला थीं, जो सिर्फ दूसरों के लिए जीकर अमर हो गईं। उन्होंने नर्सिंग को अत्याधिक प्रतिष्ठा दिलवाई और ब्रिटिश कल्चर की प्रतीक बनी। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने एक बार कहा था- 'मेरी सफलता का यही राज़ है कि मैंने कभी बहाने का सहारा नहीं लिया। फ्लोरेंस की वजह से ब्रिटेन में नर्सिंग के पेशे और अस्पतालों का रंग-रूप बदल गया।

माना जाता है कि क्रीमिया में फ्लोरेंस को भयंकर बीमारी ब्रुसेलोसिस के कीटाणुओं का हमला झेलना पड़ा था, जिससे फ्लोरेंस बहुत कमज़ोर हो गई थीं और अकेले रहती थीं। बीमारी के दौरान भी वो तमाम आंकड़ों की मदद से ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा में सुधार की जंग लड़ती रहीं। 1870 का दशक आते-आते फ्लोरेंस की मुहिम रंग लाने लगी थी। हालांकि वो बीमार थीं, मगर बेहद अमीर थीं, सो अपनी निजी देखभाल का ख़र्च उठा सकती थीं लेकिन उन्हें पता था कि उस वक़्त ब्रिटेन के ज़्यादातर आम लोगों के लिए ये ख़र्च उठा पाना नामुमकिन था। ऐसे लोग सिर्फ़ एक-दूसरे की मदद ही कर सकते थे, इसलिए फ्लोरेंस ने अपनी किताबनोट्स ऑन नर्सिंग’ के जरिये लोगों को समझाया कि वो कैसे बीमारी के दौरान एक-दूसरे के मददगार बन सकते हैं।

मानव सेवा के क्षेत्र में एक महान काम करने के बाद 90 वर्ष की उम्र में 13 अगस्त 1910 को फ्लोरेंस नाइटिंगेल का देहांत हो गया। उनके सम्मान में उनके जन्मदिन को अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस के तौर पर मनाने की शुरुआत की गई। इस खास मौके पर नर्सिंग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाली नर्सों को फ्लोरेंस नाइटिंगेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। फ्लोरेंस को ब्रिटेन की सरकार ने 'ऑर्डर ऑफ़ मेरिट' के सम्मान से नवाज़ा। ये सम्मान पाने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल विश्व की पहली महिला थीं। मृत्यु के बाद सेंट मार्गरेट गिरजाघर के प्रांगण में फ़्लोरेंस नाइटेंगेल को दफनाया गया। उनकी कब्र आज भी दुनियाभर के स्वास्थ्यकर्मियों के लिए एक प्रेरणास्थल है।


कोरोना वायरस के साथ ही डालनी पड़ेगी जीने की आदत

कोरोना का सबसे बड़ा सबक है कि अब हमें जीवन जीने के तरीके बदलने होंगे  संजय दुबे  भारत में कोरोना वायरस के चलते लगा देशव्यापी लाकडाउन...