कई शोधों से ये बात पता चली है कि क्वारन्टीन में रहने वाला व्यक्ति ही नहीं, मेडिकल स्टाफ भी डिप्रेशन में चला जाता है
- आशुतोष तिवारी
कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के चलते फैलने वाली विश्वव्यापी महामारी ने इंसानी समाज के सामने कई नई चुनौतियाँ पेश की हैं. इस वायरस से संक्रमित व्यक्ति को सबसे पहले क्वारन्टीन किया जाता है अर्थात उसे स्वस्थ लोगों से दूर अलग-थलग रखा जाता है ताकि वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान के शरीर में प्रवेश ना कर सके। आज जब दुनिया में क़रीब 10 लाख से ज़्यादा लोग इस बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं तो उन्हें क्वारन्टीन में रखना इस बीमारी से बचाव की एक आवश्यक प्रक्रिया है। पर शोध बता रहे हैं कि लम्बे समय तक क्वारन्टीन में रखे गए व्यक्ति के दिमाग़ पर इसका काफ़ी नकारात्मक असर पड़ता है। क्वारन्टीन से दुनियाभर में लाखों लोगों को लंबे समय तक मानसिक तनाव, अवसाद और अन्य मनोवैज्ञानिक दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।
विश्व की सबसे पुरानी और प्रख्यात चिकित्सा पत्रिका "दी लैंसेट" की एक रिपोर्ट में इस बारे में खुलासा किया गया है। रिपोर्ट में क्वारन्टीन के बारे में किंग्स कॉलेज लन्दन जैसी दुनिया भर की कई उच्च शिक्षण संस्थाओं द्वारा जारी 24 शोध पत्रों की समीक्षा की गई है। अधिकतर शोध नतीजों में यह पाया गया है कि लोगों पर क्वारन्टीन के मानसिक प्रभाव ज्यादातर नकारात्मक हैं। इसमें कहा गया है कि क्वारन्टीन में जाने वाले व्यक्ति को लंबे समय तक अवसाद, चिंता, तनाव और चिड़चिड़ापन जैसी मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
विश्व की सबसे पुरानी और प्रख्यात चिकित्सा पत्रिका "दी लैंसेट" की एक रिपोर्ट में इस बारे में खुलासा किया गया है। रिपोर्ट में क्वारन्टीन के बारे में किंग्स कॉलेज लन्दन जैसी दुनिया भर की कई उच्च शिक्षण संस्थाओं द्वारा जारी 24 शोध पत्रों की समीक्षा की गई है। अधिकतर शोध नतीजों में यह पाया गया है कि लोगों पर क्वारन्टीन के मानसिक प्रभाव ज्यादातर नकारात्मक हैं। इसमें कहा गया है कि क्वारन्टीन में जाने वाले व्यक्ति को लंबे समय तक अवसाद, चिंता, तनाव और चिड़चिड़ापन जैसी मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
किन लोगों पर हुआ यह शोध
इस शोध रिपोर्ट में 10 देशों के उन नागरिकों को शामिल किया गया, जो सार्स (SARS), मर्स (MERS), इबोला (EBOLA) और स्वाइन फ्लू जैसी महामारियों के दौरान क्वारन्टीन किए गए थे। शोध में उनके परिजनों और ड्यूटी पर तैनात मेडिकल स्टाफ को भी शामिल किया गया था।
चिंताजनक हैं नतीजे
विभिन्न शोधों में सामने आए परिणाम बेहद चिंताजनक हैं। एक शोध के अनुसार, क्वारन्टीन किए गए 60 फीसद लोगों में मानसिक रोगों के गम्भीर लक्षण पाए गए। सिर्फ़ 15 फ़ीसद लोगों में मानसिक बीमारी के लक्षण हल्के दिखे। इसी तरह एक अन्य शोध में यह पाया गया कि क्वारन्टीन किए गए बच्चों में सामान्य बच्चों की तुलना में मानसिक अवसाद चार गुना अधिक था। एक अन्य शोध का नतीजा यह बताता है कि क्वारन्टीन के दौरान ड्यूटी पर तैनात मेडिकल स्टाफ में महामारी के तीन साल बाद तक मानसिक अवसाद के लक्षण उपस्थित रहे।
क्या होता है क्वारन्टीन और आइसोलेशन
जब किसी संक्रामक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को अन्य लोगों से इसलिए दूर रखा जाता है कि उसका संक्रमण स्वस्थ लोगों तक ना पहुँचे तो इस प्रक्रिया को क्वारन्टीन कहते हैं। यह आइसोलेशन से अलग होता है। आइसोलेशन, क्वारन्टीन के बाद का स्टेज है जिसमें व्यक्ति बीमारी से संक्रमित हो चुका होता है।वहीं क्वारन्टीन का मतलब है कि किसी व्यक्ति में बीमारी के लक्षण दिख रहे हैं और आशंका होती है कि परीक्षण में उसके संक्रमित होने की पुष्टि हो सकती है।
कैसे करें अवसाद के लक्षणों की पहचान
लगातार थकान होना, पसन्दीदा काम में मन न लगना, अकेलापन महसूस करना, ठीक से नींद न आना, अनियमित भूख, गुस्सा, चिड़चिड़ापन, बेचैनी और किसी काम को अधूरा छोड़ने जैसी प्रवृत्ति मानसिक अवसाद के लक्षण हो सकते हैं।
क्वारन्टीन के दौरान अवसाद के कारण
- क्वारन्टीन की लंबी अवधि
- संक्रमण का डर
- निराशा और बोरियत
- ज़रूरी सामानों (खाना, पानी, दूध आदि) की कमी
- सूचनाओं से दूरी
आठ शोधों ने इस बात की पुष्टि की है कि क्वारन्टीन किए गए व्यक्ति की चिंता, बीमारी के छोटे-छोटे लक्षण भी बहुत बढ़ा देते हैं। ऐसे में वह परिजनों और मित्रों के स्वास्थ्य के बारे में भी बहुत ज्यादा चिंतित और परेशान रहने लगता है।
क्वारन्टीन के बाद क्यों होता है अवसाद
- आर्थिक नुकसान
- कलंक का डर
24 में से 12 शोधों में क्वारन्टीन किए गए लोगों ने यह माना कि क्वारन्टीन से निकलने के बाद समाज उनके साथ बदला हुआ व्यवहार करने लगा। लोग उनसे कटने लगे, उनके साथ शक का व्यवहार करने लगे, उन पर भद्दी टिप्पणियाँ की गईं, यहाँ तक कि उन्हें सामाजिक सम्मेलनों में शामिल होने से भी मना कर दिया गया।
- क्वारन्टीन की अवधि को छोटा किया जाए
- लोगों तक अधिक से अधिक सूचनाएँ पहुँचाईं जाएँ
- बोरियत से निपटने के लिए मनोरंजन के साधनों का अधिक उपयोग
- क्वारन्टीन के दौरान और उसके बाद भी लोगों के बीच पर्याप्त संवाद हो
- नियमित शारीरिक अभ्यास व योग
- मेडिकल कर्मचारियों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत, उनकी सहायता सबसे ज़्यादा ज़रूरी
- क्वारन्टीन किए गए लोगों के साथ ज़बरदस्ती न की जाए और उन्हें प्यार से ज़रूरी बात समझाई जाए
क्या हैं इस अवसाद से निकलने के उपाय
अधिकतर शोधों में यह पाया गया कि जो लोग क्वारन्टीन के दौरान लगातार अपने करीबी लोगों के साथ फोन अथवा इंटरनेट के माध्यम से सम्पर्क में थे, उनमें अवसाद के लक्षण बहुत ही कम पाए गए।
कोरोना महामारी जिस रफ्तार से दुनिया को अपनी जद में ले रही है, उससे लगता है कि अभी हमें और कुछ और दिनों तक खुद को घर में बंद रखना पड़ेगा। भारत में केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें अपने स्तर पर इस चुनौती से निपटने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन सबसे ज़रूरी है सोशल डिस्टेंसिंग यानी हम जब घर से बाहर निकलें तो दूसरे लोगों से एक सुरक्षित दूरी बनाकर चलें। घर में क़ैद होकर मानसिक अवसाद से बचने का सबसे अच्छा तरीक़ा ये है कि हम अपने समय को रचनात्मक कार्यों में लगाएं। आप चाहें तो अपनी कोई पसंदीदा किताब पढ़िए, फ़िल्म देखिए, रसोई में भिड़ जाइए, अपने करीबी लोगों से बात करिए और या फिर वो सब काम, जो आपको पसंद हों। एक कहावत है, ख़ाली मन शैतान का घर. सो यथासंभव ख़ुद को व्यस्त रखें और सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज़ रहें।
(दी लैंसेट में छपी रिपोर्ट का लिंक:
https://www.thelancet.com/journals/lancet/article/PIIS0140-6736(20)30460-8/fulltext
ऐसे समय में ऐसे विषयों पर ध्यान आकर्षण आवश्यक है❣️🙏🙏
ReplyDeleteThanks bhaiya, apne bhut achha topic ka chunav kiya h
ReplyDeleteSaraahneey karya...Ashutosh ji
ReplyDeleteIsse hmaare samaaj mei awsaad jaisi mansik bimariyo k baare mei jagrukta badhegi. 🙏🙏